‘बलात्कार का कानूनी लाइसेंस !’

आज के दिन 18 साल से बड़ी (बालिग) लड़की अपनी मर्जी से विवाह कर सकती है, बिना विवाह के यौन संबंध बना सकती है, सहजीवन में किसी के भी साथ रह सकती है, बच्चा गोद ले सकती है, खुद बच्चा पैदा कर सकती है, कृत्रिम गर्भाधान का रास्ता अपना सकती है- इन सबका मतलब ये है कि कोई भी बालिग लड़की अपने कानूनी अधिकारों का उपयोग कर सकती है.

1949 से 2013 तक (संशोधन से पहले) 16 साल से बड़ी उम्र की लड़की, अपनी मर्जी से किसी के भी साथ यौन संबंध बना सकती थी, जबकि लड़की के बालिग होने या विवाह योग्य उम्र 18 साल ही रही. सहमति से संभोग की उम्र, 16 साल से बढ़ाकर 18 साल इसलिए करनी पड़ी ताकि ‘देश की बेटियों’ को ‘यौन हिंसा’ से बचाया जा सके और कानूनी विसंगतियों को भी समाप्त किया जा सके.

अापराधिक कानून संशोधन अधिनियम, 2013 में सहमति से संभोग की उम्र 16 साल से बढ़ाकर 18 साल कर दी गई है, मगर 15 साल से बड़ी उम्र की पत्नी से सहवास अभी भी बलात्कार नहीं माना जाता. सरकार ने ‘वैवाहिक बलात्कार’ संबंधी न तो विधि आयोग की 205वीं रिपोर्ट की सिफारिश को माना और न ही जेएस वर्मा आयोग की राय कि ‘भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के अपवाद को खत्म कर दिया जाना चाहिए.’

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सवाल है कि क्या भारतीय समाज (संसद-अदालत) अपनी ‘बेटियों’ को तो यौन संबंधों से बचाना चाहता है, पर नाबालिग पत्नी से बलात्कार करने का कानूनी अधिकार (हथियार) बनाए-बचाए रखना चाहता है. 15 साल की नाबालिग पत्नी से बलात यौन हिंसा की ‘शर्मनाक’ कानूनी छूट को कैसे न्यायपूर्ण माना-समझा जा सकता है? बलात्कार की संस्कृति को बढ़ावा देते इन अर्थहीन, विसंगतिपूर्ण और अंतर्विरोधी कानूनों से न बाल विवाह रोके जा सकते हैं और न ही बाल वेश्यावृत्ति.

नाबालिग पत्नी से यौन हिंसा की कानूनी छूट

बीते समय में दिल्ली की अदालत का एक फैसला सुर्खियों में रहा, जिसमें कहा गया था कि पत्नी से जबरन यौन संबंध बनाना बलात्कार का अपराध नहीं माना जाएगा. दरअसल इस पर बात करने से पूर्व इसके संक्षिप्त इतिहास पर गौर कर लेना ठीक होगा. 2008 में दिल्ली हाई कोर्ट में पूर्ण खंडपीठ के समक्ष एक मुकदमा बाल विवाह की वैद्यता को लेकर पेश हुआ था- महादेव बनाम भारत सरकार का मुकदमा. महादेव एक गरीब व्यक्ति था जिसकी साढ़े पंद्रह साल की एक बेटी थी जिसने किसी लड़के के साथ भागकर शादी कर ली थी. पुलिस में मामला दर्ज हुआ और जब वह मिली तो गर्भवती थी. पुलिस जब लड़की को कोर्ट में लेकर आई तो मजिस्ट्रेट ने उसे पति के साथ नहीं जाने दिया. लड़की अपने पिता के साथ जाना नहीं चाहती थी. मजिस्ट्रेट ने अंततः उसे नारी-निकेतन भेज दिया. वह 18 साल की होने तक नारी-निकेतन में ही रही. उसकी डिलीवरी भी नारी निकेतन में ही हुई.

मामला मेरे पास आया तो मैंने पाया कि हाई कोर्ट के फैसले में बहुत विरोधाभास हैं. मैंने मामले को आगे बढ़ाया तब यह बाल-विवाह की वैधता को लेकर तीन न्यायाधीश की पूर्णपीठ के समक्ष प्रस्तुत किया गया था. बाल विवाह की वैद्यता के सवाल को लेकर बहुत से विरोधाभास थे और उस वक्त मुझे यह लगा कि यह एक ऐसा मामला है जिसके सहारे मैरिटल रेप (वैवाहिक बलात्कार) पर बहस शुरू की जा सकती है. यहां उल्लेखनीय है कि जनता पार्टी के शासन (1978) में जब बाल विवाह रोकथाम अधिनियम, 1929 और हिन्दू विवाह अधिनियम, में संशोधन किए गए थे. 1978 में जब लड़की की शादी की उम्र 15 से बढ़ाकर 18 की गई, तब इसके कई पक्षों पर बहुत विचार-विमर्श किया गया था. मसलन मानसिक परिपक्वता से लेकर शारीरिक परिपक्वता तक.

