अब तो यही हैं दिल से दुआएं भूलने वाले भूल ही जाएं…

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सतासी साल की जरीना बेगम लखनऊ की बहुचर्चित  दरबारी-बैठक गायिकी की आखिरी फनकार हैं. गायन की वो परंपरा जिसकी पराकाष्ठा का नाम बेगम अख्तर है, जरीना के बाद खत्म हो जाएगी. लेकिन ‘तहजीबवालों’ के बीच इसे लेकर कोई हलचल नहीं दिखती. तब भी नहीं जबकि जरीना गंभीर रूप से बीमार हैं, उनके आधे शरीर काे फालिज (लकवा) मार गया है, उनके पास इलाज-ओ-बसर के लिए पैसे नहीं हैं, एक अदद कमरा है अमीनाबाद के करीब हाता खुदाबख्श इलाके में, जिसमें अपने पूरे परिवार के बीच वो गुमनामी के बिस्तर पर पड़ी हुई हैं, जहां लखनवी तहजीब के ‘खुदाओं’ में से कोई भी उनका हाल जानने, मदद करने नहीं आता. एक जरा राहत देनेवाली खबर ये है कि पिछले दिनों उत्तर प्रदेश सरकार ने जरीना बेगम को पांच लाख रुपये की धनराशिवाला बेगम अख्तर अवार्ड देने की घोषणा की है. शायद इसके बाद हालात कुछ बेहतर हो सकें. इस बारे में जरीना बेगम ‘तहलका’ से कहती हैं- ‘सुनकर खुशी तो हुई मगर अभी मिला कहां है? पता नहीं कब मिलेगा? मिल जाएगा तब ज्यादा खुुशी होगी. अभी तो हालत जस की तस है’

बीमारी के चलते जरीना देर तक बोल नहीं पातीं, ज्यादा शिकायत भी नहीं करतीं. मगर इतना तो बता ही देती हैं कि लखनऊवालों से इस उपेक्षा की उन्हें उम्मीद नहीं थी. एक जुमला वो बार-बार दोहराती हैं- ‘पहले लखनऊ ऐसा नहीं था. लोग मदद करते थे’…और फिर कुछ देर खामोश रहने के बाद यकायक उन्हें अपनी गुरु बेगम अख्तर की गाई एक गजल का शेर याद दिलाने पर भूलते-भूलते याद आता है- अब तो यही हैं दिल से दुआएं/भूलनेवाले भूल ही जाएं…

जरीना बेगम को अपनी दुनिया में एक वक्त के लिए शोहरत तो खूब मिली लेकिन ये शोहरत उनकी जिंदगी को खुशहाली नहीं बख्श पाई

गौरतलब है इस हाल में भी जरीना बेगम गुफ्तगू के दौरान शेर सुनने और सुनाने की कायल हैं. शेरों के साथ साथ उनकी गुफ्तगू में सवाल भी बहुत से हैं. जिनमें से ज्यादातर वो लखनऊ से पूछती हैं. कुछ इस तरह- ‘पहले लखनऊ में शरीफों के बीच गायकों की इज्जत थी. बहुत से लोग थे जो उनकी कद्र जानते थे. बुरे वक्त में उनकी मदद को तैयार रहते थे. हमने खुद न जाने कितने लोगों की मदद की होगी. मगर आज जब हम इस हाल में हैं, हमारे लिए कौन आया ? पुरानी चीजों की इज्जत अब कोई नहीं करता.’

