किसका झारखंड?

रांची का अल्बर्ट एक्का चौक फोटोः अमित दास
रांची का अल्बर्ट एक्का चौक फोटोः अमित दास
रांची का अल्बर्ट एक्का चौक
फोटोः अमित दास

23 जुलाई, 2002 की बात है. पहली बार रांची पहुंचा था. काम के सिलसिले में जब अगली सुबह निकला तो देखा कि सड़कें वीरान होने लगीं. चारों ओर भय-दहशत का माहौल. तोड़फोड़-आगजनी का दौर शुरू हुआ. गाड़ियां बंद. जो जहां था वहीं छिपने की कोशिश करने लगा. एक-दूसरे के पास सूचनाएं पहुंचने लगीं. धुर्वा, डिबडीह, कुटे, नया सराय और आदर्शनगर में स्थिति गंभीर होने का पता चला. पांच लोग मारे जा चुके थे और कर्फ्यू का ऐलान हो चुका था. रांची के इन मोहल्लों का नाम पहली बार सुना था. सुबह से शाम एक अनजान गली में एक अजनबी के घर शरण लिए रहा. मालूम करता रहा कि मामला क्या है. सब यही बताते कि डोमिसाइल की लड़ाई है. ज्यादा समझ में नहीं आया. कोई साफ-साफ बताने वाला नहीं था कि आखिर डोमिसाइल की लड़ाई है क्या. बाद में पता चला कि तब के मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने बिहार की ही डोमिसाइल नीति को झारखंड में लागू कर दिया है और पूरा बवाल इस कारण ही मचा था. दोनों पक्षों में नाराजगी है. दोनों ही पक्षों का मतलब एक पक्ष वह जो झारखंड के मूल निवासी- आदिवासी हैं और दूसरा वह जो बाहर से आकर झारखंड में रह रहे हैं. उस रोज कर्फ्यू लगा रहा. अगले कई दिनों तक शहर तनाव की आग में झुलसता रहा. इस घटना को तकरीबन 14 साल हो गए. झारखंड में डोमिसाइल का मसला काफी गंभीर है. इन वर्षों में डोमिसाइल यानी स्थानीय नीति को तय करने के लिए सभी सरकारों ने बातें कीं, बयान दिए, लगातार वाद-विवाद हुए लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला. अब समझ में आ गया था कि दरअसल यह एक ऐसा मसला भी है जिसे हर राजनीतिक दल, हर सरकार बनाए रखना चाहती है ताकि उसे लेकर राजनीति की जा सके.

एक दशक से ज्यादा समय तक चले इस विवाद के बाद अब डोमिसाइल के मुद्दे को झारखंड की वर्तमान सरकार ने एक नीति लागू करके कई निशानों को साधने का काम किया है. मुख्यमंत्री रघुबर दास ने सात अप्रैल को नई डोमिसाइल नीति पास कर दी. रघुबर चाहते तो वे भी अपने पूर्ववर्ती भाजपाई मुख्यमंत्रियों बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा या फिर पूर्व की हेमंत सोरेन सरकार की तरह इसे मुद्दा बनाकर टालते रहते लेकिन उनके लिए अब यह मुश्किल-सा होता जा रहा था. मुश्किल सिर्फ विपक्षियों से नहीं थी. विपक्षियों ने तो मार्च में चले विधानसभा सत्र के दौरान ही डोमिसाइल नीति की मांग को लेकर पांच दिन तक सदन नहीं चलने दिया था. हो-हंगामा होता रहा था और रघुबर दास ने एक लाइन में जवाब देकर विपक्षियों को चुप करा दिया था. पूर्व मुख्यमंत्री और झामुमो नेता हेमंत सोरेन ने विधानसभा सत्र के दौरान डोमिसाइल नीति को लेकर कहना शुरू किया कि यह सरकार नीति बनाना नहीं चाहती तब रघुबर ने पूछा था, ‘आप भी सरकार में थे, आपने तब क्यों नहीं बनाया था?’ इसका जवाब हेमंत नहीं दे पाए थे.