जवाहर लाल नेहरू ने कहा है, हम हर भारतीय स्त्री से सीता होने की अपेक्षा करते हैं लेकिन पुरुषों से मर्यादा पुरुषोत्तम राम होने की नहीं

बाल विवाह निषेध अधिनियम 2006 के मुताबिक, किसी भी लड़की की शादी की उम्र 18 साल और लड़के की उम्र 21 होनी अनिवार्य है. 18 साल से कम उम्र की लड़की की शादी 21 साल से कम उम्र के लड़के के साथ कराना दंडनीय अपराध है और दो साल का सश्रम कारावास या एक लाख रुपये तक का आर्थिक दंड या फिर दोनों हो सकते हैं. मगर न तो विवाह अवैध माना जाता है और न ही शादी के वक्त यदि लड़के की उम्र 18 साल से कम है तो इसे अपराध माना जाता.

2013 के संशोधन ने विवाह और सहमति से संभोग की उम्र 18 साल कर दी है मगर धारा 375 के अपवाद में आज भी यह प्रावधान बना हुआ है कि (नाबालिग) पत्नी के साथ जिसकी उम्र 15 साल से अधिक है, जबरन यौन संबंध ‘बलात्कार’ नहीं माना जाएगा. इन कानूनों में किए गए प्रावधानों में जब सहमति से सहवास की उम्र 18 साल कर दी गई है, तब 15 साल से बड़ी पत्नी के साथ सहमति से भी यौन संबंध की स्वीकृति कैसे दी जा सकती है? 15 साल की उम्र शारीरिक और मानसिक परिपक्वता की दृष्टि से बहुत ही छोटी उम्र है और हां, इस उम्र में नाबालिग लड़की पर किसी भी तरह का दबाव बनाना ज्यादा आसान हो सकता है.

अन्यायपूर्ण कानूनों की संवैधानिक वैधता को चुनौती

मैंने दिल्ली हाई कोर्ट में एक और याचिका दायर की. इसमें मैंने भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के अपवाद (15 साल से बड़ी पत्नी के साथ सेक्स को बलात्कार नहीं माना गया है) की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी. भारतीय दंड संहिता की धारा 376 में उस वक्त यह प्रावधान किया गया था कि 12-15 साल तक की बीवी के साथ संबंध बनाने पर पति को दो साल की कैद या जुर्माना हो सकता है. यह जमानत योग्य अपराध था और इसमें अधिकारिक रूप से जमानत मिल सकती थी. इस प्रावधान की संवैधानिक वैधता को भी चुनौती दी गई.

सीआरपीसी की धारा 198 (6) में यह प्रावधान किया गया था कि कोई भी कोर्ट मैरिटल रेप के मामले को संज्ञान में नहीं लेगा. इसका मतलब ये हुआ कि आप अपने ऊपर हो रहे अन्याय के खिलाफ अदालत भी नहीं जा सकते हैं. इसमें पत्नी की उम्र का भी कोई जिक्र नहीं किया गया था मतलब पत्नी किसी भी उम्र की हो सकती है. हिन्दू अल्पवयस्कता और संरक्षकता अधिनियम में धारा 6(सी) के तहत एक और विचित्र प्रावधान है कि अगर पति और पत्नी नाबालिग हों तो पति, पत्नी का अभिवावक होगा. कानून के इन सभी प्रावधानों की संवैधानिक वैधता को हाई कोर्ट में चुनौती दी गई. दिल्ली हाई कोर्ट में मामला चलता रहा. सरकारी वकील ने लगातार यह कहकर तारीख ली कि सरकार कानून में उचित संशोधन कर रही है. आपराधिक संशोधन विधेयक 2010, 2011 और 2012 के प्रारूप अदालत में पेश किए गए थे. सात दिसंबर 2012 को आपराधिक संशोधन विधेयक पर बहस चल ही रही थी कि 16 दिसम्बर 2012 को ‘निर्भया बलात्कार कांड’ आ खड़ा हुआ. देश भर में जोरदार आंदोलन हुए जिसके दबाव में आकर सरकार ने अध्यादेश जारी कर दिए. वर्मा कमीशन की रिपोर्ट भी आई और अंततः 3 फरवरी 2013 से आपराधिक संशोधन अधिनियम, 2013 लागू हुआ. महादेव केस के तमाम मुद्दे ‘निर्भया कांड’ के पीछे कहीं दब-छुप गए. अब यहां यह समझ लेना जरूरी होगा कि अापराधिक संशोधन अधिनियम, 2013 से पूर्व और संशोधन के बाद कानून के प्रावधानों में क्या फर्क आया.

