और अनिष्ट की आशंका

Barpeta

आठ साल की साजिदा इतनी डरी हुई है कि हम उससे बात करें, उससे पहले ही वह दौड़कर एक टेंट में छिप जाती है. यह टेंट उस राहत शिविर का हिस्सा है जो असम के बक्सा जिले में बेकी नदी के किनारे एक जगह पर लगाया गया है. साजिदा यहां अपने अब्बा और एक बहन के साथ रह रही है. उसकी मां और एक छोटी बहन दो मई को इलाके में हुई हिंसा की भेंट चढ़ गए.

वह दोपहर बक्सा जिले के खगराबाड़ी और नारायणगुड़ी गांवों पर कहर बनकर टूटी. अचानक जंगलों से हथियारबंद लोग प्रकट हुए और अंधाधुंध गोलियां चलाने लगे. घबराए गांव वाले बेकी नदी के दूसरी पार बसे भंगरपार की तरफ भागे. बात करने की काफी कोशिशों के बाद साजिदा बताती है, ‘हम खाना खा रहे थे. अब्बा बाजार गए हुए थे. तभी अचानक धमाकों की आवाजें आने लगीं. हम बाहर निकले तो देखा कि कई घरों में आग लगी हुई है. मुंह पर काला नकाब लगाए लोगों की एक टोली तेजी से हमारी तरफ आ रही थी. ये लोग गोलियां चला रहे थे. मां ने मुझे और दो बहनों से चिल्लाकर कहा कि भागो. सब लोग बेकी नदी की तरफ भाग रहे थे. सो हम भी भागने लगे.’

इतना कहकर साजिदा रुक जाती है. यह स्वाभाविक ही है क्योंकि आगे क्या हुआ यह बताना उसके लिए सबसे पीड़ादायक अनुभव है. वह बताती है, ‘मैं भाग रही थी. पीछे मुड़कर देखा तो मां गिर गई थी. जब तक मैं कुछ समझती तब तक मेरी छोटी बहन अमीना भी मां के पास ही गिर गई. दोनों के बहुत खून निकल रहा था. मैंने अपनी दूसरी बहन हफीजा का हाथ पकड़ा और नदी में छलांग लगा दी. इसके बाद हम तैरकर दूसरी तरफ निकल आए.’

दो दिन तक चले इस खूनखराबे की सबसे बड़ी गाज बच्चों पर ही पड़ी. 40 से ज्यादा मृतकों में 20 बच्चे ही थे. अकेले बक्सा में ही 32 लोग मारे गए. तहलका ने इस जिले में लगाए गए एक राहत शिविर का दौरा किया जहां नारायणगुड़ी और खगराबाड़ी के करीब 500 लोग शरण लिए हुए हैं. साजिदा के अब्बा सैफुल इस्लाम कहते हैं, ‘हम लोग वापस नहीं जाना चाहते. शायद हम कभी जा भी नहीं पाएंगे. मैंने अपनी बीवी और बच्ची खो दी. लगभग हर घर में एक मौत हुई है. गैर बोडो लोगों के लिए यहां कोई सुरक्षा नहीं है.’

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यहां से उनका मतलब बोडोलैंड टेरिटोरियल एरिया डिस्ट्रिक्ट्स यानी बीटीएडी से है. कोकराझार, चिरांग, बक्सा और उदलगुड़ी जिलों से मिलकर बना असम का यह हिस्सा काफी समय से जातीय और क्षेत्रीय तनाव की आग में झुलसता रहा है. लेकिन जो इस समस्या को सुलझा सकते हैं उन्होंने ऐसा करने की बजाय एक बड़ी हद तक इस तनाव से अपने राजनीतिक हित साधने की कोशिश की है. यानी आगे के आसार भी अच्छे नहीं हैं. स्थिति इसलिए भी और खराब होने की आशंका जताई जा रही है क्योंकि इस लोकसभा चुनाव में कोकराझार सीट पर एक गैरबोडो उम्मीदवार विजयी हुआ है. उल्फा के पूर्व सदस्य हीरा सरनिया ने बीटीएडी में पड़ने वाली इस लोकसभा सीट पर लंबे समय से कब्जा जमाए हुए बोडो पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ) को मात दे दी है. इसके चलते बोडो और गैर बोडो गुटों के बीच टकराव का एक नया दौर शुरू हो सकता है.