रघुबर ऐसे ही सवाल बाबूलाल मरांडी से लेकर किसी भी पूर्व मुख्यमंत्री से पूछकर उसे चुप करा सकते थे लेकिन उन पर किसी भी तरह से डोमिसाइल नीति को जल्द से जल्द पास कराने का दबाव उनके अपने ही लोगों की ओर से बढ़ गया था. मार्च में जिस समय सदन में रघुबर डोमिसाइल पर विरोधियों के विरोध का सामना कर रहे थे उसी समय भाजपा के ही 28 विधायक भी अपनी ही सरकार को लिखित मांग पत्र सौंपकर जल्द से जल्द स्थानीय नीति बनाने की मांग कर रहे थे. ये 28 विधायक वे थे जो झारखंड के मूल निवासी- आदिवासी हैं. यह स्थिति असहज थी और मामला दिल्ली तक पहुंच गया. भाजपा के प्रदेश प्रभारी त्रिवेंद्र सिंह रावत रांची आए. उन्होंने विधायकों से पूछा कि आप अपनी ही सरकार से लिखित मांग कर रहे हैं, विपक्षियों की तरह घेर रहे हैं, यह गंभीर मामला है.

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‘इस नीति से बाहरी लोगों की स्वार्थपूर्ति होगी. सरकार एक ओर खतियान की बात कर रही है लेकिन दूसरी ओर 1985 को आधार बनाकर उन्हें झारखंड का निवासी बना रही है जो एक षडयंत्र है. सरकार ने सरहुल के पहले स्थानीय लोगों को अपमानित करने का काम किया है इसलिए हम इसके विरोध में लगातार आंदोलन करेंगे’

सुप्रियो भट्टाचार्य
महासचिव, झारखंड मुक्ति मोर्चा[/symple_column]

भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष रवींद्र राय ने विधायकों की ओर से रावत को जवाब दिया कि भाजपाई विधायकों पर, विशेषकर आदिवासी- विधायकों पर जबरदस्त दबाव है. वे अपने क्षेत्र में जाते हैं तो जनता पूछती है कि स्थानीय नीति का वादा था, वह क्यों नहीं पूरा हो रहा. रावत को भी बात समझ में आ गई. दबाव बढ़ता गया और नतीजा यह हुआ कि मुख्यमंत्री को झारखंड में 10 अप्रैल को होने वाले सबसे लोकप्रिय पर्व ‘सरहुल’ के पहले इसकी घोषणा करनी पड़ी ताकि वे बता सकें कि उनकी सरकार ने जनता को इस त्योहार का तोहफा भेजा है.

16 वर्षों से फंसे एक पेच को सुलझाने की कोशिश करना और डोमिसाइल जैसे विवादित मसले पर एक फाइनल नीति कैबिनेट से पास करना रघुबर दास के लिए कितना मुश्किल काम रहा होगा, उसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जिस दिन इस नीति की घोषणा हुई उसके दो दिन पहले तक वे लगातार एक जगह से दूसरी जगह मीटिंग करते रहे, लोगों से मिलते रहे. उन्होंने बाबूलाल मरांडी को फोन किया लेकिन उनसे बात नहीं हो सकी. हेमंत से बात करने की कोशिश की, उनसे भी बात नहीं हो सकी. आजसू (ऑल झारखंड स्टूडेंट यूनियन पार्टी) के नेता सुदेश महतो से मिले. प्रमुख अखबारों के संपादकों से मिले. कई आला अधिकारियों के साथ मिलते रहे. जिस दिन इसकी घोषणा होनी थी, उस दिन रांची समेत सभी बड़े शहरों को सुरक्षाकर्मियों से पाट दिया गया ताकि कोई प्रतिक्रिया हो तो उसे तुरंत संभाला जा सके. यह शंका-आशंका बेजा नहीं थी.

