आपने इस बाबत सरकार को आगाह किया है?
कितना आगाह किया जाए! कितना अनुरोध किया जाए. पत्र पर पत्र लिखे जा चुके हैं. पिछले डेढ़ साल में ही दस से अधिक पत्र लिख चुका हूं कि गंगा पर कोई योजना बनाने से पहले इन बिंदुओं पर गौर करें. आप पूछ रहे हैं कि बनारस के ध्वस्त होने को लेकर आगाह किया या नहीं. यह आगाह करने वाली बात है कि जाकर देख लेने वाली बात है? बंगाल में फरक्का के पास बालू के जमाव से क्या हुआ है, क्या हो रहा है, इसे बताने के लिए न तो विशेषज्ञ की जरूरत है, न रिसर्च टीम की. गांव के गांव गंगा में समा चुके हैं या समा रहे हैं. कटाव जारी है. बनारस में भी वही होगा.
मोदी से क्या अपेक्षा करते हैं? किस तरह से नमामि गंगे की योजना चलाई जाए?
मेरी कोई अपेक्षा नहीं. आप पूछ रहे हैं तो सिर्फ बता रहा हूं, वह भी अपने इतने वर्षों के अनुभव के आधार पर. बस इतना ही कह रहा हूं कि गंगा को लेकर रोमांटिक नजरिये का त्याग करना होगा. गंगा को अगर बुखार की दवाई चाहिए तो उसे ब्यूटी पार्लर ले जाकर सजाने-संवारने की जरूरत नहीं. प्रधानमंत्री जी से यही कहूंगा कि उनमें इच्छाशक्ति है, वे संकल्प वाले व्यक्ति हैं, उन्हें गंगा को लेकर काम करना है तो सबसे पहले देश भर से हर क्षेत्र के विशेषज्ञों को बुलाना चाहिए. जो इंजीनियर हैं, समाजविज्ञानी हैं, अर्थशास्त्री हैं, गंगा सेवी हैं, संत-महात्मा हैं, जीवविज्ञानी हैं… कहने का मतलब हर क्षेत्र से देश के कोने-कोने से लोगों को बुलाइए. सबकी राय लीजिए. गंगा को रोमांटिक नजरिये से ट्रीट मत कीजिए. बुखार की दवाई की जरूरत है तो ब्यूटी पार्लर ले जाकर सजाने-संवारने वाली जो प्रक्रिया है, उसे बंद कीजिए लेकिन दुर्भाग्य है कि गंगा को सिर्फ एक नदी और पानी की बहती हुई धार मानकर इसे उसी तरह से देखने की कोशिश की जाती है. गंगा सिर्फ पानी की बहती हुई धार नहीं है. यह दुनिया की सबसे खास और विशिष्ट नदी है, नदी घाटी है. गंगा का दायरा सिर्फ वही नहीं है, जहां से और जिन इलाकों से यह गुजरती है. यह देश की धमनी है. गंगा गुजरती तो सिर्फ पांच राज्यों से है लेकिन एक दर्जन से अधिक राज्यों के भूजल से लेकर पेयजल तक का गणित गंगा पर निर्भर करता है. भारत की एक तिहाई आबादी सीधे तौर पर गंगा से प्रभावित होती है और गंगा भी एक तिहाई इलाके की गतिविधियों से प्रभावित होती है लेकिन हो कुछ और रहा है. अब आईआईटी वालों को जिम्मा दे दिया गया है कि आप ही बता दो कि गंगा का क्या करना है. आईआईटी वालों को फीस मिली होगी, उन्होंने क्षेत्र का गहराई से अध्ययन किए बिना, गंगा के एनाटमी-मार्फोलॉजी का अध्ययन किए बिना बता दिया कि यह ऐसा होना चाहिए.
‘नदियों को जोड़ना इतना आसान नहीं. रूस में ऐसा किया गया था, बर्बादी की कहानी वहां लिखी गई और दुनिया ने इस योजना से ही तौबा कर ली’
नदी जोड़ो योजना को भी तेजी से आगे बढ़ाने की बात चल रही है और गंगा में तो जल परिवहन के बारे में भी ढेरों बातें हुई हैं कि अब जल मार्ग से सफर आसान होगा.
नदी जोड़ो योजना पर मैं पहले से दृढ़ संकल्प वाला रहा हूं, अभी भी कह रहा हूं कि नदियों को जोड़ना इतना आसान होता तो दुनिया के दूसरे देशों में ज्ञान-विज्ञान कोई कम नहीं है. एक जगह रूस में जोड़ा गया था, नतीजा देखा लोगों ने, बर्बादी की कहानी वहां लिखी गई. दुनिया ने इस योजना से तौबा कर ली. पिछले दिनों उमा भारती मिली थीं तो मैंने फिर दोहराया कि नदियों को जोड़ने का मतलब सिर्फ उनके पानी का मिलान नहीं होता. पहले ग्राउंड वाटर से ग्राउंड वाटर का मिलान होता है, फिर बेसिन से बेसिन का, भूमि से भूमि का. तब जाकर नदी लंबी परिधि लेते हुए एक दूसरे से मिलती है. रही बात गंगा में जल परिवहन की तो यह फालतू की बात है. गंगा में पानी है कहां, जो आप उसमें परिवहन करवाएंगे. कहां से करवाएंगे यह तो बताएं. पानी की धार कहां से लाएंगे. सभी जगह टीले बनते जा रहे हैं और सारा पानी उधर ही निकाल ले रहे हैं. बहा रहे हैं नाला और चलाएंगे जहाज. फालतू बात है. बस गंगा पर बात करनी है तो बातें कर दी जा रही हैं. पैसे बहाना है तो उसका बहाना चाहिए.