2012 में भी बोडो आदिवासियों और बांग्लाभाषी मुसलमानों के बीच हुए खूनी टकराव में 100 से भी ज्यादा लोगों की जान चली गई थी और पांच लाख से भी ज्यादा लोगों को विस्थापित होना पड़ा था. इससे पहले ही नाजुक हो चुके बोडो और गैर बोडो समुदायों के संबंध और बिगड़ गए थे. हालिया हिंसा का दौर एक मई को शुरू हुआ जब बक्सा के एक दूरस्थ गांव में एक ही परिवार के तीन सदस्यों को गोली मार दी गई. ये सभी बांग्लाभाषी मुस्लिम समुदाय से थे. इस हमले के तुरंत बाद ही कोकराझार जिले के बालापाड़ा गांव में एक और हमला हुआ. यहां आठ लोगों की हत्या कर दी गई. यहां भी मरने वालों में ज्यादातर बांग्लाभाषी मुस्लिम समुदाय की महिलाएं और बच्चे थे. इससे संकेत मिला कि सब कुछ बहुत सोच समझकर किया जा रहा है. जल्द ही कोकराझार से 190 किमी दूर खगराबाड़ी से और ज्यादा शव बरामद किए गए.

इन बर्बर हत्याओं के पीछे गहरी राजनीतिक साजिश के संकेत मिल रहे हैं. सैफुल कहते हैं, ‘मुझे लगता है कि जिस तरह से लोगों ने इस बार लोकसभा चुनाव में वोट दिया उसके चलते हम पर हमला हुआ. गैर बोडो लोगों में से ज्यादातर और खासकर मुस्लिम समुदाय ने गैर बोडो उम्मीदवार को वोट दिया. ये हमलावर बोडोलैंड लिबरेशन टाइगर्स (बीएलटी) के पूर्व सदस्य थे जिन्हें वन विभाग में नौकरियां मिल गई हैं. ये लोग बोडो पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ) का समर्थन करते हैं जो इस चुनाव में हार गया है.’

बीटीएडी में ज्यादातर लोग हिंसा की इस हालिया कड़ी का कारण वही मानते हैं जो सैफुल को लगता है. 1952 से कोकराझार लोकसभा सीट पर बोडो उम्मीदवार ही जीतता रहा है. लेकिन इस बार गैरबोडो समुदायों ने एकमुश्त उल्फा के पूर्व कमांडर नबा सरनिया उर्फ हीरा सरनिया के पक्ष में वोट किया. उनको इलाके में रह रहे गैर बोडो लोगों के 21 जातीय और भाषाई समूहों से मिलकर बने संगठन सम्मिलित जनगोष्ठी एक्यमंच का समर्थन भी हासिल था.

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2012 में हुई हिंसा के बाद बोडो और गैरबोडो लोगों के बीच की खाई और चौड़ी हो गई थी. 2013 में अलग तेलंगाना राज्य बनने के साथ अलग बोडोलैंड की पुरानी मांग ने फिर जोर पकड़ लिया. दरअसल एक अलग राज्य की मांग को लेकर 1987 में बोडोलैंड आंदोलन शुरू हुआ था. ऑल बोडो स्टूडेंट्स यूनियन (एबीएसयू) के उपेंद्रनाथ ब्रह्मा इसकी अगुवाई कर रहे थे. उनकी मांग थी कि असम को दो बराबर हिस्सों में बांटा जाए. आंदोलन को पहली सफलता 1993 में मिली. इस साल बोडोलैंड आटोनॉमस काउंसिल (बीएसी) बनी. लेकिन यह प्रयोग विफल रहा. इसके बाद नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड (एनडीएफबी) और बीएलटी ने कई साल तक इलाके में अस्थिरता फैलाए रखी. बीएलटी के हथियार डालने के फैसले के बाद 2003 में बोडोलैंड समझौता हुआ. एनडीए सरकार के समय हुए इस समझौते के बाद बीटीसी वजूद में आया. लेकिन इससे भी हिंसा नहीं थमी. उल्टे नए तनाव पैदा हो गए. दरअसल गैर बोडो समुदायों के लोग बोडो शासन या कहें कि राजनेता बने पूर्व उग्रवादियों के अधीन खुद को असहज महसूस करने लगे. खासकर बंगाली मुसलमानों को लगा कि उन्हें भी राजनीतिक रूप से खुद को मजबूत करना होगा. इसके चलते राज्य में ऑल इंडिया यूनाइटेड फ्रंट (एआईयूडीएफ) का उभार हुआ. तब से पार्टी इस इलाके में बड़ी संख्या में वोट पाती रही है. यह इस बात से समझा जा सकता है कि बदरुद्दीन अजमल की अगुवाई वाला एआईयूडीएफ राज्य विधानसभा में आज दूसरा सबसे बड़ा दल है. यही वजह है कि बीटीएडी का इलाका राजनीतिक रूप से इतना अहम हो गया है.

