‘मैं खुद को क्रिएटिव बनाए रखने के लिए काम करता हूं, मुंबई के लिए नहीं’

18-web आप विज्ञान के विद्यार्थी रहे हैं, ऐसे में लेखन की प्रेरणा कहां से मिली?

हम लोग मूल रूप से बिहार के ‘बाढ़’ कस्बे के रहने वाले हैं. वहीं पढ़ाई-लिखाई हुई. मेरे पिताजी राजकमल चौधरी (प्रसिद्ध मैथिल और हिंदी लेखक) के पिता के साथ शिक्षक थे. बिहार के एक उपन्यासकार अनूप लाल मंडल के साथ भी उन्होंने काम किया. पिताजी भी लिखते थे. इसका असर मुझ पर और मेरे बड़े भाई पर भी पड़ा. आठवीं क्लास से मैं भी बाल कविताएं लिखने लगा. बाल भारती आदि में कविताएं छपने लगीं. मैट्रिक पास किया तो बड़ों के लिए कविताएं लिखने लगा. फिर इंटर पास करने के बाद मैं और बड़े भाई मिलकर ‘कथाबोध’ नाम की पत्रिका निकालने लगे. शे.रा. यात्री, नरेंद्र कोहली जैसे लेखकों ने उस वक्त हमारी पत्रिका में लिखा बाकी जो बेहतरीन कहानीकार होते थे, हम लोग उनकी कहानियां छापते थे. जो स्थानीय लेखक थे, जिनकी कहानियां नहीं छपती थीं, उनकी किताबें भी सहयोग के तौर पर छापते थे, इस तरह लेखन से लगाव होता गया.

आप कविताएं लिखते थे लेकिन पहचान कथाकार की है. कथा की दुनिया में कब प्रवेश किया?

जब से कथाबोध पत्रिका निकालने लगा तभी से कहानियों की समझ होने लगी थी. ग्रेजुएशन के पहले साल में मैंने ‘और सीढि़यां टूट गईं…’ शीर्षक से एक कहानी लिखी. वह कहानी ‘रेखा’ पत्रिका में प्रकाशित हुई. उसके बाद ‘अपर्णा’, ‘कात्यायनी’ आदि पत्रिकाओं में कहानियां भेजने लगा. कहानियां तो लिखने लगा लेकिन कविता से न तो सरोकार कम हुआ, न लिखना बंद किया.

यानी कि तब से लगातार लिख रहे हैं!

नहीं. अभी तो लिखना शुरू ही किया था कि दूसरे किस्म की परेशानी सामने आ गईं. हम भाइयों ने जिस पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया था, वह एक साल बाद बंद हो गई. इस बीच पिताजी की तबियत ज्यादा खराब हुई तब उन्होंने स्कूल जाना छोड़ दिया. बड़े भाई की भी तबियत खराब रहने लगी. घर में आर्थिक संकट था. मैंने तब कॉलेज में नया-नया दाखिला लिया था. संकट के उस दौर में मैंने सब छोड़-छाड़कर अर्थोपार्जन की ओर ध्यान लगाया और एक साथ पांच-छह ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया. उससे जो आमदनी होती थी, उससे अपनी पढ़ाई भी करता था और घर की देखरेख भी.

इस तरह लेखन छूट जाने पर एक लंबा गैप रहा. लेखन से एक लंबे समय तक दूरी बनी रही. वह तो जब बीएससी आखिरी साल में पढ़ रहा था तो राजकमल चौधरी का एक पत्र आया, जिसमें लिखा था कि वे बाढ़ आने वाले हैं. नीलम सिनेमा हॉल के मैनेजर को भी बता दीजिएगा कि आने वाला हूं. आप और क्या-क्या लिख रहे हैं, यह भी देखूंगा और यह भी बताइए कि आप लेखन के अलावा और क्या करते हैं? तब मैं क्या जवाब देता कि अब लेखन छोड़कर सब करता हूं. बीएससी के बाद साइंस टीचर के रूप में मेरी नौकरी राजगीर के पास एक गांव में लगी. मुझे बुलाकर ले जाया गया, क्योंकि उस समय साइंस टीचर कम मिलते थे, उनकी बड़ी इज्जत भी होती थी लेकिन उस गांव में सांप्रदायिक तनाव इतना रहता था कि मैं नौकरी छोड़कर चला आया. फिर रिजर्व बैंक फील्ड सर्विस में नौकरी की लेकिन 11 बाद वहां से भी नौकरी छोड़नी पड़ी. बाद में प्रखंड सांख्यिकी पर्यवेक्षक के तौर पर मेरी नौकरी लगी और पटना जिले के बाढ़ को छोड़कर घोसी में नौकरी करने आ गया. वही घोसी इलाका मेरे कथालेखन का गुरु बना और आज भी कथालेखन के क्षेत्र में उसी इलाके को मैं अपना गुरु मानता हूं.

वह इलाका कैसे गुरु हुआ?