 2013 से पूर्व कानून

अापराधिक संशोधन अधिनियम 2013 के लागू होने से पहले बिना सहमति के किसी औरत के साथ यौन संबंध स्थापित करना या 16 वर्ष से कम उम्र की लड़की के साथ (सहमति के साथ भी) संबंध स्थापित करना बलात्कार की श्रेणी में आता था. हालांकि 15 साल से अधिक उम्र की अपनी पत्नी के साथ जबरदस्ती किया गया यौन संबंध बलात्कार नहीं माना जाता रहा. भारतीय दंड संहिता की धारा 376 के अनुसार किसी महिला के साथ बलात्कार करनेवाले को आजीवन कारावास की सजा दी जा सकती थी/है, लेकिन यदि पति 12 से 15 साल की अपनी पत्नी के साथ बलात्कार करता है तो अधिकतम सजा में ‘विशेष छूट’ थी. इस मामले में सिर्फ दो साल की जेल या जुर्माना या दोनों का प्रावधान था. बलात्कार संज्ञेय और गैर जमानती अपराध था लेकिन 12-15 साल की पत्नी के साथ बलात्कार संज्ञेय अपराध नहीं माना जाता था. इस अपराध में अाधिकारिक रूप से जमानत मिल सकती थी. 15 साल से कम उम्र की पत्नी के साथ बलात्कार के मामले में भी पुलिस कोई भी कार्रवाई नहीं कर सकती थी. ऐसे मामलों में गरीब नाबालिग लड़की को खुद ही कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ता और जटिल कानूनी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता था.

 2013 के बाद का कानून

अापराधिक कानून संशोधन अधिनियम 2013 में बलात्कार को अब ‘यौन हिंसा’ मान लिया गया है. इसमें सहमति से संभोग की उम्र 16 साल से बढ़ाकर 18 साल कर दी गई है जबकि धारा 375 के अपवाद में पत्नी की उम्र 15 साल ही है. 15 साल से कम उम्र की पत्नी से बलात्कार के मामले में अब सजा में कोई ‘विशेष छूट’ नहीं मिलेगी. ‘निर्भया’ कांड के बाद हुए संशोधन के बाद इस प्रावधान को भारतीय दंड संहिता से हटा लिया गया। अापराधिक संशोधन अधिनियम 2013 से पहले पति को सिर्फ ‘सहवास’ करने की छूट थी, मगर संशोधन के बाद तो ‘अन्य यौन क्रियाओं’ का भी अधिकार दे दिया गया है. यह किसी भी सभ्य समाज में उचित, न्यायपूर्ण नहीं माना-समझा जा सकता. अापराधिक संशोधन अधिनियम, 2013 को पारित करते समय सरकार ने ‘वैवाहिक बलात्कार’ संबंधी न तो विधि आयोग की 205वीं रिपोर्ट की सिफारिश को माना और न ही वर्मा आयोग के सुझाव. भारतीय विधि आयोग ने सिफारिश की थी कि भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के अपवाद को खत्म कर दिया जाना चाहिए.

अापराधिक संशोधन अधिनियम, 2013 के बाद आज भी भारतीय दंड संहिता की धारा 375 का अपवाद, पति को अपनी 15 साल से बड़ी उम्र की नाबालिग पत्नी के साथ बलात्कार करने का ‘कानूनी लाइसेंस’ देता है, जो निश्चित रूप से नाबालिग बच्चियों के साथ मनमाना और विवाहित महिला के साथ कानूनी भेदभावपूर्ण रवैया है. यह भेदभावपूर्ण कानूनी प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 में दिए गए मौलिक अधिकार और मानवाधिकार का भी हनन करता है. परिणामस्वरूप शादीशुदा महिलाओं के पास चुपचाप यौन हिंसा सहन करने, बलात्कार की शिकार बने रहने या फिर मानसिक यातना के आधार पर पति से तलाक लेने या घरेलू हिंसा अधिनियम के अधीन मुकदमा करने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहा जाता है, जो नाकाफी है. दुनिया के लगभग छह मुल्कों में वैवाहिक बलात्कार को दंडनीय अपराध की श्रेणी में रखा गया है. नेपाल जैसे छोटे से मुल्क में वैवाहिक बलात्कार को अपराध माना गया है. नेपाल के सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में कहा था- ‘पत्नी की सहमति के बिना संभोग बलात्कार के दायरे में आएगा. धार्मिक ग्रंथों में भी पुरुषों को द्वारा पत्नी के बलात्कार की अनदेखी नहीं की गई है. हिन्दू धर्म में पति और पत्नी की आपसी समझ पर जोर दिया गया गया है.’

अंत में एक बात और यह कि आखिर दाम्पत्य में बलात्कार कानून से पुरुष समाज क्यों डरा हुआ है? इस कानून को न बनाए जानेवाले ये तर्क देते हैं कि वैवाहिक बलात्कार कानून बन जाने से विवाह और परिवार जैसी पवित्र संस्था को खतरा पहुंच सकता है. मैं जवाहर लाल नेहरू जी के शब्दों को याद करके इसका जवाब देना चाहूंगा- ‘हम हर भारतीय स्त्री से सीता होने की अपेक्षा करते हैं लेकिन पुरुषों से मर्यादा पुरुषोत्तम राम होने की नहीं.’

स्वतंत्र मिश्र से बातचीत पर आधारित