पिछले साल देश भर में बेगम अख्तर की जन्मशती रंगारंगी से मनाई गई. बड़े-बड़े जलसे हुए बेगम अख्तर की याद में. मगर किसी ने भी बेगम अख्तर की परंपरा की आखिरी वाहक जरीना बेगम को इस धूमधाम का हिस्सा बनाने की जहमत नहीं की. अपने मददगारों के नाम पर तकरीबन पचास लाख की आबादीवाले लखनऊ शहर में रुबीना फकत चार-पांच नाम ही गिना पाती हैं . वे कहती हैं- ‘उम्मीद तो बहुत लोगों से थी लेकिन गिने-चुने लोगों ने ही मदद की. जैसे सबा दीवान ने बहुत मदद की है, मंजरी चतुर्वेदी ने बहुत मदद की है, सनतकदा से माधवी और अस्करी ने मदद की है और शीशमहलवाले नवाब साहब ने मदद की है… पैसा तो है लोगों के पास. मगर गरीब की मदद के लिए नहीं.’
जरीना बेगम के गिने-चुने मददगारों में से एक सूफी कथक नृत्यांगना मंजरी चतुर्वेदी हैं जो जरीना को लेकर खासी फिक्रमंद हैं. उनका ‘सूफी कथक फाउंडेशन’ जरीना को कुछ आर्थिक मदद भी देता है. मंजरी चतुर्वेदी ने ही मई 2014 में दिल्ली में खास जरीना बेगम के सहायतार्थ एक कार्यक्रम भी आयोजित किया था जिसमें जरीना बेगम ने लकवा होने के बाद पहली बार कोई सार्वजनिक प्रस्तुति दी थी. कार्यक्रम में जरीना ने 86 साल की उम्र में बीमारी के बावजूद एक घंटे से ऊपर ऐसा अद्भुत गायन किया था कि सुननेवाले मंत्रमुग्ध थे और कार्यक्रम खत्म होने पर उन्हे स्टैंडिंग ओवेशन मिली थी. ‘तहलका’ से बातचीत में मंजरी कहती हैं- ‘जब हम कार्यक्रम के लिए प्रायोजक तलाश रहे थे तो ज्यादातर का कहना था कि अस्सी साल की बीमार औरत गा कहां पाएगी और अगर गाया भी तो उसे सुनने कौन आएगा. मगर जरीना बेगम के कार्यक्रम को जैसी कामयाबी और कवरेज मिली वैसी बाॅलीवुड कलाकार को भी नहीं मिलती. असल में हम अपनी संस्कृति का सम्मान करना नहीं जानते. जरीना बेगम जैसी गायिका को हम सिर्फ इसलिए तवज्जो नहीं देते क्योंकि वो अपनी कला को आज के हिसाब से बेचना नहीं जानतीं, वो ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं हैं, टेकसेवी भी नहीं हैं.’
87 साल की उम्र और बीमारी से सरापा जूझने के बावजूद जरीना बेगम की गाने से मोहब्बत कम नहीं हुई है. वे अभी भी लगभग हर रोज रियाज करती हैं, थोड़ी देर ही सही. रात को नींद के आलम में भी अगर कोई शेर, गजल या धुन याद आ जाती है तो फौरन उठकर बैठ जाती हैं और बेटे या बेटी से एक कॉपी पर नोट करवा देती है. उन्हें मदद की सख्त जरूरत है लेकिन वो किसी से उम्मीद नहीं बांधतीं. उन्हें पता है कि एक दुनिया है अवध की बैठक गायन की जो उनके बाद दुनिया में नहीं रहेगी. वो ये भी जानती हैं कि मुर्दापरस्तों और अतीत-जीवियों की भरमारवाला लखनऊ उनकी कीमत उनके मरने के बाद ही समझेगा. मगर वो ज्यादा शिकायत नहीं करतीं. अपने पसंदीदा शायर जिगर मुरादाबादी के दो शेर सुनाती हैं और एक लंबी खामोशी अख्तियार कर लेती हैं.
कोई मस्त है, कोई तश्नालब तो किसी के हिस्से में जाम है
मगर इसका कोई करेगा क्या, ये तो मयकदे का निजाम है
इसी कायनात में ऐ ‘जिगर’ कोई इंकलाब फिर आएगा
के बुलंद हो के भी आदमी अभी ख्वाहिशों का गुलाम है.