2002 की घटना झारखंड में एक बड़ी घटना मानी जाती है और यह घटना लोगों के जेहन में अब भी ताजा है. खैर, शंकाएं निर्मूल साबित हुईं. स्थानीय नीति की घोषणा हुई. राजनीतिक पार्टियों का विरोध हुआ. कुछ जगहों पर प्रदर्शन भी हुए. प्रदर्शन और विरोध से ज्यादा दूसरे विपक्षी नेता टीवी चैनलों पर बयान देने और अखबारों को अपने बयान भिजवाने में लगे रहे. रघुबर दास ने जो नीति घोषित की उसका सार छह बिंदुओं में है. पहला- झारखंड में निवास करने वाले ऐसे व्यक्ति जिनका स्वयं या उनके पूर्वज का नाम गत खतियान में दर्ज हो और ऐसे मूल निवासी हों जिनके संबंध में उनकी प्रचलित भाषा, संस्कृति और परंपरा के आधार पर ग्राम सभा की ओर से पहचान किए जाने पर झारखंड के माने जाएंगे. दूसरा- राज्य के ऐसे निवासी जो व्यापार, नियोजन या अन्य कारणों से पिछले 30 साल या उससे अधिक समय से यहां निवास करते हों और अचल संपत्ति अर्जित किया हो, वे, उनकी पत्नी और बच्चे झारखंड के निवासी माने जाएंगे. तीसरा- झारखंड सरकार की ओर से संचालित या मान्यता प्राप्त संस्थानों, निगमों आदि के नियुक्त और कार्यरत पदाधिकारी या कर्मचारी, उनकी पत्नी और बच्चे झारखंड के माने जाएंगे. चौथा- भारत सरकार के पदाधिकारी या कर्मचारी, जो झारखंड में कार्यरत हों, वे, उनकी पत्नी और बच्चे झारखंड के माने जाएंगे. पांचवां- झारखंड में किसी संवैधानिक या विधिक पद पर नियुक्त व्यक्ति, उनकी पत्नी और संतानों को झारखंड का निवासी माना जाएगा. आखिरी- जिनका जन्म झारखंड में हुआ हो और जिन्होंने मैट्रिक या समकक्ष स्तर की पूरी परीक्षा राज्य के किसी मान्यता प्राप्त संस्थान से की हो, उन्हें झारखंड का निवासी माना जाएगा.

इस नीति को लाने का दबाव इसलिए ज्यादा था क्योंकि झारखंड में बड़ी संख्या में बहालियां होने वाली हैं. इनका ऐलान हो चुका है. स्थानीय नीति के साथ ही सरकार ने नियोजन नीति को भी स्पष्ट कर दिया है. सरकार ने जो नियोजन नीति बनाई है उसके अनुसार शिक्षक, जनसेवक, पंचायत सचिव, आरक्षी, चौकीदार, वनरक्षी और एएनएम जैसे पदों पर बहाली जिला स्तर पर होगी और इन पदों पर सिर्फ उसी जिले के स्थानीय लोगों को बहाल किया जाएगा. साथ ही यह भी निर्णय लिया गया कि झारखंड के साहेबगंज, पाकुड़, रांची, खूंटी, लातेहार, सरायकेला खरसांवा, लोहरदगा, पलामू, गुमला, पूर्वी सिंहभूम, पश्चिमी सिंहभूम जैसे इलाकों में अगले दस वर्षों तक तृतीय और चतुर्थ वर्ग के पदों पर शत-प्रतिशत मूल निवासियों की ही नियुक्ति होगी. इसी तरह की कई बातें डोमिसाइल और नियोजन नीति में सरकार ने शामिल किया है.

[ilink url=”https://tehelkahindi.com/opinion-of-social-activist-a-k-pankaj-on-domicile-policy-in-jharkhand/” style=”tick”]जानिए स्थानीय नीति पर सामाजिक कार्यकर्ता अश्विनी कुमार पंकज के विचार[/ilink]

