कठिन है डगर स्मार्ट सिटी की

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अगर कहा जाए कि दुनिया के सबसे स्मार्ट शहरों के बारे में सोचिए तो जाहिर तौर पर लंदन, न्यूयॉर्क, मेक्सिको और सिंगापुर (हालांकि ये एक देश है) का नाम ही जेहन में आता है. मगर आपको ये जानकर हैरानी होगी कि न्यूयॉर्क स्थित एक थिंक टैंक ‘इंटरनेशनल कम्युनिटी फोरम’ (आईसीएफ) द्वारा 2015 में जारी दुनिया के सर्वोत्तम 7 शहरों की सूची में इनमें से एक भी नहीं है. रियो डी जेनेरो (ब्राजील) को छोड़ दें तो सभी अनजान नामों के छोटे शहर हैं जैसे कोलंबस (संयुक्त राष्ट्र अमेरिका), इप्स्विच (ऑस्ट्रेलिया) और न्यू ताइपे सिटी (ताइवान).

आने वाले दिनों में जब शहरी विकास मंत्री वेंकैया नायडू 98 प्रस्तावित स्मार्ट शहरों की सूची में से पहले 20 शहरों को चुनेंगे तो जाहिर है उसकी तारीफ ही की जाएगी पर समस्या उसके बाद शुरू होगी. दरअसल इस योजना को लागू करने की जल्दी में नायडू ने इसकी प्रक्रिया को इच्छानुसार छोटा कर लिया है. इस योजना में एक स्मार्ट सिटी की परिभाषा, उसकी परिकल्पना और उसकी व्यापकता अब भी अस्पष्ट है. इसके उद्देश्यों को पाने में लगने वाली समयावधि भी बिना कारण ही कम कर दी गई है. एक कंसल्टेंसी फर्म, जिसने इस प्रोजेक्ट का हिस्सा बनने से मना कर दिया था, कहती है, ‘अगर शहरों के तैयार किए गए फाइनल खाकों और योजनाओं के बारे में बात करें तो ये योजना विश्व के किसी भी शहर की नकल-भर ही होगी. आपको इसमें बहुत कम या न के बराबर ही नयापन मिलेगा.’

सरकार की इस महत्वाकांक्षी परियोजना की वेबसाइट (डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू डॉट स्मार्ट सिटीज डॉट जीओवी डॉट इन)  के अनुसार, ऐसी योजनाओं की परिकल्पना देश व शहर के लिहाज से बदलती रहती है और ये कई बार उस स्थान विशेष के रहवासी और नीति निर्माताओं पर निर्भर करती है. यानी ये साफ है कि यूरोप या अमेरिका का कोई भी स्मार्ट शहर भारत से बिल्कुल अलग होगा, यहां तक कि भारत में ही अलग-अलग शहरों को स्मार्ट सिटी में विकसित करने के लिए अलग योजनाओं की जरूरत होगी. सभी शहरों के लिए एक ही जैसी योजना बना देने से काम नहीं चलेगा. ये एक सामान्य-सी बात है जो हम सभी के शहरों और नगरों के अनुभवों पर आधारित है.

‘किसी शहर को ‘स्मार्ट’ बनाने की पहली शर्त ‘स्मार्ट’ नागरिक हैं. अगर नागरिक ही स्मार्ट नहीं होंगे तो स्मार्ट सिटी बनाने के उद्देश्य बेमानी हो जाएंगे’

दुर्भाग्य से शहरी विकास मंत्रालय कुछ और ही चाहता है. उसका जोर इस बात पर है कि उनकी स्मार्ट सिटी की परिकल्पना का केंद्र सतत विकास था, जिसका उद्देश्य आसपास के सघन क्षेत्रों को विकसित करते हुए एक दोहराया जा सकने वाला मॉडल बनाया जाए, जिससे अन्य नगरों को स्मार्ट सिटी बनने की राह मिल सके. यहां मंत्रालय ने ये नोट भी जोड़ा कि योजना यह भी थी कि स्मार्ट बनाए जा रहे शहरों के अंदर ही इन मॉडलों को दोहराया जा सके और इन्हें देश के विभिन्न क्षेत्रों और भागों में प्रेरणास्वरूप देखा जाए. यहां साफ तौर पर इस योजना के पीछे छुपे विरोधाभास देखे जा सकते हैं.

