आत्महत्या का अनुबंध

IMG_0802gggg
फोटोः विजय पांडेय

‘नरेंद्र मोदी दुर्योधन की तरह व्यवहार क्यों कर रहे हैं?’  इस साल  मार्च में उत्तर प्रदेश के मथुरा के नजदीक स्थित एक गांव के दौरे पर गए सामाजिक कार्यकर्ताओं से वहां के किसानों ने यह प्रतिक्रिया जाहिर की. मार्च में असमय हुई बारिश की वजह से गांव के किसानों की फसल खराब हो गई थी. इलाके के किसानों ने ‘अच्छे दिन’ की उम्मीद में मोदी को बढ़-चढ़कर वोट दिया था लेकिन उनके द्वारा यूपीए सरकार के भूमि अधिग्रहण विधेयक में संशोधन करने पर इनमें रोष व्याप्त हो गया. किसानों को इस डर ने घेर लिया कि नए विधेयक में किसानों की अनुमति को अप्रासंगिक बना देने से बड़ी कंपनियां आसानी से उनकी जमीन पर कब्जा जमा लेंगी. ‘भूमि अधिग्रहण न्यायपरक क्षतिपूर्ति रकम व पारदर्शिता, पुनर्वास और पुनर्स्थापन अधिकार अधिनियम’ में भूमि अधिग्रहण के लिए किसानों के ‘न’ कहने का अधिकार महत्वपूर्ण था. अधिनियम के इस स्वरूप को किसानों और आदिवासियों ने लंबी लड़ाई के बाद पाया था.

धलगढ़ी नाम के इस गांव में किसान और मजदूर आंदोलनों से जुड़े संगठन ‘भूमि अधिकार आंदोलन’ के कार्यकर्ता मोदी सरकार के भूमि अधिग्रहण बिल का पुरजोर विरोध करते रहे हैं. उनका कहना है कि प्रधानमंत्री मोदी किसानों की नहीं सुन रहे हैं, ऐसे में अपनी जमीन बचाने के लिए किसानों को आज के युग के महाभारत के लिए तैयार हो जाना चाहिए.

पौराणिक महाभारत तब शुरू हुई थी, जब कौरवों ने पांडवों को सुई की नोंक के बराबर जमीन देने से भी इंकार कर दिया था. दुर्योधन का अहंकार उस समय इतना था कि उस समय वह पांडवों की मामूली मांग को मानने के लिए भी तैयार नहीं था. पांडव राज्य पर बराबर की हिस्सेदारी को त्यागने के एवज में केवल पांच गांव चाहते थे. संघर्ष कर रहे कार्यकर्ताओं का कहना है कि महाभारत से मिलता जुलता विवाद 21वीं सदी में दोहराया जा रहा है. जमीन से बेदखली के डर ने देशभर के किसानों को मोदी सरकार के भूमि अधिग्रहण विधेयक के विरूद्ध एक कर दिया था. जिसके बाद सरकार को अपना विधेयक रोकना पड़ा. फिर पूर्व की संप्रग सरकार के विधेयक में कुछ संशोधन करके उसे ही पारित किया गया.

भारत में इस वर्ष रबड़ उत्पादन करने वाले राज्यों में किसानों ने सबसे अधिक आत्महत्या की है. ऐसा तब है जब भारत की सबसे बड़ी टायर कंपनी एमआरएफ ने इस वर्ष अप्रैल-जून की तिमाही में अपने कुल मुनाफे में 94 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की है

बहरहाल जीत की यह खुशी बहुत देर तक नहीं बनी रह सकी. जमीन से बेदखली की आशंका ने फिर से सिर उठा लिया है. अब यह खबर सामने आई है कि खेती, पौधरोपण और पशुपालन उन 15 सेक्टरों में शामिल हैं, जिनमें 100 प्रतिशत विदेशी निवेश (एफडीआई) की अनुमति दी गई है. बिहार चुनाव हारने के तुरंत बाद सरकार ने यह घोषणा की. ‘न्यूनतम सरकार, अधिकतम सुशासन’ की अपनी प्रतिबद्धता को रेखांकित करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने ट्वीट किया, ‘एफडीआई संबंधी सुधारों के लिए हमारी सरकार की प्रतिबद्धता स्पष्ट और अटल है.’

सभी इलाकों के सभी तरह के विचारधारात्मक झुकावों वाले विभिन्न किसान संगठन इस बारे में चौकन्ने हो गए हैं. संघर्षरत कार्यकर्ताओं ने इसे ‘लाभ के लिए बहुराष्ट्रीय पूंजी का संस्थागत प्रवेश’ कहा है जो मुनाफे के लिए लालायित है. आरएसएस से जुड़े भारतीय किसान संघ के महासचिव प्रभाकर केलकर का कहना है, ‘अगर कृषि में प्रत्यक्ष एफडीआई को किसानों की जमीन छीनने के लिए शॉर्टकट के तौर पर इस्तेमाल किया गया तो हम इसके खिलाफ लड़ाई में एड़ी-चोटी का जोर लगा देंगे.’