वहां जिस पद पर आया था, उसके लिए पूरे इलाके को घूमना जरूरी था. घूमता रहा तो फिर से कथाकार मन जागृत हो गया. मैं हर 15वें दिन एक कहानी लिखकर ‘कहानी’ पत्रिका के संपादक संपत राय को भेजता था. वह मेरी हर कहानी लौटा देते और लिखते कि शैवाल तुम में बड़ी आग है लेकिन इस आग को एक आकार कैसे दिया जाए, फिलहाल मैं नहीं समझ पा रहा इसलिए यह कहानी लौटा रहा हूं. उनके बार-बार लौटाने के बाद भी मैंने लिखना नहीं छोड़ा. उसी क्रम में 1976 में ‘दामुल’ कहानी मैंने भेजी और वह वहां छप गई. घोसी में रहते हुए ही मैंने ‘कहानी’ पत्रिका को कहानी भेजने के साथ ही, ‘रविवार’ पत्रिका मंे ‘गांव’ नाम से कॉलम लिखना शुरू किया. गांव में मेरी एक कहानी ‘अर्थतंत्र’ भी छप चुकी थी, साथ ही धर्मयुग में ‘समुद्रगाथा’ कहानी भी छपी थी.

कविताओं से कहानियों की दुनिया, फिर फिल्म लेखन की प्रेरणा कहां से मिली?

‘रविवार’ में एक पत्रकार अरुण रंजन थे. 1980 के करीब बिहारशरीफ में दंगा हुआ था. सभी पत्रकार बिहारशरीफ जा रहे थे. मैं भी अरुण रंजन के साथ गया. सबने रिपोर्ट वगैरह लिखी, मैंने बिहारशरीफ दंगे पर कुछ छोटी-छोटी कविताएं लिखीं. कविताएं छपीं. तब बिहारशरीफ दंगे पर प्रकाश झा एक डॉक्यूमेंट्री बना रहे थे. उन्होंने मुझे पत्र लिखा कि वे अपनी डॉक्यूमेंट्री में मेरी कविताओं का इस्तेमाल करना चाहते हैं. इस तरह प्रकाश झा से मेरे रिश्ते की शुरुआत हुई. बाद में उनसे खतो-किताबत का रिश्ता बन गया. उन्होंने फिल्म के लिए और कहानियां मांगी, मैंने दे दीं. समुद्रगाथा भेजी, उन्हें पसंद आईं. फिर कालसूत्र कहानी पर बात हुई. ‘दामुल’ की कहानी कालसूत्र नाम से ही प्रकाशित हुई थी. तीन साल तक  ‘दामुल’ पर काम चला और बाद में 1985 में फिल्म आई तो सबने देखा-जाना. उस साल राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में उसे सर्वोच्च फिल्म का पुरस्कार भी मिला. उसके बाद ‘सारिका’ में एक कहानी प्रकाशित हुई थी ‘बेबीलोन’, प्रकाशजी उस पर भी फिल्म बनाना चाहते थे, बात भी हुई थी लेकिन किसी वजह से वह रुक गई.

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प्रकाश झा के साथ इतनी फिल्मों पर बात की, साथ मिलकर दामुल जैसी फिल्म भी दी. फिर आगे बात क्यों नहीं बन सकी?

प्रकाश झा जी के साथ उसके बाद मृत्युदंड फिल्म तो की ही थी मैंने. ऐसा नहीं कि प्रकाश झा से मेरे व्यक्तिगत रिश्ते कभी खराब हुए, अब भी उनसे बात होती है. आज भी मैं उन्हें बड़े गुलाम अली खां ही कहता हूं और वे मुझे फटीकचंद औलिया बुलाते हैं. व्यक्तिगत रिश्तों की गर्माहट बनी हुई है लेकिन फिल्मों में हमारे रास्ते बदल गए. प्रकाशजी ने दूसरी तरह की फिल्मों की ओर रुख कर लिया, उन्होंने बाजार के बड़े रास्ते की ओर रुख कर लिया पर मेरा मन कभी उस बड़े-चौड़े रास्ते के प्रति आकर्षित नहीं हुआ.

दामुल इतनी चर्चित हुई, राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला, मृत्युदंड की कहानी को उस साल की सर्वश्रेष्ठ कहानी की श्रेणी में नामित किया गया, तो क्या मुंबईवालों ने कभी संपर्क नहीं किया?

क्यों नहीं किया! बहुत बार संपर्क किया और मैं लगातार काम करता रहा लेकिन मैं अपनी जमीन छोड़कर काम नहीं कर सकता. जब मैं घोसी रहने गया और बाद में गया आया तो लगा कि अपने जीवन में कम से कम मध्य बिहार की ही बड़ी-छोटी घटनाओं का साहित्यिक दस्तावेजीकरण कर दूं, तो मेरे कर्तव्य के लिए यह बड़ी बात होगी. मैंने ऐसा करने की हरसंभव कोशिश भी की. मध्य बिहार में कोई ऐसी घटना-परिघटना नहीं हुई, जिसे मैंने अपनी कहानियों में नहीं लिया. यह मेरी प्राथमिकता रही लेकिन प्रकाशजी के इतर ‘पुरुष’ फिल्म बनी तो उसकी स्क्रिप्ट लिखी. राजन कोठारी  ने जब ‘दास कैपिटल’ बनाने की सोची तो उनका साथ भी दिया. प्रकाशजी के ही असिस्टेंट और मित्र अनिल अिजताभ ने जब भोजपुरी फिल्म बनाने की सोची तो पहली बार भोजपुरी फिल्म ‘हम बाहुबली’ लिखी और अभी निर्देशकों की मांग के बाद कम से कम चार कृतियों की स्क्रिप्टिंग का काम हो चुका है, उन पर काम चल रहा है. वैसे काम लगातार चलता ही रहा, कभी रुका नहीं.