मंत्रालय ने अपनी रणनीति में ‘पैन-सिटी डेवलपमेंट’ (संपूर्ण शहरी विकास) को भी शामिल किया है. इसका उद्देश्य मौजूदा शहरी संरचना को बेहतर बनाने के लिए कुछ आम समस्याओं का कुछ चुनिंदा ‘स्मार्ट’ समाधान देना है. उदाहरण के लिए परिवहन के लिए बेहतर ट्रैफिक मैनेजमेंट की व्यवस्था लाई जा सकती है, अशुद्ध पानी को वापस प्रयोग में लाने योग्य बनाया जा सकता है आदि. ‘पैन-सिटी’ यानी संपूर्ण शहर को किसी भी प्रस्ताव में शामिल करना जरूरी-सा हो गया है, जिसके पीछे विचार ये है, ‘स्मार्ट सिटी योजना एक सघन क्षेत्र में काम करेगी इसलिए जरूरी है कि वहां के रहवासियों को लगे कि इसमें उनके लिए भी कुछ है.’

इसी कारण वहां एक या अधिक ‘स्मार्ट’ समाधान होने चाहिए, जिससे इस योजना के ‘सहभागिता’ का सिद्धांत अपना महत्व साबित कर पाए. पर आने वाले कुछ सालों में ‘पैन-सिटी-सॉल्यूशन’ कई बड़ी समस्याओं को जन्म दे सकता है. पहला तो यही कि अपना लक्ष्य पाने की होड़ में काम करने वाली एजेंसियां कई शाॅर्ट-कट अपनाएंगी, जिससे इसके अधूरे क्रियान्वयन की संभावना रहेगी. दूसरा, भ्रष्टाचार की संभावनाओं को भी नकारा नहीं जा सकता. एजेंसियां नगर निकायों को इन समाधानों को शहर-भर में लागू करने के लिए भ्रष्टाचार का सहारा ले सकती हैं और अंतिम ये कि बाहरी योजनाकार कुछ नया सोचने की बजाय आसान समाधानों को इन योजनाओं में शामिल करेंगे.

स्मार्ट सिटी योजना से जुड़े दस्तावेज पढ़ने पर एक दूसरा पहलू भी सामने आता है. इस योजना का दायरा अस्पष्ट और अस्वाभाविक रूप से विस्तृत है. उदाहरण के लिए, इस योजना के बुनियादी ढांचे में पानी की समुचित सप्लाई, निश्चित बिजली आपूर्ति, कारगर पब्लिक ट्रांसपोर्ट व्यवस्था, सस्ते वाजिब दाम में घर, सुचारु आईटी व्यवस्थाएं, सुशासन, सुरक्षा और सतत विकास जैसी बातें कही गई हैं. ये तो स्पष्ट है कि अकेले नगर पालिकाओं द्वारा इतनी सुविधाएं दे पाना संभव नहीं है, न ही राज्य सरकारें ऐसा कर सकती हैं जब तक उनमें और विभिन्न मंत्रालयों और उनके विभागों में ऐसा समन्वय हो जैसा अब तक न देखा गया हो.

यहां स्मार्ट सिटी योजना में ‘आवश्यक सुविधा’ में सुचारु रूप से बिजली आपूर्ति की बात की गई है, जहां ऊर्जा की आवश्यकता का दस फीसदी सौर ऊर्जा से पूरा किया जाना चाहिए, ऐसा कहा गया है. कारगर पब्लिक ट्रांसपोर्ट व्यवस्था के लिए ‘नॉन-मोटर ट्रांसपोर्ट’ यानी पैदल या साइकिल पर चलने को प्रोत्साहन देना होगा. अगर ‘ग्रीनफील्ड प्रोजेक्ट’ की बात करें तो पुनर्निर्मित या पुनर्विकसित

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इमारतों को छोड़कर सभी बिल्डिंगों का हरा-भरा होना और ऊर्जा का सही इस्तेमाल करना जरूरी होगा. ये केवल कुछ आंकड़े हैं, जिन्हें निश्चित रूप से कार्यान्वयन करने वाली एजेंसियों द्वारा तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाएगा.