लेकिन भूमि अधिग्रहण के लिए हिंसात्मक रास्ता अपनाया जाएगा, इसकी संभावना कम ही है, क्योंकि अतीत में सत्ताधारी दलों को इसकी बड़ी राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ी है. ऐसे में सरकार को कुछ ऐसे रास्ते ढूंढने होंगे जो प्रत्यक्ष तौर पर उतने दमनकारी न दिखाई दें. अखिल भारतीय किसान सभा के पी. कृष्णप्रसाद का कहना है, ‘कृषि में प्रत्यक्ष एफडीआई असल जमीन पर कैसे काम करेगा अभी तक इस बारे में बहुत कम ब्यौरा दिया है. लेकिन इस सरकार का पिछला ट्रैक रिकाॅर्ड तथा तीसरी दुनिया के देशों के इस क्षेत्र के अनुभवों को अगर देखा जाए तो हम पाते हैं कि कृषि में एफडीआई ने बड़े व्यवसायियों को फायदा पहुंचाया है तथा छोटे और मझोले किसानों की जीविका को नुकसान पहुंचाया है.’

क्या ये तथ्य मोदी के इस दावे के उलट नहीं हैं कि एफडीआई दुनिया भर में रोजगार और आमदनी बढ़ाने में सहायक रहा है. न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय से पंजाब की कॉरपोरेट खेती पर शोध कर रहीं रितिका श्रीमाली का कहना है, ‘एफडीआई भारतीय कृषि के कॉरपोरेटीकरण को बहुत तेजी से बढ़ा देगा. अनुबंध आधारित खेती को तेजी से संस्थागत रूप मिलेगा. अनुबंध आधारित खेती किसानों और कॉरपोरेट कंपनियों के बीच अनुबंध से कहीं बढ़कर है. ऐसी खेती करने वाली कंपनियां ही बीज, उर्वरक और कीटनाशक जैसे खेती में काम आने वाले उत्पाद भी बेचती हैं. इसी तरह वे किसानों से अपने उत्पाद खरीदते समय भी मुनाफा कमाती हैं. प्रत्यक्ष रूप से खेती में शामिल हुए बिना उत्पादों को खरीदने और बेचने की कीमतें कंपनियां ही तय करती हैं. इस तरह बिना कोई जोखिम उठाए ये कंपनियां नियमित रूप से अपना मुनाफा कमाती हैं.’

श्रीमाली इस ओर भी ध्यान दिलाती हैं कि गरीब किसानों के लिए तय ऋण के एक बड़े हिस्से पर कॉरपोरेट खेती करने वाली कंपनियां कब्जा जमा लेती हैं. साथ ही कॉरपोरेट खेती के नाम पर बड़े पैमाने पर खेती करने के कारण उनके लिए ऋण लेने की राह आसान होती है. यही तथ्य मुंबई में रहने वाले अर्थशास्त्री आर. रामकुमार के हाल ही में किए गए एक अध्ययन में भी सामने आए, जिसमें उन्होंने वर्ष 2000 से बैंकों द्वारा खेती के लिए दिए ऋणों का अध्ययन किया था.

कॉरपोरेट खेती में अग्रणी आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और गुजरात जैसे राज्यों में खेती में उत्पन्न होती अस्थिरता और संकट की स्थिति साफ तौर पर इस ओर संकेत करती है कि कृषि में एफडीआई के क्या प्रभाव हो सकते हैं.  हैदराबाद स्थित सुंदरय्या विज्ञान केंद्र (एसवीके) द्वारा आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के 88 गांवों में क्षेत्रवार सर्वेक्षण किया जा रहा है. सर्वेक्षण के संयोजक के. वीरैया का कहना है कि सर्वेक्षण में ऐसे तथ्य सामने आ रहे हैं, जो दिखाते हैं कि अनियंत्रित विदेशी पूंजी किस तरह का संकट पैदा कर सकती है. वीरैया कहते हैं, ‘कॉरपोरेट खेती किसानों के शोषण को तेज करने के अलावा खेती की शैली को भी प्रभावित करती है जिससे खाद्य सुरक्षा भी प्रभावित होती है.’

