भले ही पार्टी मिल-जुलकर मनोहर सरकार का विरोध करने की कोशिश कर रही हो, लेकिन राजनीतिक हलकों में यह भी कहा जा रहा है कि पार्टी में वर्चस्व को लेकर दुष्यंत चौटाला और अभय चौटाला के बीच अंदरखाने खींचतान भी है. हालांकि इस सवाल का जवाब अभी भविष्य के गर्भ में है, लेकिन अगर गुजरे दौर पर नजर डालें तो देवीलाल के प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते उनके दोनों बेटों ओमप्रकाश चौटाला और रणजीत सिंह में भी काफी रस्साकशी रहती थी. बाद में ऐसी ही स्थितियां अजय चौटाला और अभय चौटाला के बीच भी चलती रहीं, लेकिन अजय चौटाला अपनी कार्यप्रणाली के कारण पार्टी में प्रभावी भूमिका में बने रहे. हालांकि बाद में अजय चौटाला के शिक्षक भर्ती घोटाले में जेल में बंद होने की वजह से अभी अभय चौटाला अहम भूमिका में हैं और पार्टी के जनाधार को बनाए रखने के लिए संघर्षरत हैं.
यदि हम इतिहास के पन्ने पलट कर देखें, तो जाटों और किसानों के कद्दावर नेता और पूर्व उप-प्रधानमंत्री देवीलाल की पार्टी इंडियन नेशनल लोकदल ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं. 1990 के चर्चित मेहम कांड के बाद हुए विधानसभा और लोकसभा चुनावों में पार्टी न केवल चुनाव हार गई थी, बल्कि देवीलाल खुद राजनीति में नौसिखिया माने जाने वाले भूपेंद्र सिंह हुड्डा से रोहतक लोकसभा सीट से चुनाव हार गए थे. यही नहीं, देवीलाल विधानसभा चुनाव में जाट-बहुल घिराय सीट से भी छत्तरपाल से हार गए थे. इस दौर में साल 1991 से 1999 तक पार्टी सत्ता से बाहर रही.
1999 के लोकसभा चुनाव में इनेलो और भाजपा ने गठबंधन कर पांच-पांच सीटों पर चुनाव लड़ा था और सारी सीटें जीत ली थीं. लेकिन 2004 के लोकसभा चुनाव में पार्टी अपना अस्तित्व तक नहीं बचा पाई और राज्य की सभी 10 लोकसभा सीटें हार गई. ध्यान रहे कि उस समय हरियाणा में इनेलो की सरकार थी. साल 2005 के विधानसभा चुनाव में इनेलो बुरी तरह हारी और इसे महज 9 विधानसभा क्षेत्रों में ही जीत हासिल हो सकी. हालांकि सत्ताधारी कांग्रेस के प्रति लोगों के गुस्से की वजह से 2009 के चुनाव में इसे 31 विधानसभा क्षेत्रों में जीत मिल गई थी, लेकिन इसके वोट फीसदी में पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले कमी आई थी.
हरियाणा में धारणा है कि देवीलाल ने जीवन भर किसी भी जाट नेता को उभरने नहीं दिया बल्कि स्थापित जाट नेताओं के खिलाफ राजनीति करते रहे
बीते विधानसभा चुनाव में इनेलो सिरसा, फतेहबाद, हिसार और जींद जिले के अलावा मेवात इलाके में अपना प्रभाव दिखाने में कामयाब रही. अक्टूबर में हुए विधानसभा चुनावों में पार्टी के 19 विधायक चुने गए तथा करीब एक दर्जन सीटों पर पार्टी के उम्मीदवार तीन हजार मतों के अंतर से चुनाव हारे. सोनीपत जिले की राई विधानसभा सीट पर तो पार्टी उम्मीदवार महज तीन वोट से ही चुनाव हारा. हालांकि यहां यह बताना भी जरूरी है कि इसके कई उम्मीदवार अपने प्रभाव की वजह से और बिरादरी का समर्थन होने के कारण जीत पाए. लेकिन पार्टी के सांसद दुष्यंत चौटाला विधानसभा चुनाव में उचाना सीट से केंद्रीय ग्रामीण राज्य मंत्री बीरेंद्र सिंह की पत्नी प्रेमलता से चुनाव हार गए, हालांकि लोकसभा चुनाव में उस विधानसभा क्षेत्र से दुष्यंत करीब 58,000 वोटों से जीते थे.
