‘माओवादियों को हर तरह के अतिवाद से बचना होगा’

ramsharan joshi

‘यादों का लाल गलियारा : दंतेवाड़ा’  किताब एक तरह से आपके नक्सल प्रभावित क्षेत्रों की 44-45 सालों की पूरी यात्रा का नतीजा है. नक्सल और भारतीय राज व्यवस्था के बीच की दिक्कत को कैसे समझा जा सकता है?

मैंने 1971 से लेकर 2013 के बीच बस्तर की कई बार यात्राएं कीं. बीते चार-पांच दशकों में जो राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव देश में आए हैं, उसके परिप्रेक्ष्य में हमें आदिवासियों की समस्या को समझना होगा. मैं अपनी किताब में सिर्फ बस्तर तक सिमटकर नहीं रहा बल्कि इसके जरिए मैंने पूरे आदिवासी समाज की समस्या को समझने की कोशिश की है. मेरी चिंता में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, झारखंड, ओडिशा, आंध्र प्रदेश के साथ दुनिया के तमाम मुल्कों के आदिवासी समाज शामिल हैं. मैंने इस विशेष समाज के लोगों को विशेष संदर्भ में समझने की कोशिश की है. सबसे पहले यह समझना जरूरी होगा कि परिवर्तन और विकास क्या हैं? जवाहर लाल नेहरू के जमाने से यह बात हो रही है कि आदिवासियों को मुख्यधारा में शामिल किया जाए. अब सवाल यह है कि मुख्यधारा है क्या? मुख्यधारा की कसौटियां क्या हैं? सवाल यह है कि मुख्यधारा और विकास की कसौटियां कौन तय करता है?  हम जब तक इन सवालों के जवाब नहीं ढूंढ़ेंगे तब तक आदिवासी समाज और भारतीय राज व्यवस्था के बीच अविश्वास का माहौल बना रहेगा.

जवाहर लाल नेहरू लोक कल्याणकारी नीतियों पर बहुत जोर देते थे. कहा जाता है कि नई उदारीकरण की नीतियां लागू होने के बाद से सरकारी नीतियों से लोक कल्याण की बातें धीरे-धीरे खत्म होती चली गईं?

नेहरू के समय राज्य की कल्पना में लोक कल्याणकारी नीतियों के सहारे पिछड़ गए लोगों को मुख्यधारा में शामिल कराना था. इसके पीछे उनका तर्क यह था कि अगर साम्यवाद और मुक्त अर्थव्यवस्था से दूर रहना है तो हमें लोक कल्याणकारी नीतियों को अपनाना ही पड़ेगा. लोक कल्याणकारी नीतियों को अपनाने से दो अतिवादी (साम्यवाद और मुक्त अर्थव्यवस्था) परिस्थितियों से बचा जा सकता है. यही वजह है कि नेहरू ने मिश्रित अर्थव्यवस्था के सिद्घांत को आगे बढ़ाया. नेहरू की मान्यता यह थी कि राज्य अगर हस्तक्षेपकर्ता की भूमिका में नहीं होगा तो गरीब लोग पिसते चले जाएंगे और समतावादी और न्याय की भूमिका का निर्वहन नहीं हो पाएगा. लोक कल्याणकारी नीतियों के तहत भूमि-सुधार, जमींदारी प्रथा का उन्मूलन, पंचायती राज आदि कई बड़े काम हुए, लेकिन जुलाई 1991 में जब नई उदारीकरण की व्यवस्था शुरू हुई तब राज्य के चरित्र में गुणात्मक परिवर्तन दर्ज किया गया. उस समय पीवी नरसिम्हा राव देश के प्रधानमंत्री और डॉ. मनमोहन सिंह वित्त मंत्री थे. अब यह कहा जाने लगा कि राज्य सुविधा मुहैया कराने की भूमिका का निर्वहन करेगा. वह अब हस्तक्षेपकारी भूमिका में नहीं होगा. राज्य की इस नई भूमिका को मैं एक उदाहरण के जरिए समझाना चाहूंगा. एक अखाड़ा तैयार करके एक ओर दुनिया के सबसे ताकतवर पहलवान को और दूसरी ओर रामशरण जोशी जैसे किसी आदमी को खड़ा कर दिया जाए और यह कहा जाए कि हमने अखाड़े की व्यवस्था कर दी है और अब आप लोग लड़िए. इसका परिणाम क्या होगा, इस बारे में ज्यादा माथापच्ची करने की जरूरत नहीं होगी. ठीक इसी तरह विश्व व्यापार संगठन में एक ओर अमेरिका है तो दूसरी ओर भूटान या मालदीव. दोनों लड़ेंगे तो उसके परिणाम क्या होंगे? राज्य के इस सुविधाकर्ता वाली भूमिका के लिए चालू भाषा में मैं दल्ला ही कह सकता हूं.