एक तरफ जरीना बेगम अपनी तंगहाली और लखनऊवालों की बेकद्री से हारकर ये कहने पर मजबूर हैं कि पुरानी चीजों की कोई इज्जत नहीं करता वहीं दूसरी ओर उसी लखनऊ में पुरानी चीजों की इज्जत करने के नाम पर बड़े-बड़े तमाशे हो रहे हैं, जिनमें खूब तहजीब-तहजीब खेला जा रहा है. इनमें सबसे बड़ा तमाशा सरकारें ‘लखनऊ महोत्सव’ के नाम से पिछले कई दशकों से करवाती आ रही हैं जिसका उद्देश्य तो लखनऊ की कला-संस्कृति को बढ़ावा देना है लेकिन इसमें जरीना बेगम जैसे जरूरतमंद और लायक लखनवी कलाकारों की कला के लिए कोई जगह या आर्थिक आश्वासन नहीं है, मगर मुंबई से आए फिल्मी और पॉप गायक मोटी फीस लेकर यहां हर साल जलवा-अफरोज होते हैं. इसी तरह पिछले चार-पांच सालों से निजी संस्थाओं द्वारा भी शहर में बेवजह और बावजह बहुत से साहित्यिक-सांस्कृतिक उत्सव करवाए जाते हैं जिनमें लखनवी तहजीब के पुनरुद्धार के लिए ढेर सारा पैसा खर्च होता है. मगर इनका करम भी जरीना बेगम पर नहीं होता कि उनका बुढ़ापा ठीक से कटे और लखनऊ की बैठक गायिकी का मुस्तकबिल महफूज हो सके. शहर में वाजिद अली शाह के नाम को भुनानेवाले बहुत हैं मगर उस फराख-दिल बादशाह की तरह फनकारों को नवाजनेवाले बहुत कम.

मूलरूप से बहराइच के नानपारा कस्बे की रहनेवाली जरीना बेगम को गाने में दिलचस्पी बचपन में अपने आस-पास के माहौल से हुई. उनके वालिद शहंशाह हुसैन नानपारे के स्थानीय कव्वाल थे. इसके बावजूद घर में लड़कियों के गाने को कोई प्रोत्साहन नहीं मिलता था. सो जरीना बेगम ने छिप-छिपाकर गाने का रियाज शुरू किया. ऐसे ही छिप-छिपकर वे रेडियो स्टेशन तक पहुंचीं. फिर जब लखनऊ आईं तो फिरंगी महलवाले उस्ताद गुलाम हजरत से सीखना शुरू किया. लेकिन उनके हुनर को असल मकाम तब मिला जब वे बेगम अख्तर के नजदीक आईं. बेगम अख्तर ने ही उनको बैठक गायिकी के आदाब और तौर-तरीके सिखाए. इसके बाद जरीना ने अपने शौहर तबला-नवाज कुरबान अली के साथ देश भर की महफिलों में अपनी गायिकी के जौहर बिखेरे. आकाशवाणी ने भी उनको ए ग्रेड आर्टिस्ट के बतौर स्वीकार किया. उनमंे बेगम अख्तर की झलक थी. मगर इसके बावजूद जरीना को वो मकाम नहीं मिला जो बेगम अख्तर से सीखी दूसरी गायिकाओं को मिला. जरीना न तो पढ़ी-लिखी थीं न ही इतनी तेज कि बदलते वक्त से कदम मिला सकें. यही वजह है कि उन्हें अपनी दुनिया में एक वक्त के लिए शोहरत तो खूब मिली लेकिन ये शोहरत उनकी जिंदगी को खुशहाली नहीं बख्श पाई.

उन्हे पता है कि एक दुनिया है अवध के बैठक गायन की जो उनके बाद नहीं रहेगी. वो ये भी जानती हैं कि लखनऊ उनकी कीमत उनके मरने के बाद ही समझेगा

बदलते हुए लखनऊ में जरीना बेगम की गायिकी लगातार बिसराई जाती रही. इस बीच पारिवारिक विवादों ने भी उनसे उनका बहुत कुछ छीनकर उन्हें एक छोटे से कमरे में महदूद कर दिया. इन्हीं परेशानियों के बीच कुछ साल पहले उनके शौहर कुरबान अली का इंतकाल हो गया और उसके बाद बबार्दी में रही-सही कसर लकवे के हमले ने पूरी कर दी. फिलहाल उनकी बेटी रुबीना और एक पांव से विकलांग बेटा अयूब उनके साथ रहते हैं. जो बहुत कोशिशों के बाद भी जरीना की दवाइयों और इलाज के लिए जरूरी पैसे नहीं जुटा पाते. उनकी बेटी रूबीना को सरकार और शहर के पैसेवालों दोनों से मदद की उम्मीद थी मगर किसी ने कुछ नहीं किया.