इनेलो का जनाधार खिसकने की एक अहम वजह यह भी रही है कि जाट राजनीति के गढ़ पुराने रोहतक जिला में हुड्डा ने इनेलो को पछाड़ने में कामयाबी हासिल कर ली. विधानसभा चुनाव में पुराना रोहतक जिला में, जिसके अंतर्गत सोनीपत, झज्जर जिले भी आते हैं, कांग्रेस के टिकट पर भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के ज्यादातर उम्मीदवार जीत गए. हालांकि बाकी क्षेत्रों में जाट वोट बैंक इनेलो के साथ जुड़ा रहा. यहां यह उल्लेखनीय है कि देवीलाल जाटों और किसानों के एकछत्र नेता रहे थे. लेकिन साल 2005 में मुख्यमंत्री बनने के बाद हुड्डा ने पुराने रोहतक जिले में लगभग सभी विधानसभा क्षेत्रों में इनेलो को प्रभावहीन कर दिया.

कहने को तो पार्टी का नाम इंडियन नेशनल लोकदल है, लेकिन इसका आधार मुख्यत: हरियाणा में ही रहा है. हालांकि पार्टी ने बारह वर्ष पहले पड़ोसी राज्यों राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश में पैर जमाने की कोशिश की थी, लेकिन कामयाबी नहीं मिल पाई थी. हालांकि बीते दौर में राजस्थान और दिल्ली में पार्टी के एक-एक विधायक रह चुके हैं.
दुष्यंत का कहना है कि इनेलो इस बार दिल्ली विधानसभा चुनाव में हरियाणा की सीमा से लगे दिल्ली के क्षेत्रों में उम्मीदवार खड़े करेगी. पार्टी ने राजस्थान तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपना जनाधार बनाने की कोशिश की थी, लेकिन नाकामयाब रही. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट नेता हरेन्द्र मलिक को पार्टी ने हरियाणा से राज्यसभा का सदस्य भी बनाकर भेजा था, लेकिन चुनावों में इनेलो को इसका कोई फायदा नहीं हुआ. राजनीतिक विश्लेषक डॉ. रमेश मदान का कहना है कि इनेलो की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि एवं वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य के चलते पार्टी कार्यकर्ताओं का मनोबल काफी हद तक टूट चुका है.
सवाल पैदा होता है कि पहली पंक्ति का नेतृत्व न होने की वजह से क्या पार्टी अपने अस्तित्व को बनाए रख पाएगी या यह अपनी रणनीति में परिवर्तन करेगी? पार्टी का समर्थक वर्ग कम होता जा रहा है. इनेलो का जनाधार अंबाला, कुरुक्षेत्र, करनाल, रोहतक, हिसार, सोनीपत, अहीरवाल क्षेत्र में काफी हद तक खिसक चुका है. पार्टी का मतदाता अपने निजी स्वार्थों को ध्यान में रखते हुए पहले कांग्रेस के पक्ष में गया और अब सत्ताधारी भाजपा के साथ जाता दिख रहा है.
हरियाणा में लोगों के मन में एक धारणा यह भी है कि देवीलाल ने अपने पूरे जीवनकाल में किसी भी जाट नेता को उभरने नहीं दिया. उनके समय में जो भी स्थापित जाट नेता थे, देवीलाल उनके खिलाफ चुनाव लड़े या उनके खिलाफ राजनीति करते रहे. देवीलाल ने जाट नेता बलराम जाखड़ के खिलाफ चुनाव लड़ा था. इसके अलावा जाट नेताओं नाथू राम मिर्धा, कुंभा राम आर्य तथा अजित सिंह से भी देवीलाल का छत्तीस का आंकड़ा रहा. इसी तरह ओमप्रकाश चौटाला ने प्रभावशाली जाट नेता बीरेन्द्र सिंह और कांग्रेस नेता रणदीप सिंह सुरजेवाला के खिलाफ चुनाव लड़ा. इसी प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए दुष्यंत चौटाला ने सांसद होने के बावजूद जाट नेता बीरेन्द्र सिंह की पत्नी के खिलाफ विधानसभा चुनाव लड़ा. जातिवादी मतदान के इस दौर में पार्टी का मतदाता यह सोचने लगा है कि चौटाला परिवार अपनी जाति या बिरादरी के खिलाफ ही राजनीति करता है और यह परिवार पूरे हरियाणा में अपना वर्चस्व बनाए रखना चाहता है. इसके अतिरिक्त अहीर, गुज्जर, राजपूत, रोड़ तथा अन्य कृषक जातियां इनेलो को केवल एक जाति विशेष, क्षेत्र विशेष और परिवार विशेष की पार्टी मानने लगी हैं, जिसका इसे नुकसान उठाना पड़ा है. ऐसे में अगर पार्टी ने अपनी रणनीति नहीं बदली और परिवार, जाति, क्षेत्र से ऊपर उठकर मुद्दों की राजनीति नहीं की, तो इसके अस्तित्व पर संकट की स्थिति आ जाएगी.
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