झारखंड सरकार के इस फैसले के बाद बवाल की स्थिति है लेकिन बवाल कौन करे, किस आधार पर करे, यह अभी तमाम राजनीतिक दल तय नहीं कर पाए हैं. हालांकि झारखंड मुक्ति मोर्चा ने इसे लेकर झारखंड बंद का भी ऐलान किया था और कई जगहों पर प्रदर्शन भी किए. झामुमो के महासचिव सुप्रियो भट्टाचार्य कहते हैं, ‘इस नीति से बाहरी लोगों की स्वार्थपूर्ति होगी. सरकार एक ओर तो खतियान की बात कर रही है लेकिन दूसरी ओर 1985 को आधार बनाकर उन्हें झारखंड का निवासी बना रही है जो एक षड्यंत्र है. सरकार ने सरहुल के पहले स्थानीय निवासियों को अपमानित करने का काम किया है, इसलिए हम इसके विरोध में लगातार आंदोलन करेंगे.’ हालांकि विरोध करने के पीछे सुप्रियो के पास कोई ठोस तर्क नहीं होता. तथ्य नहीं होता. यहां यह बताते चलें कि सुप्रियो अपनी बातों में जिस खतियान की चर्चा करते हैं, उसका आशय 1932 के खतियान से है. झारखंड में कई राजनीतिक दलों व संगठनों की यह मांग रही है कि 1932 के ही खतियान को आधार बनाकर किसी व्यक्ति को झारखंड का निवासी बनने का मौका दिया जाए. झारखंड विकास मोर्चा के प्रमुख व राज्य के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी कहते हैं, ‘स्थानीय नीति के जरिए सरकार ने झारखंडियों को झुनझुना थमा दिया है, जो सही नहीं है.’ मरांडी आगे कहते हैं, ‘अभी हमने मसौदा नहीं देखा है, देखेंगे तो बात करेंगे.’

धनबाद का बिरसा मुंडा चौक
धनबाद का बिरसा मुंडा चौक

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‘कोई बोलेगा क्या? किस आधार पर बोलेगा. यहां सबकी सरकारें रही हैं. किसी ने रोका तो नहीं था. जब इतनी चिंता थी तो उनको अपने कार्यकाल में स्थानीय नीति बनाकर लागू करना चाहिए था’ 

नीलकंठ सिंह
भाजपा नेता और कैबिनेट मंत्री[/symple_column]

इस मसले पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता व पूर्व केंद्रीय मंत्री सुबोध कांत सहाय अलग राय रखते हैं. वे कहते हैं, ‘सरकार ने जो नीति लागू की है उसमें कुछ छूट गया हो तो उसे शामिल करना चाहिए. आज भले ही भाजपा सरकार ने इसे लागू कर दिया हो लेकिन इसका खाका पूरी तरह से यूपीए सरकार ने ही तय किया था.’ सुबोध कांत  सहाय जैसे वरिष्ठ नेता यह समझ नहीं पा रहे कि उन्हें इस मसले पर क्या स्टैंड लेना है. हालांकि कांग्रेस के ही एक दूसरे नेता और पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सुखदेव भगत कहते हैं, ‘इसमें तो स्थानीय का भाव ही नहीं है तो फिर यह स्थानीय नीति कैसे हुई? यह दुविधा और आपस में ही एक-दूसरे के बयान काटने का खेल सिर्फ कांग्रेस के अंदर नहीं है बल्कि दूसरी पार्टियों में भी ऐसा देखने को मिल रहा है. जैसे एक ओर आजसू के प्रमुख सुदेश महतो इस नीति के लागू होने के पहले मुख्यमंत्री से मुलाकात करते हैं तो दूसरी ओर नीति के लागू होने के बाद आजसू के ही एक प्रमुख नेता देवशरण भगत कहते हैं कि यह नीति अन्याय है.