इस इलाके में दंगों का पुराना इतिहास है. बोडो समुदाय का पहले भी उन दूसरे लोगों से टकराव होता रहा है जिन्हें वे बाहरी मानते हैं. इनमें आदिवासी और बंगाली हिंदू-मुसलमान शामिल हैं. हालांकि 2012 की हिंसा के बाद ऐसा लग रहा था कि लोग बार-बार की हिंसा से तंग आ चुके हैं. लेकिन हालिया हिंसा से यह बात गलत साबित हो गई. गैर बोडो जिन्हें ओबोडो भी कहा जाता है, इस इलाके की आबादी का कुल 70 फीसदी हैं. इन लोगों की प्रतिनिधि संस्थाओं में से ज्यादातर अलग बोडोलैंड  के खिलाफ हैं. उन्हें डर है कि अगर अलग राज्य बना तो वे पूरी तरह से दब जाएंगे. उधर, बोडो नेताओं को लगता है कि गैर बोडो समुदाय के विरोध की वजह से ही उनकी मांगें कमजोर पड़ जाती हैं. इससे इस इलाके में तनाव लगातार बढ़ रहा है.

गैर बोडो चाहते हैं कि बोडोलैंड क्षेत्रीय परिषद (बीटीसी) में पड़ने वाले 3000 गांवों में से 600 को परिषद से बाहर किया जाए जहां दूसरे समुदायों की आबादी ज्यादा है. इस परिषद की कमान हग्राम मोहिलारी के नेतृत्व वाले बीपीएफ के हाथ है. उग्रवाद का रास्ता छोड़कर राजनीति में आए मोहिलारी 2006 से राज्य में कांग्रेस के सहयोगी की भूमिका निभा रहे हैं. विधायी, कार्यकारी व न्यायिक अधिकार रखने वाली इस परिषद के अधिकार क्षेत्र में पड़ने वाली 40 विधानसभा सीटों में से 30 आदिवासी समुदाय के लिए आरक्षित हैं. हीरा सरनिया की जीत 2015 में होने वाले बीटीसी के चुनावों पर गहरा असर डाल सकती है. कुछ आदिवासी समुदायों के साथ मिलकर दूसरे गैर बोडो बोडो समुदाय के खिलाफ जा सकते हैं. इसलिए कई हैं जो मानते हैं कि समय रहते उस टकराव को रोकना बहुत जरूरी है.

ओबोडो सुरक्षा समिति के सचिव दिलावर हुसैन कहते हैं, ‘कई साल से गैर बोडो लोग हिंसा और डर से जूझ रहे हैं. असम सरकार, खासकर मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने हमें बोडो उग्रवादियों की दया पर छोड़ दिया है. इसलिए हमने सोचा कि अगर संख्या के मामले में हमारे वोट सबसे ज्यादा हैं तो हम इस समस्या को शायद चुनाव के जरिये सुलझा सकें. अतीत में हम लोगों ने बोडो उम्मीदवारों को ही चुना है जो न सिर्फ हमें सुरक्षा देने में नाकाम रहे हैं बल्कि इन हत्याओं का समर्थन भी करते हैं. वे हर बंगाली मुसलमान को बांग्लादेशी कह देते हैं. इसलिए हमने तय किया कि हम हीरा सरनिया को वोट देंगे. हम गैर बोडो समुदायों के अधिकारों की खातिर लड़ने के लिए उन जैसा मजबूत आदमी चाहिए.’ बक्सा में कॉलेज में पढ़ रहे रहमत अली भी कुछ ऐसा ही कहते हैं, अगर हमारे पास संख्या है तो हम राजनीतिक रूप से और भी ज्यादा दावेदारी चाहते हैं. बोडो उग्रवादियों के चलते हम पहले से ही दंगा, फिरौती और वसूली की मार झेल रह रहे हैं. उस पर अगर बोडोलैंड बन गया तो हमें बाहर निकाल दिया जाएगा.