स्मार्ट सिटी योजना का जब टेंडर निकालेगा तब सबसे कम बोली लगाने वाला ही जीतेगा और ऐसे में रिसर्च पर होने वाला खर्च अपने आप ही कम हो जाएगा

दुनिया भर में स्मार्ट शहरों का एक निश्चित लक्ष्य है. जैसे अमेरिका का अर्लिंग्टन कंट्री शहर. अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन से नजदीक होने के कारण यहां अमेरिकी रक्षा मंत्रालय की रिसर्च प्रोजेक्ट एजेंसियां हैं. इस शहर का उद्देश्य साफ है कि संघीय निर्णयों से शहर को प्रभावित नहीं होने देना है. आईसीएफ की सात सबसे स्मार्ट शहरों की सूची में से ये भी एक है. इन्होंने अपने इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए ‘द अर्लिंग्टन वॉल’ नाम की रणनीति बनाई है, जिसमें शहर के 40 के लगभग नागरिक संगठन शहर में विभिन्न मुद्दों के लिए होने वाले फैसलों के संदर्भ में अपनी राय देंगे.

दूसरा उदाहरण न्यू ताइपे सिटी का है, इनका फोकस ब्रॉडबैंड सुविधा पर है. पिछले 5 सालों में इस शहर में इंटरनेट प्रयोग की दर 91 फीसदी रही है, जिसमें 100 एमबीपीएस की स्पीड से इंटरनेट सेवा दी गई थी. इस इंटरनेट सेवा का लाभ 300 से अधिक स्कूलों को भी मिला है. इस ब्रॉडबैंड प्रोजेक्ट को एक और योजना ‘नॉलेज ब्रिज’ से जोड़ा गया है, जिससे उद्योगों और विश्वविद्यालयों के बीच समन्वय स्थापित किया जा सके, जिससे कौशल और रोजगार के अवसर बढ़ सकें.

स्मार्ट सिटी बनाने के साथ वहां रहने वाले लोगों को भी ‘स्मार्ट’ बनाना जरूरी है. एक कंसल्टेंंट के मुताबिक किसी शहर को ‘स्मार्ट’ बनाने की पहली शर्त ही ‘स्मार्ट’ नागरिक हैं. अगर नागरिक ही स्मार्ट नहीं होंगे तो स्मार्ट सिटी बनाने के उद्देश्य कुछ ही समय में बेमानी हो जाएंगे. हमारे सामने दिल्ली और मुंबई के उदाहरण हैं. कॉमनवेल्थ खेलों के समय देश की राजधानी में ढेरों फ्लाईओवर, सब-वे, ओवरहेड ब्रिज बनाए गए, सड़कें चौड़ी की गईं. नतीजा, आज वो सब या तो जाम से भरे हुए हैं या उनका बहुत कम प्रयोग हो रहा है.

इसीलिए स्मार्ट शहरों के साथ जरूरी है संचार की ऐसी रणनीति जो नागरिकों को स्मार्ट बनाने में सहयोगी हो. हालांकि वर्तमान सरकार ने ‘स्वच्छ भारत अभियान’, ‘सेल्फी विद डॉटर’ जैसी योजनाओं के प्रचार के लिए देशव्यापी विज्ञापन अभियान चलाया हुआ है, पर विशेषज्ञों का मानना है कि ॒इससे कोई परिणाम नहीं निकलेंगे. कारण- विभिन्न शोधों के अनुसार भारत में किसी भी समुदाय की विशेष जरूरतों को पूरा करने के लिए सबसे ज्यादा जरूरत ‘सहभागिता और स्थानीय रूप में अपनी बात पहुंचाने’ की होती है. तो ऐसे में स्थानीय लोगों को स्मार्ट सिटी की जरूरत समझाने के लिए उनकी इन्हीं जरूरतों को पूरा करते हुए कोई रास्ता ईजाद करना होगा. विशेषज्ञों के अनुसार नीति-निर्माताआें को स्मार्ट सिटी की योजना में नागरिकों की भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी, जिसमें स्थानीय समुदायों को भी बात रखने का मौका मिले.

ऐसा उदाहरण सरे (कनाडा) में देखा गया. आईसीएफ की सात सबसे स्मार्ट शहरों की सूची में ये भी शामिल है. इस शहर में ‘मेयर्स हेल्थ टेक्नोलॉजी वर्किंग ग्रुप’ बनाया गया है, जिसमें 50 विश्वविद्यालयों के प्रतिनिधि, स्वास्थ्य अधिकारी, एनजीओ, व्यापारिक संघ और सरकार जुड़े हैं. इस ग्रुप का उद्देश्य स्थानीय रोजगार को 50 फीसदी तक बढ़ाना है.