‘बगैर संसद में पहुंचे और बगैर शस्त्र उठाए कुछ भी नहीं बदला जा सकेगा. इन दोनों ही चरम स्थितियों से माओवादियों को बचना होगा’   

बीते कुछ सालों में नक्सलियों के बारे में जबरन वसूली और मासूम लोगों की हत्या करने की खबरें जोर-शोर से आने लगी हैं. पहले नक्सलियों के बारे में एक सामान्य धारणा थी कि आम लोग उनके दुश्मन नहीं हैं और वे सिर्फ अपने दुश्मनों की जान लेते हैं? क्या आज वे अपने उद्देश्यों से भटकने लगे हैं?

मैं इस प्रश्न का जवाब माओवादी या नक्सलियों के प्रवक्ता के तौर पर नहीं दे रहा हूं. आपने नक्सलियों के धन उगाही और मासूम लोगों की हिंसा के बारे में पूछा तो यहां साफ कर दूं कि मैं नक्सलियों की कुछ बातों का शुरू से विरोधी रहा हूं. चारू मजूमदार ने व्यक्तिगत हिंसा, व्यक्तिगत सफाया (शोषणमूलक व्यवस्था को समाप्त करने के या क्रांति के नाम पर किसी व्यक्ति की हत्या ) की बात की थी. मैं शुरू से इस व्यक्तिगत सफाये के सिद्घांत का विरोधी रहा हूं. व्यक्तिगत सफाये में बहुत ही मामूली घरों के लोग मारे जाते हैं. उनकी हिंसा किसी भी दृष्टि से, यहां तक कि क्रांति के दृष्टिकोण से भी जायज नहीं ठहराई जा सकती है. क्रांति मूलतः शोषण के खिलाफ है. अब सिपाही या सूचना देने वाला आदमी भी अपने चूल्हे को जलाने के लिए नौकरी कर रहा है तो उसको मारने का क्या औचित्य है? क्रांतिकारियों का यह नैतिक दायित्व है कि वे ऐसे लोगों को समझा-बुझाकर क्रांति की विचारधारा से लैस करें. वेे उनका विश्वास अर्जित करें. यह सब गोली-बंदूक से नहीं होने वाला है. लेनिन की एक बात का जिक्र मैं यहां करना चाहूंगा- ‘आप गरीब, मजदूर के घर पैदा हुए हैं या अमीर के घर, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है. एक क्रांतिकारी होने के लिए आपको क्रांति की चेतना से लैस होना पड़ेगा.’

आखिर क्या हो गया कि नक्सलियों के बारे में आम लोगों की राय बदल गई?

आप जानते हैं कि 1970 के माओवादी आंदोलन और आज के माओवादी आंदोलन में जमीन-आसमान का फर्क है. पहले इस आंदोलन का नेतृत्व मध्य वर्ग या निम्न वर्ग के हाथों में था लेकिन आज यह उन लोगों के हाथों में चला गया जो सीधे तौर पर दमन के शिकार हो रहे हैं. पहले नक्सलवादी आंदोलन का नेतृत्व उच्च जाति के हाथों में था लेकिन अब यह दलित और आदिवासियों के हाथ में चला गया है. बहुत बड़ा फर्क यही आया है. संभव है कि नेतृत्वकारी भूमिका में आए बदलाव की वजह से वे ‘सैद्घांतिक भटकाव’ के शिकार हुए हों. हालांकि इस बारे में मेरे पास कोई ठोस सबूत नहीं है. मेरा मानना है कि अगर पैसा गलत तरीके से आएगा तो चीजें गलत दिशा में बढ़ेंगी. यह बात मैं गांधीवादी नजरिए से नहीं कह रहा हूं. पूंजी का अपना एक चरित्र होता है और उसकी अपनी एक कार्यशैली होती है. यह हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि पैसा देने वाला हर व्यक्ति क्रांतिकारी एंगेल्स नहीं हो सकता. अगर माओवादी भटकाव के शिकार हो गए हैं तो इसे लेकर मुझे कोई अचरज नहीं है.

नक्सली और पुलिस के बीच मुठभेड़ होती है तो कई बार पुलिसकर्मियों की भी जान चली जाती है. राज्य मारे गए पुलिस को शहीद बताता है लेकिन पुलिस का काम मुठभेड़ के दौरान जान लेना और जान देना होता है. क्या राज्य यह सब करके अपने पक्ष में माहौल तैयार करना चाहता है ताकि मूल समस्या से लोगों का ध्यान हटाया जा सके?