चुनाव से पहले हुई हिंसा पर सरनिया कहते हैं, ‘उन्हें (बीपीएफ को) डर है कि उनका बुरा वक्त शुरू हो चुका है. मुझे बक्सा के दुर्गम इलाकों में भी मजबूत समर्थन मिला है. बीपीएफ कैडर ने इन्हीं इलाकों में महिलाओं और बच्चों की हत्या की है. उनका मकसद यह संदेश देना है कि हमारे खिलाफ वोट करने की हिम्मत मत करो. लेकिन लोग बदलाव चाहते हैं. वे चाहते हैं कि यह अराजकता खत्म हो.’

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हालांकि एक और गहरा और चिंताजनक पहलू भी है जिसकी कोई बात नहीं कर रहा. यह है इलाके के आर्थिक नियंत्रण का. राज्य इंटेलीजेंस के एक अधिकारी कोकराझार की रणनीतिक अहमियत बताते हैं. पूर्वोत्तर के इस एंट्री प्वाइंट की सीमा पश्चिम बंगाल के श्रीरामपुर से मिलती है जहां यह शेष भारत के साथ चिकन नेक कॉरीडोर कहे जाने वाले एक संकरे गलियारे के जरिये जुड़ता है. ये अधिकारी बताते हैं, ‘श्रीरामपुर गेट पर एक सिंडीकेट हर महीने करोड़ों की रकम वसूल करता है. यह पैसा इसके बाद उग्रवादियों, राजनेताओं, पुलिस और बोडो उग्रवादियों में बंटता है. यह अवैध टैक्स चुकाए बिना कोई भी ट्रक पूर्वोत्तर में नहीं घुस सकता.’ इलाके में चल रहे दूसरे कई हथियारबंद गुट भी श्रीरामपुर गेट की अहमियत समझ चुके हैं और वे भी इस रकम में अपनी हिस्सेदारी चाहते हैं. यही वजह है कि इलाके में अवैध हथियारों की बहुतायत है.

24 अप्रैल को हुए चुनाव से पहले कोकराझार में हिंसा की कई घटनाएं हुईं. चुनाव के दिन एक नाराज भीड़ ने, जिसमें ज्यादातर मुस्लिम समुदाय के लोग थे, गोसाईगंज सबडिविजन के पोलिंग बूथ पर तोड़फोड़ की. भीड़ ने ईवीएम मशीनें तोड़ दीं और मतदान अधिकारियों और सुरक्षाकर्मियों पर पथराव किया. एक घायल पुलिसकर्मी की बाद में मौत हो गई. खबरें आईं कि इलाके के मुसलमान सरनिया का समर्थन कर रहे थे और ईवीएम के ठीक से काम न करने की अफवाह के बाद वे हिंसक हो गए. इस घटना के बाद राजनीतिक बदले की बातें होने लगीं थीं. यह तब लगभग साफ हो गया जब पता चला कि बलपाड़ा गांव, जहां आठ लोगों की गोली मारकर हत्या की गई, के ज्यादातर लोग गोसाईंगंज में चुनाव के दिन हुई हिंसा के मामले में वांछित थे. रात को बलपाड़ा के ज्यादातर पुरुष घरों से बाहर नहीं निकले कि कहीं पुलिस उन्हें गिरफ्तार न कर ले. हमलावरों को गांव पर हमला करते हुए यह बात मालूम रही होगी कि उन्हें अपने शिकार घर के भीतर ही मिलेंगे.