स्मार्ट बनने की दौड़

देखा जाए तो शहरी विकास मंत्री द्वारा की गई सबसे बड़ी गलती 98 शहरों के नाम चुनने में हुई जल्दबाजी है. शुरुआती रूप में सलाहकारों के पास स्मार्ट सिटी योजना बनाने के लिए सौ दिन का समय था, पर विशेषज्ञ मानते हैं कि ये अवधि काफी कम है. उनमें से एक बताते हैं, ‘इससे पहले हम कई शहरों में सार्वजनिक स्वास्थ्य की योजनाओं पर काम कर चुके हैं और ऐसे प्रयोगों में एक साल या उससे ज्यादा का समय लगता है. यहां तक कि जब राज्य सरकारों और स्थानीय प्रशासन ने हमें जानकारियों और पूर्व में हुए प्रोजेक्ट से अवगत कराया हुआ था, तब भी जमीनी हकीकत कुछ और ही निकली. आधिकारिक जानकारी पुरानी थी और योजनाओं की उपलब्धियों के बारे में बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया था. और सबसे जरूरी, लोगों के इन योजनाओं के बारे में विचार योजनाकारों के बिल्कुल उलट है.’

ऐसी स्थिति में स्मार्ट सिटी की योजना में इन कंसल्टेंट्स के पास एक ही रास्ता बचता है कि वे विभिन्न शहरों के लिए बनी योजनाओं में से ही कुछ तथ्य उधार ले लें. ऐसा करना महज नकल करना ही होगा, जिसमें स्थानीय जरूरतों और शहर विशेष की असल स्थितियों की कोई जानकारी नहीं होगी. यानी बिना किसी जानकारी के आधार पर ये सलाहकार इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार करने का काम शुरू कर देंगे भले ही आगे वह स्थानीय आबादी द्वारा इस्तेमाल किया जाए या नहीं. इसका सबसे बड़ा उदाहरण दिल्ली का ‘बस रैपिड ट्रांजिट सिस्टम’ (बीआरटी) है, जिसकी शुरुआत से ही आलोचना हुई और फिर इसे बंद कर दिया गया.

स्मार्ट सिटी योजना अपरिपक्व है इसलिए जब इसका टेंडर निकाला जाएगा तब सबसे कम बोली लगाने वाला ही जीतेगा और ऐसे में रिसर्च पर होने वाला खर्च अपने आप ही कम हो जाएगा. यहां उन्हें ये भी संदेह रहेगा कि ये सलाहकार कहीं नगर पालिका के साथ कोई मिलीभगत न कर रहे हों. मान लेते हैं अगर स्मार्ट सिटी की योजना का ठेका लेने भर के लिए कोई व्यक्ति 5 लाख रुपये की बोली लगाता है और योजना को क्रियान्वित करने के समय सलाहकार के हिस्से में कटौती कर देता है. विशेषज्ञ कहते हैं कि पहले कुछ मामलों में ऐसा हो चुका है. उनमें से एक ने बताया, ‘कोई भी सलाहकार कुछ लाख रुपयों में स्मार्ट सिटी का प्लान नहीं बना सकता, इसके लिए ऑनलाइन शोध निहायत ही जरूरी है.’

 भारी-भरकम राशि का निवेश

सरकारी आंकड़ों के अनुसार केंद्र आने वाले 5 सालों में 98 शहरों को स्मार्ट सिटी बनाने पर 48 हजार करोड़ रुपये खर्च करेगा यानी औसतन हर शहर पर प्रतिवर्ष लगभग सौ करोड़ रुपये खर्च होंगे. लगभग उतना ही खर्च संबंधित राज्य या नगर निकाय को भी देना होगा. यानी अगले 5 सालों के लिए कुल एक लाख करोड़ रुपये की राशि उपलब्ध होगी. तो ऐसे में क्या एक स्मार्ट सिटी बनाने के लिए प्रतिवर्ष 200 करोड़ रुपये या पांच सालों के लिए 1 हजार करोड़ रुपये पर्याप्त होंगे? स्पष्ट रूप से नहीं! इसे भी एक उदाहरण से ही समझते हैं. कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन से पहले दिल्ली को बेहतर बनाने के प्रयास में 66,550 करोड़ रुपये लगे थे, जहां 5,700 करोड़ रुपये सिर्फ फ्लाईओवर और पैदल पुलों के निर्माण में खर्च हुए. दिल्ली मेट्रो के विस्तार के लिए 16,887 करोड़ रुपयों की जरूरत पड़ी, वहीं बिजली की सुचारु आपूर्ति के लिए बनाए गए बिजली के नए प्लांटों पर 35 हजार करोड़ रुपये खर्च हुए.