यहां यह जानना भी दिलचस्प है कि आजसू सरकार में शामिल पार्टी है. इस पर कुछ बोलने-न बोलने की दुविधा सबसे ज्यादा राजद-जदयू जैसी बिहारी पार्टियों को है. राजद-जदयू जैसी पार्टियां अगर इस पर कुछ बोलती हैं तो उनका बिहारी बेस ही खत्म होगा और बिहारी बेस को हटा देने के बाद झारखंड में राजनीति के लिए उनके पास कुछ खास बचता भी नहीं. प्रदेश भाजपा के वरिष्ठ नेता व राज्य के कैबिनेट मंत्री नीलकंठ सिंह मुंडा कहते हैं, ‘कोई बोलेगा क्या? किस आधार पर बोलेगा. यहां सबकी सरकारें रही हैं. किसी ने रोका तो नहीं था. जब इतनी चिंता थी तो अपने कार्यकाल में दूसरी सरकारों को इसे बनाकर लागू करना चाहिए था.’ नीलकंठ सिंह वही बात कहते हैं जो भाजपा के सभी बड़े-छोटे नेता कह रहे हैं.

दरअसल स्थानीय की नीति को लागू करना और फिर लगे हाथ विपक्षियों को भी घेर लेना भाजपा की रणनीति का हिस्सा रहा है. जानकार बताते हैं कि रघुबर दास ने इस एक नीति को लागू करके एक साथ कई निशाने साध लिए हैं. एक तो यह कि इससे विपक्षियों कोे झटका लगा है. दूसरा यह कि उन्होंने जिस तरह से स्थानीय नीति तैयार की है उससे भाजपा के आधार वोट में वृद्धि होगी और वह लंबे समय तक जुड़ा भी रह सकता है. सामाजिक कार्यकर्ता अश्विनी कुमार पंकज कहते हैं, ‘इस खेल को अभी समझ नहीं पा रहा. रघुबर दास ने इस नीति के जरिए झारखंडियों के लिए भले कब्र खोदी हो लेकिन भाजपा के भविष्य के लिए एक उर्वर जमीन जरूर तैयार कर दी है. राजनीतिक दल तो इसका उस तरह से विरोध नहीं कर पाएंगे क्योंकि जब नीति बन रही थी और सरकार ने सुझाव मांगे थे तभी दलों को खुलकर अपनी राय रखनी चाहिए थी लेकिन दलों के विरोध नहीं करने का मतलब यह नहीं होगा कि इस पर झारखंडी समाज चुप रहेगा.’

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कौन होगा झारखंड का निवासी

  • झारखंड में रहने वाले ऐसे व्यक्ति जिनका स्वयं या उनके पूर्वज का नाम गत खतियान (जमीन के मालिकाना हक का कागज) में दर्ज हो और ऐसे मूल निवासी हों जिनके संबंध में उनकी प्रचलित भाषा, संस्कृति और परंपरा के आधार पर ग्राम सभा की ओर से पहचान किए जाने पर झारखंड के माने जाएंगे.
  • राज्य के ऐसे निवासी जो व्यापार, नियोजन या अन्य कारणों से पिछले 30 साल या उससे अधिक समय से यहां निवास करते हों और अचल संपत्ति अर्जित किया हो, वे, उनकी पत्नी और बच्चे झारखंड के निवासी माने जाएंगे.
  • झारखंड सरकार की ओर से संचालित या मान्यता प्राप्त संस्थानों, निगमों आदि के नियुक्त और कार्यरत पदाधिकारी या कर्मचारी, उनकी पत्नी और बच्चे झारखंड के माने जाएंगे.
  • भारत सरकार के पदाधिकारी या कर्मचारी, जो झारखंड में कार्यरत हों, वे, उनकी पत्नी और बच्चे झारखंड के माने जाएंगे.
  • झारखंड में किसी संवैधानिक या विधिक पद पर नियुक्त व्यक्ति, उनकी पत्नी और संतानों को झारखंड का निवासी माना जाएगा.
  • जिनका जन्म झारखंड में हुआ हो और जिन्होंने मैट्रिक या समकक्ष स्तर की पूरी परीक्षा राज्य के किसी मान्यता प्राप्त संस्थान से पास की हो, उन्हें झारखंड का निवासी माना जाएगा.