बलपाड़ा में हुए इसी हमले में आबिदा बेवा ने अपनी बेटी खोई. 57 साल की आबिदा कहती हैं, ‘हम डरे हुए थे. हमने जिला प्रशासन से और ज्यादा सुरक्षा की मांग की थी. बीएसएफ की एक गश्ती टुकड़ी इलाके में आई और हमसे कहा गया कि सब कुछ ठीक है. आधा घंटे बाद ही हमलावर आ गए और इतने लोगों की हत्या कर दी. मेरी बेटी भी मारी गई. वे जंगल से आए थे और पैदल ही आए थे. कोई उन्हें रोकने वाला नहीं था.’

राज्य की कांग्रेस सरकार बार-बार इस इलाके में सुलगती जातीय हिंसा पर काबू पाने में असफल रही है. इसकी बजाय वह इससे राजनीतिक रोटियां सेंकने की कोशिश करती दिखी है. इसलिए जब कांग्रेस ने यह कहा कि भाजपा के प्रधानमंत्री के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की इलाके में रैलियों से यह सांप्रदायिक हिंसा हुई तो उसकी काफी आलोचना हुई. मोदी ने गुवाहाटी की अपनी रैली में अवैध घुसपैठियों का मुद्दा उठाया था. भाजपा ने भी कांग्रेस पर जवाबी वार करते हुए कहा कि वह वोटबैंक के लिए बांग्लादेशी घुसपैठियों का इस्तेमाल करती है.

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चिंता की बात यह है कि इस राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप के चलते असल मुद्दा एक बार फिर उपेक्षित हो रहा है. पत्रकार और पूर्वोत्तर के मामलों पर निगाह रखने वाले राजीव भट्टाचार्य कहते हैं, ‘असम में अवैध घुसपैठियों की बाढ़ और उनके निचले असम के मैदानी इलाके में बसने से जमीन और दूसरे संसाधनों पर निश्चित रूप से दबाव बढ़ा है. बीटीएडी में तो ये मुद्दे कहीं ज्यादा जटिल हैं.’ भट्टाचार्य बताते हैं कि आगे के लिए भी स्थितियां चुनौतीपूर्ण हैं. बीटीसी पर पूर्व उग्रवादियों का कब्जा है. वे बाहुबल के जरिये अपनी चलाते हैं. ये इलाके कम विकसित हैं. ऊपर से बोडोलैंड आंदोलन की शुरुआत से ही यहां हिंसा आम रही है. इसलिए भी क्योंकि सरकार ने भी इसके जवाब में हिंसा ही की. 30 साल से यहां अलग राज्य को लेकर न सिर्फ बोडो उग्रवादी बल्कि दूसरे समुदायों के सशस्त्र संगठन भी सक्रिय हैं. इसकी वजह से यहां अवैध हथियारों का बोलबाला है. यही हथियार दंगों के दौरान इस्तेमाल होते हैं. असम के पूर्व डीजीपी हरेकृष्णा डेका कहते हैं, ‘इस इलाके में अवैध हथियारों की बहुतायत है. सिर्फ भूमिगत उग्रवादी गुट ही इनका इस्तेमाल नहीं कर रहे, बल्कि आत्मसमर्पण कर चुके उग्रवादी भी इनका सहारा लेते हैं. जब तक ये हथियार रहेंगे, स्थिति चिंताजनक बनी रहेगी. इन अवैध हथियारों को जब्त करने के लिए विशेष अभियान छेड़ा जाए.’

सांप्रदायिक और राजनीतिक लिहाज से बीटीएडी का इलाका बीते कुछ समय से बहुत संवेदनशील रहा है. डेका कहते हैं, ‘सुरक्षा के लिहाज से माहौल वहां हमेशा से चिंताजनक रहा है. लेकिन सुरक्षा व्यवस्था में कोई खास व्यवस्थागत बदलाव नहीं हुए. यहां की भौगोलिक स्थिति के चलते यहां संचार व्यवस्था मुश्किल हो जाती है. तिस पर बुरी तरह बंटा हुआ यहां का सामाजिक ढांचा. जरूरत इस बात की है कि आवाजाही की व्यवस्था को सुगम बनाते हुए इस इलाके में संचार व्यवस्था बढ़ाई जाए व और भी ज्यादा पुलिस चौकियां खोली जाएं. बीटीएडी में जिस तरह की हिंसा होती है, उससे निपटने के लिए एक विशेष तरह के सुरक्षा बल के गठन के बारे में भी सोचा जा सकता है.’ भट्टाचार्य कहते हैं, ‘अगर किसी के पास दूरदृष्टि होती तो एक-एक करके इन मुद्दों पर ध्यान दिया जाता, लेकिन ऐसी नजर पूरी तरह से गायब है.’