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अगर ये भी मान लिया जाए कि ये आंकड़े बढ़ा-चढ़ाकर बताए गए हैं, तब भी ये तो साफ है कि कॉमनवेल्थ खेलों के दौरान पैसों का बड़ा हेर-फेर हुआ है. ऐसे में वर्तमान सरकार की इस स्मार्ट सिटी परियोजना के लिए तो एक लंबी समयावधि के लिए दसियों हजार करोड़ रुपयों की जरूरत होगी.

केंद्र भी इस तथ्य से वाकिफ है. स्मार्ट सिटी के फाइनेंस से जुड़े एक दस्तावेज में कहा गया है, ‘ऐसा अनुमान है कि योजना के लिए लगातार पूंजी लगाने की जरूरत होगी.’ केंद्र और राज्य सरकारों से मिलने वाला अनुदान तो प्रोजेक्ट की लागत का अंश-भर होंगे, इसलिए इन अनुदानों को आंतरिक और बाहरी स्रोतों से आर्थिक मदद के लिए बढ़ाना होगा. यहां हो सकता है कि आंतरिक स्रोत यूजर फीस और बेनेफिशरी (लाभार्थी) शुल्क बढ़ा दें और बाहरी स्रोत म्युनिसिपल बॉन्ड्स, वित्त संस्थानों से मदद या पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप जैसे माध्यमों की मदद ले सकते हैं.

हालांकि ये सब भी खासी परेशानियों से भरा है. ज्यादातर नगर निगम आर्थिक रूप से सक्षम नहीं हैं. दिल्ली के ही तीनों नगर निगमों पूर्वी दिल्ली नगर निगम, उत्तरी दिल्ली नगर निगम और नई दिल्ली नगर निगम को ले लीजिए, इनमें से केवल एक ही को आय मिलती है. पूर्वी और उत्तरी दिल्ली नगर निगम क्रमशः 500 करोड़ और 1 हजार करोड़ के वार्षिक घाटे में चल रहे हैं, वहीं, नई दिल्ली नगर निगम ने वर्ष 2013-14 में 335 करोड़ रुपये का लाभ दर्ज किया है.

योजना के लिए लगातार पूंजी लगाने की जरूरत होगी. केंद्र और राज्य सरकारों से मिलने वाला अनुदान तो प्रोजेक्ट की लागत का अंश-भर होगा

अगर स्थानीय निकाय सेवाओं के बदले टैक्स बढ़ा देते हैं तो जाहिर है उपभोक्ताओं में गुस्सा बढ़ेगा, जिससे स्मार्ट सिटी योजना में कही गई ‘सिटीजन-फ्रेंडली’ बात सीधे खत्म हो जाएगी.

जैसे वित्तीय संकट का सामना नगर निकाय कर रहे हैं, उसमें बॉन्ड्स या बाहर से ऋण लेकर धन नहीं जुटाया जा सकता. पिछले कुछ समय में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप भी इन्फ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में सक्षम साबित नहीं हुआ है. इस प्रकार स्थानीय निकायों के पास धन जुटाने का जो विकल्प बचता है वह ये कि वे दोतरफा या बहुपक्षीय संस्थाओं के अनुदान के सहारे अतिरिक्त रकम जुटाएं.

स्मार्ट सिटी बनाने की योजना तो अच्छी है पर वर्तमान स्थितियों को देखकर लगता है कि कहीं ये बेवकूफी भरा और सिटीजन- ‘अनफ्रेंडली’ (लोगों के लिए प्रतिकूल) न साबित हो. सरकार को इसी अवधारणा पर रहने की बजाय इससे बेहतर योजना, जो ज्यादा उपयोगी हो, को सोचकर उस पर काम करने की जरूरत है. स्मार्ट सिटी सिर्फ जमीन पर या भौतिक रूप से नहीं बनती, बल्कि लोगों के दिमागों में बनती है. यहां समझने वाली बात ये है कि रोम जैसे बड़े शहर को बनने में पांच या दस साल नहीं लगे थे! अगर वैश्विक रूप से देखा जाए तो अधिकतर स्मार्ट शहरों को बनने में बीस से तीस साल का समय लगा है.

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