एसवीके ने अपने अध्ययन में तेलंगाना के वारंगल जिले में तेजी से बढ़ती किसान आत्महत्याओं को कॉरपोरेट खेती से जोड़ा है. इस नए गठित राज्य में जून 2014 से अब तक 1,750 किसान आत्महत्या कर चुके हैं. वारंगल के इन किसानों में से एक चौथाई एक बड़ी बहुराष्ट्रीय कॉरपोरेट खेती कंपनी की भारतीय शाखा द्वारा की गई ठगी का शिकार हुए थे. इस कंपनी ने अपने स्थानीय नेटवर्क के माध्यम से किसानों को काफी ऊंची कीमत पर बीटी कॉटन के बीज बेचे थे. बीज अच्छी किस्म के नहीं थे. इस कारण फसल भी उम्मीद के मुताबिक अच्छी नहीं हुई. कंपनी ने खराब किस्म के कपास को खरीदने से मना कर दिया और इस तरह एक बड़े घाटे के शिकार हुए किसानों में आत्महत्या का सिलसिला शुरू हो गया. आंध्र प्रदेश में भी कॉरपोरेट खेती का अनुभव बहुत अच्छा नहीं रहा. पश्चिम गोदावरी जिले के बी.वी. गुडेम गांव में गोदरेज ग्रुप की कंपनी ने ताड़ के तेल और कोका जैसी नकदी फसलों की कॉरपोरेट खेती शुरू की. इस खेती ने एक ऐसे बड़े भूभाग को घेर लिया जो इससे पहले धान की समृद्ध खेती के लिए जाना जाता था. एसवीके के अध्ययन के अनुसार इन नकदी फसलों ने लगभग 3000 एकड़ की धान की खेती की जगह ले ली है.

एक प्रचलित धारणा यह है कि कॉरपोरेटीकरण जाति प्रथा की जकड़नों को तोड़ देता है. लेकिन एसवीके का अध्ययन यह दर्शाता है कि गोदरेज ग्रुप ने प्रचलित जाति आधारित भेदभाव और प्रथाओं को मजबूत किया है जिसमें बंधुआ मजदूरी से मिलती-जुलती एक प्रथा भी शामिल है. गुंटूर जिले के कट्टावारिपलम गांव में भी गन्ने और कपास की खेती में अनुबंध आधारित खेती को अपनाया गया है. इससे पहले खेत मजदूरों को एक किलो कपास को तोड़ने के लिए 7 रुपये और एक किलो मिर्च तोड़ने के लिए 12 रुपये दिए जाते थे. लेकिन अनुबंध आधारित खेती के चलते दूसरे जिलों और राज्यों से खेती के लिए मजदूरों के आने के बाद मजदूरी क्रमश: 2.5 रुपये और 7 रुपये पर आ गई है. इस कारण स्थानीय मजदूर निराश होकर यहां से पलायन कर रहे हैं. आंध्र प्रदेश में भी कमोबेश यही हाल है. गुजरात जहां मोदी ने कॉरपोरेट और अनुबंध आधारित खेती को संस्थागत रूप दिया है, वहां भी कठिन श्रम और मजदूरी कम होने का यही कारण सामने आया है.

इस ओर भी ध्यान देने की जरूरत है कि ऐसे हालात में कॉरपोरेटीकरण के क्या प्रभाव होंगे जहां आरंभिक उत्पादक यानी किसान अपने उत्पादों से तैयार होने वाले प्रसंस्कृत उत्पादों की कुल कीमत का 10 प्रतिशत से भी कम प्राप्त कर पाते हैं. इसका यह भी अर्थ है कि कॉरपोरेट कंपनियां खेतों से कच्चा माल बहुत कम कीमत पर और अपने नियम एवं शर्तों पर उठाती हैं.

उदाहरण के लिए भारत में इस वर्ष रबड़ उत्पादन करने वाले राज्यों में किसानों ने सबसे अधिक आत्महत्या की है. ऐसा तब है जब भारत की सबसे बड़ी टायर कंपनी एमआरएफ ने इस वर्ष अप्रैल-जून की तिमाही में अपने कुल मुनाफे में 94 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की है. फूड एंड एग्रीकल्चरल आॅर्गनाइजेशन की रिपोर्ट ‘द स्टेट आॅफ फूड इनसिक्योरिटी इन द वर्ल्ड, 2015’ में भारत भुखमरी के शिकार देशों में पहले स्थान पर है. इसके बावजूद ‘न्यूनतम सरकार, अधिकतम सुशासन’ के नाम पर सरकार एक ओर लगातार सामाजिक कल्याणकारी योजनाओं को कम कर रही है और दूसरी ओर 2014-15 के वित्तीय वर्ष में हीरे और सोना उद्योगों को 75,592 करोड़ की भारी भरकम सब्सिडी देने में भी उसे कोई गुरेज नहीं.

जब नई दिल्ली में मोदी सत्ता में आए तब मुंबई की दलाल स्ट्रीट के ब्रोकर इस बात पर चर्चा कर रहे थे कि क्या वे वैसे कदम उठा सकते हैं जैसे 1980 में  इंग्लैंड में मारग्रेट थैचर ने उठाए थे. उस समय थैचर ने सभी मजदूर यूनियनों को कुचल कर मुक्त बाजार को जोर-शोर से बढ़ावा दिया था. परिणामस्वरूप बड़े व्यवसायियों को फायदा हुआ. क्या एफडीआई के रास्ते कॉरपोरेटीकरण के माध्यम से खेती के संकट को बढ़ाकर मोदी ‘थैचर चमत्कार’ के भारतीय संस्करण का सपना देख रहे हैं?