इसकी बजाय सरकार अब एक समुदाय को लाइसेंसी हथियार थमाने की भी सोच रही है. कइयों को आशंका है कि इससे हालात और बिगड़ेंगे डेका कहते हैं, ‘यह ठीक नहीं होगा. उग्रवादियों के पास अत्याधुनिक हथियार हैं और ये हथियार उनका मुकाबला नहीं कर पाएंगे. बल्कि आशंका यही है कि उनसे ये हथियार छिन जाएं और उग्रवादियों या अपराधी गिरोहों तक पहुंच जाएं. वैसे भी नागरिकों को सुरक्षा देना सरकार की बुनियादी जिम्मेदारी है. इसकी बजाय वह छोटे-मोटे सामाजिक संगठनों को हथियार पकड़ाने की सोच रही है.’

2001 से सत्ता पर काबिज तरुण गोगोई सरकार पर लंबे समय से असम के आदिवासियों के अधिकारों की उपेक्षा करने का आरोप लगता रहा है. कांग्रेस द्वारा पृथक बोडोलैंड की मांग ठुकराए जाने के बाद अब बोडो संगठन भाजपा की तरफ निगाहें लगाए हुए हैं. हालांकि उनके अलग-अलग गुट अपने मकसद को हासिल करने के लिए अलग-अलग रास्तों पर यकीन करते हैं. एबीएसयू इसका उदाहरण है जिसने बीपीएफ का विरोध किया. इसके अध्यक्ष प्रमोद बोरो कहते हैं, ‘हमने बीपीएफ के खिलाफ निर्दलीय उम्मीदवार का समर्थन क्यों किया? इसलिए कि सिर्फ गैर बोडो ही नहीं, हमारा बोडो समुदाय भी हिंसा से आजिज आ चुका है. हम नहीं चाहते कि सत्ता उन लोगों के हाथ में रहे जो सिर्फ बंदूकों की भाषा समझते हैं. सालों की उपेक्षा के चलते बोडो युवाओं ने हथियार उठाए थे. असम सरकार के अधीन एक क्षेत्रीय परिषद भी बन गई थी. लेकिन इससे लोगों की उम्मीदें पूरी नहीं हुईं. बोडो भी मर रहे हैं. सशस्त्र गुट उनसे भी वसूली कर रहे हैं. इसलिए हम एक अलग राज्य चाहते हैं. एक शांतिपूर्ण बोडोलैंड.’

सिमसैंग बोरो एक ब्लॉगर हैं जो इलाके के बारे में लिखते रहते हैं. वे कहते हैं, ‘यहां समुदायों को बांटने का एक बड़ा राजनीतिक खेल चल रहा है. बोडोलैंड में निर्दोष बोडो युवा भी सुरक्षा बलों की गोलियों से मर रहे हैं. उन पर कोई मीडिया फोकस क्यों नहीं है? कुछ दिन पहले कुछ मुसलमानों ने एक बोडो लड़की के साथ गैंगरेप कर दिया. 2008 की हिंसा में मुसलमानों ने एक गांव में पाकिस्तान का झंडा लगा दिया था. इन घटनाओं की रिपोर्ट मीडिया में क्यों नहीं आती? इन पर टीवी पर बहस क्यों नहीं होती? कई साल से कोकराझार में बोडो लोगों को निशाना बनाया जाता रहा है. असम के नेताओं ने मूल निवासियों की उपेक्षा की है.’