केतन मेहता की फिल्म  ‘मांझी- द माउंटेनमैन’  के प्रोमो में उन्होंने आपका नाम डायलॉग कंसल्टेंट के बतौर दिया है. उनसे कैसे जुड़े? फिल्म के बारे में क्या राय है?

इसके लिए तो पहले केतन मेहता को बधाई और बहुत शुभकामनाएं कि जिस विषय पर फिल्म बनाने की बात 1980 से बड़े-बड़े निर्देशक करते रह गए, सोचते रह गए, स्क्रिप्ट वगैरह पर काम कर के भी रुक गए, उस फिल्म को लाने का काम केतन ने किया. केतन मेहता बड़े फिल्मकार हैं. 2013 में एक दिन वे पत्नी दीपाजी  (दीपा साही) के साथ मेरे घर आए. गया की बेतहाशा गर्मी में हाथ वाला पंखा लेकर पसीने से तर-ब-तर होकर चार घंटे तक दशरथ मांझी पर बात करते रहे. मुझे जितनी जानकारी थी, मैंने उनसे साझा की. स्क्रिप्ट में कुछ सुझाव-सलाह देने थे, वो दिए. बाद में प्रकाश झा जी का फोन आया कि डायलॉग भी देख लीजिए तो प्रकाशजी की बातों के बाद मैं कुछ बोल नहीं पाता, न आगे-पीछे पूछ पाता हूं. केतनजी बड़े फिल्मकार और नेकदिल इंसान हैं ही, तो डायलॉग्स में जो संभव था, वह भी किया. और अब तो फिल्म ही रिलीज हो चुकी है. फिल्म से सहमति-असहमति की बात अलग हो सकती है लेकिन केतन मेहता के साहस को सलाम करना चाहिए, वरना तीन दशक से अधिक समय से बॉलीवुड की दुनिया दशरथ के कृतित्व व व्यक्तित्व को समझने में ही ऊर्जा लगाती रही.

तीन दशक का क्या अर्थ? पहले किसने कोशिश की?

बात 80 के दशक की है. दामुल बन चुकी थी. उसी वक्त मेरी एक कहानी धर्मयुग में प्रकाशित हुई थी- आदिमराग. उस कहानी के छपने की भी एक कहानी थी. आदिमराग की पूरी कहानी, दो प्रेम कहानियों की थी. एक कहानी दशरथ मांझी की और दूसरी कहानी जेहल की. दोनों की प्रेम कहानी समानांतर रूप से आदिमराग में चलती है. मैं उस कहानी के जरिये सिर्फ यह बताना चाहता था कि किसी भी प्रेम की शुरुआत व्यक्तिगत स्तर पर ही होती है लेकिन जब उसका जुड़ाव समूह से हो जाता है तो वह उद्दात रूप ले लेता है और क्रांति होती है और तब दशरथ मांझी जैसी प्रेम की निशानी पहाड़ काटने के सामने शाहजहां का ताजमहल भी बौना लगने लगता है. मैंने यह कहानी धर्मवीर भारती को भेजी. उन्होंने कहा कि जेहल की कहानी विश्वसनीय है लेकिन दशरथ मांझी वाली कहानी अविश्वसनीय है, इसलिए इसके हिस्से को काटकर छापूंगा. दशरथ की कहानी कट गई, आदिमराग कहानी छपी. उस पर देशभर से प्रतिक्रिया आई.

उसी क्रम में मैं मुंबई गया तो बासु भट्टाचार्य मुझसे मिलने मनमोहन शेट्टी के दफ्तर में आए और बोले कि ‘आदिमराग’ पर फिल्म बनाना चाहता हूं, आप उसकी स्क्रिप्ट पर काम कीजिए. मैंने कहा कि धर्मयुग में आदिमराग कहानी अधूरी  छपी है, पूरी तो मेरे पास है. वह तो सिर्फ जेहल की कहानी है, दशरथ की कहानी को भी जोड़ना होगा. बासु को भी दशरथ की कहानी अविश्वसनीय लगी. बावजूद इसके उन्होंने उस पर काम शुरू करवाया, स्क्रिप्टिंग हुई लेकिन फिल्म बन न सकी. फिर आदिमराग की ही मांग गौतम घोष ने की. उन्होंने संदेशा भिजवाया कि आदिमराग पर फिल्म बनाना चाहते हैं, उन्हें भी मैंने यही कहा िक कहानी अधूरी है, कहानी दशरथ से पूरी होती है. पर उन्हें भी दशरथ की कहानी अविश्वसनीय लगी.

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