शादी या बलात्कार का अधिकार

सरिता के मामले ने नई दिल्ली में 16 दिसंबर, 2012 को 23 साल की पैरामेडिकल छात्रा के साथ हुए सामूहिक दुष्कर्म के मामले की भी यादें ताजा कर दी हैं. दोनों ही मामलों में दिखाई गई वहशियत लगभग एक जैसी है लेकिन कानून की नजरों में निर्भया के दोषियों को ही दुष्कर्म के मामले में सजा हो सकी. जबकि सरिता के मामले में पति को सजा नहीं हो सकी क्योंकि वैवाहिक रिश्तों में दुष्कर्म को अपराध नहीं माना जाता. आईपीसी की धारा 375 कहती है, ‘अगर एक युवती 15 साल से बड़ी हो तो उसके साथ पति द्वारा यौन संबंध बनाना, दुष्कर्म की श्रेणी में नहीं आता.’ इस अपवाद ने कानूनी पक्षकारों, एनजीओ और सामाजिक कार्यकर्ताओं के एक धड़े को कार्यपालिका और न्यायपालिका की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाने पर मजबूर किया. इस मामले को लेकर बहस और कानून बनाने की चर्चा गर्म है.

 arvind jain read‘बलात्कार का कानूनी लाइसेंस !’ | अरविंद जैन | अधिवक्ता

अधिवक्ता वृंदा ग्रोवर बताती हैं, ‘कानून की इस धारा को हटाने की जरूरत है क्योंकि यह बराबरी और किसी के जीने के संवैधानिक अधिकारों का हनन करता है. आपराधिक कानून में संशोधन करने के बाद ऐसे मामलों में महिला और दोषी व्यक्ति के रिश्तों की परवाह किए बगैर उसकी ‘सहमति’ को तवज्जो देनी चाहिए.’ अधिवक्ता करुणा नंदी महसूस करती हैं कि पति द्वारा पत्नी से बलात्कार और बलात्कार के दूसरे मामलों में भेद करना बेहद शर्मनाक और पूरी तरह से अतार्किक है. करुणा कहती हैं, ‘कुछ लोग का ऐसा मानना है कि कुछ बलात्कार ‘पवित्र’ और कुछ ‘आपराधिक’ होते हैं. दरअसल यह भेद महिलाओं के खिलाफ सबसे जघन्य हिंसा है.’ एनजीओ ह्यूमन राइट्स वॉच की दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली विवाह संस्थाओं को सुरक्षा देने की सलाह पर गृह राज्यमंत्री को आड़े हाथों लेती हैं. वह कहती हैं, ‘यह राज्य का काम नहीं कि वह संस्कृति (विवाह संस्था) को बढ़ावा दे. बजाय इसके उसे राज्य के नागरिकों खासकर महिलाओं की सुरक्षा पर ध्यान देना चाहिए.’

यह राज्य का काम नहीं कि वह संस्कृति (विवाह संस्था) को बढ़ावा दे. बजाय इसके उसे राज्य के नागरिकों खासकर महिलाओं की सुरक्षा पर ध्यान देना चाहिए. गृह राज्यमंत्री बेवजह विवाह संस्थाओं की वकालत कर रहे हैं. ऐसी संस्थाओं को चाहिए कि वे महिलाओं को भी वे ही अधिकार दें जो पुरुषों को मिले हुए हैं

मीनाक्षी गांगुली , ह्यूमन राइट वाच की दक्षिण एशिया प्रमुख

16 दिसंबर 2012 को हुए निर्भया बलात्कार कांड के बाद आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम 2013 के तहत हुआ एकमात्र सुधार ये है कि पति द्वारा पत्नी पर अलग रहने की स्थिति में (जब तलाक का मामला कोर्ट में चल रहा हो और वे न्यायिक रूप से अलग रह रहे हों) किए गए यौन शोषण को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 376बी के तहत एक संज्ञेय और गैर-जमानती अपराध की श्रेणी में रखा गया. इसमें न्यूनतम दो और अधिकतम सात साल कैद व जुर्माने की सजा का प्रावधान है.