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पिछले साल देश भर में बेगम अख्तर की जन्मशती रंगारंगी से मनाई गई. बड़े-बड़े जलसे हुए बेगम अख्तर की याद में. मगर किसी ने भी बेगम अख्तर की परंपरा की आखिरी वाहक जरीना बेगम को इस धूमधाम का हिस्सा बनाने की जहमत नहीं की. अपने मददगारों के नाम पर तकरीबन पचास लाख की आबादीवाले लखनऊ शहर में रुबीना फकत चार-पांच नाम ही गिना पाती हैं . वे कहती हैं- ‘उम्मीद तो बहुत लोगों से थी लेकिन गिने-चुने लोगों ने ही मदद की. जैसे सबा दीवान ने बहुत मदद की है, मंजरी चतुर्वेदी ने बहुत मदद की है, सनतकदा से माधवी और अस्करी ने मदद की है और शीशमहलवाले नवाब साहब ने मदद की है… पैसा तो है लोगों के पास. मगर गरीब की मदद के लिए नहीं.’

जरीना बेगम के गिने-चुने मददगारों में से एक सूफी कथक नृत्यांगना मंजरी चतुर्वेदी हैं जो जरीना को लेकर खासी फिक्रमंद हैं. उनका ‘सूफी कथक फाउंडेशन’ जरीना को  कुछ आर्थिक मदद भी देता है. मंजरी चतुर्वेदी ने ही मई 2014 में दिल्ली में खास जरीना बेगम के सहायतार्थ एक कार्यक्रम भी आयोजित किया था जिसमें जरीना बेगम ने लकवा होने के बाद पहली बार कोई सार्वजनिक प्रस्तुति दी थी. कार्यक्रम में जरीना ने 86 साल की उम्र में बीमारी के बावजूद एक घंटे से ऊपर ऐसा अद्भुत गायन किया था कि सुननेवाले मंत्रमुग्ध थे और कार्यक्रम खत्म होने पर उन्हे स्टैंडिंग ओवेशन मिली थी.  ‘तहलका’ से बातचीत में मंजरी कहती हैं- ‘जब हम कार्यक्रम के लिए प्रायोजक तलाश रहे थे तो ज्यादातर का कहना था कि अस्सी साल की बीमार औरत गा कहां पाएगी और अगर गाया भी तो उसे सुनने कौन आएगा. मगर जरीना बेगम के कार्यक्रम को जैसी कामयाबी और कवरेज मिली वैसी बाॅलीवुड कलाकार को भी नहीं मिलती. असल में हम अपनी संस्कृति का सम्मान करना नहीं जानते. जरीना बेगम जैसी गायिका को हम सिर्फ इसलिए तवज्जो नहीं देते क्योंकि वो अपनी कला को आज के हिसाब से बेचना नहीं जानतीं, वो ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं हैं, टेकसेवी भी नहीं हैं.’

87 साल की उम्र और बीमारी से सरापा जूझने के बावजूद जरीना बेगम की गाने से मोहब्बत कम नहीं हुई है. वे अभी भी लगभग हर रोज रियाज करती हैं, थोड़ी देर ही सही. रात को नींद के आलम में भी अगर कोई शेर, गजल या धुन याद आ जाती है तो फौरन उठकर बैठ जाती हैं और बेटे या बेटी से एक कॉपी पर नोट करवा देती है. उन्हें मदद की सख्त जरूरत है लेकिन वो किसी से उम्मीद नहीं बांधतीं. उन्हें पता है कि एक दुनिया है अवध की बैठक गायन की जो उनके बाद दुनिया में नहीं रहेगी. वो ये भी जानती हैं कि मुर्दापरस्तों और अतीत-जीवियों की भरमारवाला लखनऊ उनकी कीमत उनके मरने के बाद ही समझेगा. मगर वो ज्यादा शिकायत नहीं करतीं. अपने पसंदीदा शायर जिगर मुरादाबादी के दो शेर सुनाती हैं और एक लंबी खामोशी अख्तियार कर लेती हैं.

कोई मस्त है, कोई तश्नालब तो किसी के हिस्से में जाम है

मगर इसका कोई करेगा क्या, ये तो मयकदे का निजाम है

इसी कायनात में ऐ ‘जिगर’ कोई इंकलाब फिर आएगा

के बुलंद हो के भी आदमी अभी ख्वाहिशों का गुलाम है.