हर पक्ष के अपने आरोप हैं. जब हिंसा इतने नियमित रूप से हो रही हो तो ऐसा होना स्वाभाविक भी है. शिवनाथ ब्रह्मा इलाके की कुछ संतुलित आवाजों में से हैं. बोडोलैंड गार्डियन के संपादक शिवनाथ मानते हैं कि विकास के जरिये इस समस्या को खत्म किया जा सकता है. वे कहते हैं, ‘बोडो हो या गैर बोडो, आम आदमी शांति चाहता है. जानबूझकर कोशिशें हो रही हैं कि इलाका बंटा रहे और बोडो लोगों की छवि उग्रवादियों जैसी बनी रहे. यह सच नहीं है. बोडो यहां दूसरे समुदायों के साथ शांति से रहते आ रहे हैं. अगर सरकार में इच्छाशक्ति हो तो वह समस्या को आसानी से हल कर सकती है. बोडोलैंड की युवा पीढ़ी विकास चाहती है.’

स्थानीय लोग मानते हैं कि हिंसा तब भड़की जब बीपीएफ की एक शीर्ष नेता प्रमिलारानी ब्रह्मा ने कथित रूप से बयान दिया कि गैर बोडो लोगों ने बीपीएफ को वोट नहीं दिया है. बीटीसी मुखिया हग्रामा मोहिलारी इस आरोप से इनकार करते हुए अपनी सहयोगी कांग्रेस को चेताते हैं. वे कहते हैं, ‘जब भी हिंसा होती है तो आरोप बीपीएफ पर लगता है. हम क्यों चिंता करें जब पुलिस पहले ही कह चुकी है कि यह एनडीएफबी उग्रवादियों की कारस्तानी है. अगर कांग्रेस हम से रिश्ता खत्म करना चाहती है तो हमें कोई दिक्कत नहीं. हमने सभी समुदायों के लिए काम किया है. और किसने कहा कि पूर्व उग्रवादी प्रशासन नहीं चला सकते?’ उधर, एनडीएफबी के संगभिजित धड़े ने, जिसे हालिया हत्याओं के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है, इस घटना में किसी भी तरह की संलिप्तता से इनकार किया है.

उधर, मुस्लिम समुदाय गुस्से में है. उनके संगठन चाहते हैं कि बोडोलैंड की अवधारणा पर ही फिर से विचार हो. ऑल असम माइनॉरिटी स्टूडेंट्स के सचिव रजाउल करीम सरकार कहते हैं, ‘सारे बंगाली मुसलमान बांग्लादेशी नहीं हैं. इसी तरह हर बोडो उग्रवादी नहीं है. अलग-अलग समुदायों के बीच शांति हो, इसके लिए जरूरी है कि हथियार वाले लोगों को सत्ता से बाहर फेंका जाए.’ दरअसल असम में एक समय कांग्रेस का बड़ा वोट बैंक रहा बंगाली मुसलमान समुदाय अब खुद राजनीतिक रूप से मुखर होने की कोशिश कर रहा है. कांग्रेस और भाजपा, दोनों से उसकी दूरी उसे आसान निशाना बना देती है.

उधर, गुवाहाटी में अफवाहें हैं कि तरुण गोगोई सरकार को पटरी से उतारने के लिए एक राजनीतिक साजिश चल रही है. 2011 के विधानसभा चुनावों में जीतकर कांग्रेस लगातार तीसरी बार राज्य की सत्ता में आई थी. लेकिन कहा जा रहा है कि अब सरकार में गुटों का टकराव चल रहा है. चर्चा है कि गोगोई के कभी करीबी रहे और स्वास्थ्य मंत्री एचबी शर्मा की अगुवाई में मुख्यमंत्री के खिलाफ अभियान चल रहा है. गोगोई के पास गृह मंत्रालय भी है इसलिए कोकराझार हिंसा के चलते वे विरोधियों के निशाने पर हैं. ऊपर से लोकसभा चुनाव में राज्य में कांग्रेस की दुर्गति के बाद वे बिल्कुल ही बैकफुट पर आ गए हैं. यही वजह है कि नतीजे आने के तुरंत बाद उन्होंने इस्तीफे की पेशकश कर दी. इससे पहले उन्होंने कोकराझार हिंसा को अपने खिलाफ हो रही एक राजनीतिक साजिश बताया था. 2012 में हुई हिंसा के बाद भी उन्होंने कुछ ऐसा ही बयान दिया था.

ऐसे बयानों से तो यही लगता है कि राजनीति एक बार फिर इंसानी जिंदगियों से ऊपर रखी जा रही है. संकेत साफ है कि कोकराझार के दिन जल्द बहुरने वाले नहीं.