देखिए, राज्य का भी आतंक होता है. आज आप संसद या विधानसभा में प्रतिनिधियों के बारे में आंकड़ाें पर गौर करें तो पता चलेगा कि वहां करोड़पतियों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ रही है. मेरा सीधा-सा सवाल यह है कि क्या सांसदों और विधायकों के अनुपात में ही देश के सामान्य नागरिकों (गरीब, पिछड़ा, दलित और आदिवासियों) की पूंजी में इजाफा हुआ है? मुझे लगता है कि गरीब और गरीब होते चले गए हैं. अगर इतना अन्याय है तो फिर उसके ऐसे परिणाम ही सामने आएंगे. पुलिसकर्मी भी किसी का बच्चा है और उसके मरने का दुख सभी को होना चाहिए. लेकिन सवाल यह है कि क्या उन्हें शहीद बनाने से समस्या का समाधान हो जाएगा? समस्या का समाधान तो तब होता है जब वहां से शोषण, दमन उत्पीड़न गुरबत हो. आप ऐसी समस्या ही क्यों रहने देते हैं जहां पुलिसकर्मी या माओवादी शहीद हों? मैं राज्य के समक्ष एक काल्पनिक परिस्थिति पेश करना चाहता हूं. कल को माओवादी दिल्ली तक पहुंचने में सफल हो जाएं और फिर अपने लोगों को शहीद बताना शुरू कर दें और पुलिस वाले जो आज शहीद हो रहे हैं और उन्हें गद्दार तो फिर क्या करेंगे? इसलिए सरकारों को बहुत ध्यान से इस मसले के हल की ओर बढ़ना चाहिए. माओवाद की समस्या काे हल करने के लिए सरकार को अपने अलग-अलग विभाग के अधिकारियों-कर्मचारियों की एक ईमानदार फौज खड़ी करने की दरकार है जो आदिवासियों के लिए समर्पित हो. आप सलवा जुडूम पैदा कर सकते हैं तो एक ईमानदार कर्मचारियों-अधिकारियों का समर्पित कैडर क्यों नहीं पैदा कर सकते हैं?

मोदी सरकार छत्तीसगढ़ में 24 हजार करोड़ रुपये की परियोजना शुरू करने जा रही है.  अतीत के मद्देनजर पुनर्वास, उचित मुआवजा आदि मामलों का निपटारा अब ढंग से होगा, इसका कैसे भरोसा किया जा सकता है?

मैंने अपनी किताब में नेशनल मिनरल डेवलपमेंट कॉरपोरेशन की बात उठाई है. दंतेवाड़ा में एनएमडीसी ने सबसे पहले हजारों करोड़ रुपए खर्च करके उद्योग खड़ा किया था. फिर भिलाई में. यह सब नेहरू के जमाने में हुआ था. यहां चिंता करने वाली बात यह है कि जो कंपनी 24 हजार करोड़ रुपये लगाएगी वह आदिवासी को कमोडिटी से ज्यादा कुछ नहीं समझेगी. आदिवासियों की जमीनें ली जाएंगी तो उन्हें कैसे मुआवजा दिया जाएगा? क्या वे परियोजना को इस तरह लागू करेंगे कि प्रतिरोध की कोई गुंजाइश ही न बचे. क्योंकि विस्थापन से केवल जीविकोपार्जन ही नहीं है बल्कि बोली, भाषा, संस्कृति आदि सब कुछ क्षत-विक्षत हो जाता है.

माओवाद का भविष्य क्या है?

भारत जैसे देश में अब सशस्त्र क्रांति लाना संभव नहीं. संभव हो जाए तो अच्छी बात है. लेकिन क्यों संभव नहीं है, इसका जवाब यह है कि भारत अब बहुत शक्तिशाली राज्य में तब्दील हो चुका है. दुनिया के तमाम पूंजीवादी मुल्कों में इस मसले पर बहुत घनिष्ठता है इसलिए वे कभी भी नहीं चाहेंगे कि किसी मुल्क में क्रांति संभव हो. 1936 में माओत्से तुंग विशाल रैली (लॉन्ग मार्च) निकाल सकते थे लेकिन आज आप जगदलपुर से साउथ ब्लॉक, दिल्ली तक लॉन्ग मार्च करना चाहें तो यह संभव नहीं हो पाएगा. अब क्रांति के नए माध्यम ढूंढने होंगे. माओवादियों को अति संसदवाद से और अतिसंविधानेत्तरवाद से बचना होगा. मतलब यह कि बगैर संसद में पहुंचे हुए कुछ नहीं बदलेगा और दूसरा यह कि बगैर शस्त्र उठाए कुछ भी नहीं बदल सकेगा. इन दोनों ही चरम स्थितियों से बचना होगा.