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बकौल अश्विनी पंकज, ‘वैसे झारखंडी समाज किसी बात पर तुरंत प्रतिक्रिया नहीं करता, इसलिए अभी शांत है लेकिन आज नहीं तो कल इस नीति के खिलाफ प्रतिक्रिया होगी और जब लोग प्रतिक्रिया करेंगे तो एक विशाल आंदोलन खड़ा होगा.’ गिरिडीह में रहने वाले भाकपा माले के नेता मनोज उन नेताओं में रहे हैं जिन्होंने स्थानीय की नीति लागू होते ही उसका अध्ययन किया और कहा कि यह झारखंड के भविष्य के लिए ठीक नहीं. मनोज कहते हैं, ‘इस नीति की खामियों को दूसरे तरीके से समझना होगा तब मालूम होगा कि यह क्यों और कैसे झारखंड विरोधी नीति है. सरकार ने 1985 से या उससे पहले रहने वाले लोगों को झारखंडी बनाने का फैसला किया है. हम लोगों की मांग 1932 के आधार पर रही है. 60 और 70 का दशक वह दौर रहा है जब झारखंड में बड़ी संख्या में बाहरियों का प्रवेश हुआ. कोयला उद्योग का राष्ट्रीयकरण हुआ, एचईसी और बोकारो स्टील प्लांट जैसी कंपनियां झारखंड में आईं. इसके साथ ही मजदूर से लेकर ठेकेदार के रूप में लोग यहां पहुंचे. इनमें ऐसे लोग अधिक रहे जिनका झारखंड से वास्ता सिर्फ रोजगार का रहा. वे भाषा, संस्कृति के आधार पर हमेशा अपने मूल से ही जुड़े रहे. अब वे सारे लोग झारखंडी हो जाएंगे. इनमें अधिकांश संख्या उन लोगों की होगी जिनका आगे भी झारखंड की अस्मिता, भाषा-संस्कृति और संकटों से मतलब नहीं रहेगा. जब ऐसे लोग अचानक ही वैधानिक तौर पर झारखंडी बन जाएंगे तो जाहिर-सी बात है कि उनका वर्चस्व बढ़ेगा और फिर झारखंडी जनता पीछे हो जाएगी.’ मनोज जिन बातों की ओर इशारा करते हैं उसे झारखंड में कई स्तरों पर जांचा और आंका जा सकता है. झारखंड के हर हिस्से में बाहरी आबादी की संख्या बहुत ज्यादा है लेकिन उसमें भी बोकारो, रांची के एचईसी इलाके और धनबाद में बसे लोगों में अधिकांश बाहरी ही हैं. इन इलाकों में झारखंड की भाषा-संस्कृति का न तो ज्यादा असर दिखता है, न ही इन लोगों का झारखंड की संस्कृति से कोई सरोकार ही नजर आता है. यह स्थिति कमोबेश हर जगह दिखती है.

जो झारखंड को जानते हैं वे यह मान रहे हैं कि स्थानीय नीति के बाद एक नई लड़ाई जरूर अंगड़ाई लेगी. झारखंड में बाहरी-भीतरी की लड़ाई राज्य निर्माण के पहले से ही तेज रही है. राज्य निर्माण के बाद से तो यह लड़ाई और तेज होती रही है. दो महीने पहले तक राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन जैसे नेता सदन में खुलेआम बाहरियों को तीर-धनुष से भगाने की बात किया करते थे.  यह माना जा रहा है कि झामुमो अब अपना पक्ष साफ करेगी. वह झारखंडी अस्मिता की राजनीति करने वाली सबसे बड़ी पार्टी है. वह चाहेगी कि इस मसले पर जनता की गोलबंदी हो. इसके लिए वह आक्रामक राजनीति करने की कोशिश करेगी. आदिवासी इलाके में झामुमो के आंदोलन का असर भी होगा. पेच बस यह फंसेगा कि डोमिसाइल की नीति से सिर्फ आदिवासियों का अहित नहीं होने वाला बल्कि यह झारखंड के मूल निवासियों का साझा मसला है और राज्य निर्माण के 16 सालों में झामुमो, आजसू समेत कई पार्टियों ने मूल निवासी- आदिवासियों और सदानों (गैर-आदिवासी) के बीच अपने-अपने आधार के विस्तार के चक्कर में झारखंडी एकता को दांव पर लगा दिया है.