किसका झारखंड?

‘कोई बोलेगा क्या? किस आधार पर बोलेगा. यहां सबकी सरकारें रही हैं. किसी ने रोका तो नहीं था. जब इतनी चिंता थी तो उनको अपने कार्यकाल में स्थानीय नीति बनाकर लागू करना चाहिए था’ 

नीलकंठ सिंह
भाजपा नेता और कैबिनेट मंत्री

इस मसले पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता व पूर्व केंद्रीय मंत्री सुबोध कांत सहाय अलग राय रखते हैं. वे कहते हैं, ‘सरकार ने जो नीति लागू की है उसमें कुछ छूट गया हो तो उसे शामिल करना चाहिए. आज भले ही भाजपा सरकार ने इसे लागू कर दिया हो लेकिन इसका खाका पूरी तरह से यूपीए सरकार ने ही तय किया था.’ सुबोध कांत  सहाय जैसे वरिष्ठ नेता यह समझ नहीं पा रहे कि उन्हें इस मसले पर क्या स्टैंड लेना है. हालांकि कांग्रेस के ही एक दूसरे नेता और पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सुखदेव भगत कहते हैं, ‘इसमें तो स्थानीय का भाव ही नहीं है तो फिर यह स्थानीय नीति कैसे हुई? यह दुविधा और आपस में ही एक-दूसरे के बयान काटने का खेल सिर्फ कांग्रेस के अंदर नहीं है बल्कि दूसरी पार्टियों में भी ऐसा देखने को मिल रहा है. जैसे एक ओर आजसू के प्रमुख सुदेश महतो इस नीति के लागू होने के पहले मुख्यमंत्री से मुलाकात करते हैं तो दूसरी ओर नीति के लागू होने के बाद आजसू के ही एक प्रमुख नेता देवशरण भगत कहते हैं कि यह नीति अन्याय है.

यहां यह जानना भी दिलचस्प है कि आजसू सरकार में शामिल पार्टी है. इस पर कुछ बोलने-न बोलने की दुविधा सबसे ज्यादा राजद-जदयू जैसी बिहारी पार्टियों को है. राजद-जदयू जैसी पार्टियां अगर इस पर कुछ बोलती हैं तो उनका बिहारी बेस ही खत्म होगा और बिहारी बेस को हटा देने के बाद झारखंड में राजनीति के लिए उनके पास कुछ खास बचता भी नहीं. प्रदेश भाजपा के वरिष्ठ नेता व राज्य के कैबिनेट मंत्री नीलकंठ सिंह मुंडा कहते हैं, ‘कोई बोलेगा क्या? किस आधार पर बोलेगा. यहां सबकी सरकारें रही हैं. किसी ने रोका तो नहीं था. जब इतनी चिंता थी तो अपने कार्यकाल में दूसरी सरकारों को इसे बनाकर लागू करना चाहिए था.’ नीलकंठ सिंह वही बात कहते हैं जो भाजपा के सभी बड़े-छोटे नेता कह रहे हैं.

दरअसल स्थानीय की नीति को लागू करना और फिर लगे हाथ विपक्षियों को भी घेर लेना भाजपा की रणनीति का हिस्सा रहा है. जानकार बताते हैं कि रघुबर दास ने इस एक नीति को लागू करके एक साथ कई निशाने साध लिए हैं. एक तो यह कि इससे विपक्षियों कोे झटका लगा है. दूसरा यह कि उन्होंने जिस तरह से स्थानीय नीति तैयार की है उससे भाजपा के आधार वोट में वृद्धि होगी और वह लंबे समय तक जुड़ा भी रह सकता है. सामाजिक कार्यकर्ता अश्विनी कुमार पंकज कहते हैं, ‘इस खेल को अभी समझ नहीं पा रहा. रघुबर दास ने इस नीति के जरिए झारखंडियों के लिए भले कब्र खोदी हो लेकिन भाजपा के भविष्य के लिए एक उर्वर जमीन जरूर तैयार कर दी है. राजनीतिक दल तो इसका उस तरह से विरोध नहीं कर पाएंगे क्योंकि जब नीति बन रही थी और सरकार ने सुझाव मांगे थे तभी दलों को खुलकर अपनी राय रखनी चाहिए थी लेकिन दलों के विरोध नहीं करने का मतलब यह नहीं होगा कि इस पर झारखंडी समाज चुप रहेगा.’