Muslim brides sit as they wait for the start of a mass marriage ceremony in Ahmedabad  readदोराहे पर राय | केएन अशोक | दीप्ति श्रीराम

हालांकि ये बात उन नारीवादियों और इस मसले को लेकर काम कर रहे दूसरे कार्यकर्ताओं को संतुष्ट करने में नाकाम रही है जिनका मानना है कि विवाह के भीतर बनाए गए जबरन संबंध को बलात्कार की श्रेणी में रखा जाना चाहिए. कानूनी जानकार अनिल कौल कहते हैं कि ये वास्तविक मुद्दे से भटकाने के लिए बनाया गया एक पर्दा है जिससे शोषण को ढका जा रहा है.

ऐसा करना समाज में फैले पाखंडों को नीतिगत बनाने की कोशिश है. वैसे कानून के जानकारों में कुछ संजय हेगड़े (देखें पेज 46) जैसे भी हैं जो ये मानते हैं कि घरेलू हिंसा या अलग रह रहे दंपतियों के मामलों को छोड़कर कानून को किसी की भी वैवाहिक निजता में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए. हालांकि उनके तर्क के खिलाफ वृंदा ग्रोवर कहती हैं, ‘आईपीसी में धारा 498ए और घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005 की व्यवस्था के बाद क्या निजी है और क्या सार्वजानिक, ये फर्क करना ही मुश्किल हो गया है. कानून तो उसी वक्त परिवार में आ जाता है जब वहां जान-बूझकर किसी महिला को नुकसान पहुंचाया जाता है.

पति द्वारा पत्नी से बलात्कार और बलात्कार के दूसरे मामलों में भेद करना बेहद शर्मनाक और पूरी तरह से अतार्किक है. ये कहां का नियम है कि अपराध के एक जैसे मामले को दो चश्मों से देखा जाए. कुछ लोग ये तथ्य बताते हैं कि कुछ दुष्कर्म ‘पवित्र’ और कुछ ‘आपराधिक’ होते हैं. दरअसल यह भेद महिलाओं के खिलाफ सबसे जघन्य हिंसा है

करुणा नंदी, अधिवक्ता

ग्रोवर की बात का समर्थन करते हुए अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला संघ (एआईपीडब्ल्यूए) की सचिव कविता कृष्णन कहती हैं, ‘जब किसी बस या फुटपाथ पर हुआ बलात्कार कानून के दायरे में है तो बेडरूम में किया गया बलात्कार इससे बाहर कैसे हो सकता है?’

shalini read सेक्स प्रेम की अभिव्यक्ति हो हिंसा की नहीं | शालिनी माथुर| वरिष्ठ लेखिका

वैवाहिक बलात्कार को अपराध मानने को लेकर हुई बहस में अब तक की सबसे बड़ा हस्तक्षेप आपराधिक कानून अधिनियम में संशोधन किए जाने के लिए बनी जस्टिस जेएस वर्मा कमेटी ने किया है. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रहे स्वर्गीय जस्टिस वर्मा के प्रतिनिधित्व में बनी इस कमेटी में हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट की पूर्व मुख्य न्यायाधीश लीला सेठ और पूर्व सॉलीसिटर जनरल गोपाल सुब्रह्मण्यम सदस्य थे. कमेटी का गठन 23 दिसंबर 2012 को किया गया था. कमेटी ने 23 जनवरी 2013 को अपनी रिपोर्ट सौंपी थी. कमेटी की अनुशंसा थी कि वैवाहिक बलात्कार को अपवाद की श्रेणी से हटा देना चाहिए (देखें पेज 43). तर्क ये दिया गया था कि वैवाहिक बलात्कार को माफी या छूट देना विवाह के साथ जुड़ी उस रूढ़िवादी मान्यता को पोषित करता है जिसके अनुसार बीवी को पति की जागीर या संपत्ति समझा जाता है.

आगे पढ़ने के लिए क्लिक करें

 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here