कौन होगा झारखंड का निवासी

  • झारखंड में रहने वाले ऐसे व्यक्ति जिनका स्वयं या उनके पूर्वज का नाम गत खतियान (जमीन के मालिकाना हक का कागज) में दर्ज हो और ऐसे मूल निवासी हों जिनके संबंध में उनकी प्रचलित भाषा, संस्कृति और परंपरा के आधार पर ग्राम सभा की ओर से पहचान किए जाने पर झारखंड के माने जाएंगे.
  • राज्य के ऐसे निवासी जो व्यापार, नियोजन या अन्य कारणों से पिछले 30 साल या उससे अधिक समय से यहां निवास करते हों और अचल संपत्ति अर्जित किया हो, वे, उनकी पत्नी और बच्चे झारखंड के निवासी माने जाएंगे.
  • झारखंड सरकार की ओर से संचालित या मान्यता प्राप्त संस्थानों, निगमों आदि के नियुक्त और कार्यरत पदाधिकारी या कर्मचारी, उनकी पत्नी और बच्चे झारखंड के माने जाएंगे.
  • भारत सरकार के पदाधिकारी या कर्मचारी, जो झारखंड में कार्यरत हों, वे, उनकी पत्नी और बच्चे झारखंड के माने जाएंगे.
  • झारखंड में किसी संवैधानिक या विधिक पद पर नियुक्त व्यक्ति, उनकी पत्नी और संतानों को झारखंड का निवासी माना जाएगा.
  • जिनका जन्म झारखंड में हुआ हो और जिन्होंने मैट्रिक या समकक्ष स्तर की पूरी परीक्षा राज्य के किसी मान्यता प्राप्त संस्थान से पास की हो, उन्हें झारखंड का निवासी माना जाएगा.

बकौल अश्विनी पंकज, ‘वैसे झारखंडी समाज किसी बात पर तुरंत प्रतिक्रिया नहीं करता, इसलिए अभी शांत है लेकिन आज नहीं तो कल इस नीति के खिलाफ प्रतिक्रिया होगी और जब लोग प्रतिक्रिया करेंगे तो एक विशाल आंदोलन खड़ा होगा.’ गिरिडीह में रहने वाले भाकपा माले के नेता मनोज उन नेताओं में रहे हैं जिन्होंने स्थानीय की नीति लागू होते ही उसका अध्ययन किया और कहा कि यह झारखंड के भविष्य के लिए ठीक नहीं. मनोज कहते हैं, ‘इस नीति की खामियों को दूसरे तरीके से समझना होगा तब मालूम होगा कि यह क्यों और कैसे झारखंड विरोधी नीति है. सरकार ने 1985 से या उससे पहले रहने वाले लोगों को झारखंडी बनाने का फैसला किया है. हम लोगों की मांग 1932 के आधार पर रही है. 60 और 70 का दशक वह दौर रहा है जब झारखंड में बड़ी संख्या में बाहरियों का प्रवेश हुआ. कोयला उद्योग का राष्ट्रीयकरण हुआ, एचईसी और बोकारो स्टील प्लांट जैसी कंपनियां झारखंड में आईं. इसके साथ ही मजदूर से लेकर ठेकेदार के रूप में लोग यहां पहुंचे. इनमें ऐसे लोग अधिक रहे जिनका झारखंड से वास्ता सिर्फ रोजगार का रहा. वे भाषा, संस्कृति के आधार पर हमेशा अपने मूल से ही जुड़े रहे. अब वे सारे लोग झारखंडी हो जाएंगे. इनमें अधिकांश संख्या उन लोगों की होगी जिनका आगे भी झारखंड की अस्मिता, भाषा-संस्कृति और संकटों से मतलब नहीं रहेगा. जब ऐसे लोग अचानक ही वैधानिक तौर पर झारखंडी बन जाएंगे तो जाहिर-सी बात है कि उनका वर्चस्व बढ़ेगा और फिर झारखंडी जनता पीछे हो जाएगी.’ मनोज जिन बातों की ओर इशारा करते हैं उसे झारखंड में कई स्तरों पर जांचा और आंका जा सकता है. झारखंड के हर हिस्से में बाहरी आबादी की संख्या बहुत ज्यादा है लेकिन उसमें भी बोकारो, रांची के एचईसी इलाके और धनबाद में बसे लोगों में अधिकांश बाहरी ही हैं. इन इलाकों में झारखंड की भाषा-संस्कृति का न तो ज्यादा असर दिखता है, न ही इन लोगों का झारखंड की संस्कृति से कोई सरोकार ही नजर आता है. यह स्थिति कमोबेश हर जगह दिखती है.

जो झारखंड को जानते हैं वे यह मान रहे हैं कि स्थानीय नीति के बाद एक नई लड़ाई जरूर अंगड़ाई लेगी. झारखंड में बाहरी-भीतरी की लड़ाई राज्य निर्माण के पहले से ही तेज रही है. राज्य निर्माण के बाद से तो यह लड़ाई और तेज होती रही है. दो महीने पहले तक राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन जैसे नेता सदन में खुलेआम बाहरियों को तीर-धनुष से भगाने की बात किया करते थे.  यह माना जा रहा है कि झामुमो अब अपना पक्ष साफ करेगी. वह झारखंडी अस्मिता की राजनीति करने वाली सबसे बड़ी पार्टी है. वह चाहेगी कि इस मसले पर जनता की गोलबंदी हो. इसके लिए वह आक्रामक राजनीति करने की कोशिश करेगी. आदिवासी इलाके में झामुमो के आंदोलन का असर भी होगा. पेच बस यह फंसेगा कि डोमिसाइल की नीति से सिर्फ आदिवासियों का अहित नहीं होने वाला बल्कि यह झारखंड के मूल निवासियों का साझा मसला है और राज्य निर्माण के 16 सालों में झामुमो, आजसू समेत कई पार्टियों ने मूल निवासी- आदिवासियों और सदानों (गैर-आदिवासी) के बीच अपने-अपने आधार के विस्तार के चक्कर में झारखंडी एकता को दांव पर लगा दिया है.