आपसे पूछा जाए तो आप क्या कहना चाहेंगे? गंगा पर किस तरह से काम होना चाहिए?
मैं कोई अपनी ओर से, अपने मन से बात नहीं कहूंगा. 1974 में मैंने आईआईटी मुंबई से रिवर इंजीनियरिंग की पढ़ाई की और उसके बाद करीब 35 साल तक आईटी बीएचयू में नदी के बारे में ही पढ़ाता रहा, नदी को ही जीने और जानने की कोशिश की. 1985 में बीएचयू में गंगा रिसर्च सेंटर की स्थापना की, उससे कई रिसर्च पेपर निकाले गए. कई शोध हुए. अब वह गंगा रिसर्च सेंटर बंद है. इन सभी अनुभवों के आधार पर कुछ कहूंगा. 2001 में मुझसे सलाह मांगी गई थी. मैंने तब भी वही ‘फाइव थ्योरी ऑफ रिवर’ मैनेजमेंट को सौंपा था, आज भी वही कह रहा हूं. उस थ्योरी को दुनिया के कई देशों में अपनाया जा रहा है. साधारण-सी बात है. सबसे पहले गंगा को एक मुकम्मल शरीर की तरह देखिए. उसके अलग-अलग अंग हैं. किस-किस अंग में बीमारी है, उसे ठीक करने की कोशिश कीजिए. सिरदर्द है तो पैर का इलाज करने की जरूरत नहीं. दूसरी बात है कि वर्षों से गंगा पर उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश ने जो एकाधिकार जमा रखा है, वह टूटना चाहिए. देखिए तमाशा कि किसी आदमी के शरीर में छह लीटर खून हो और आप पांच लीटर निकालकर कहें कि वह जिंदा रहे तो क्या संभव है कि वह ठीक से चल फिर सकेगा? गंगा के साथ वाटर मैनेजमेंट को ठीक करना होगा. गंगा के हिमालय से उतरते ही हरिद्वार के पास भीमगौड़ा में 10,600 क्यूबिक फीट पानी प्रति सेकेंड निकाला जाता रहा है और उसके बाद नरौरा में पूरा का पूरा पानी. गंगा का पूरा पानी ही उधर निकालकर फिर कहा जाता है कि गंगा में अब यह ठीक करना है, वह ठीक करना है. अरे भाई गंगा में जल जब प्रवाह से आएगा तभी उसमें डीओबी भार कम होगा. तभी उसमें ऑक्सीजन की मात्रा ठीक रहेगी. गंगा में वेग रहेगा तभी वह जीवंत बनी रहेगी. लेकिन हद है कि उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में गंगा को वर्षों से ऐसे दुहा जाता है, जैसे वह इन्हीं दो प्रदेशों के लिए निकलती हो. बिहार, झारखंड, बंगाल से गंगा गुजरती है तो क्या उनका अधिकार नहीं है गंगा पर? इसे ठीक करना होगा. तीसरा यह है कि गंगा के समाजशास्त्र को समझना होगा. गंगा सिर्फ बिजली पैदा करने के लिए नहीं है. उस पर 47 करोड़ आबादी निर्भर है. पूरे विश्व में ऐसी नदी नहीं है, न इतनी बड़ी घाटी. आपको गंगा से पैसा ही चाहिए तो गंगोत्री के पास के जल का वैज्ञानिक अध्ययन करवा लीजिए. वह कैसा मिनरल वाटर है, देख लीजिए. बेचिए उसे पूरी दुनिया में. अरबों-खरबों आएगा लेकिन गंगा को बहने तो दीजिए. चौथी महत्वपूर्ण बात है इसके पॉल्यूशन मैनेजमेंट की. इसके सैंड बेड को समझना होगा. जो रेत है गंगा का, वह ऐसे ही नहीं है. गंगा का अगर एक एकड़ में प्राकृतिक सैंड बेड है तो वह उतने प्रदूषण को मैनेज और कंट्रोल करता है, जितना करने के लिए 2200 एकड़ भूतल जमीन चाहिए. आप खुद सोचिए कि कुंभ में इलाहाबाद में कितने लोग आते होंगे. करोड़ों लोग आते हैं. उनके शौच-पेशाब आदि को उसी बालू से मैनेज करती रही है गंगा. गंगा के पास लिमिटेड प्रदूषण को मैनेज करने की शक्ति खुद है. वह बालू से पॉल्यूशन मैनेज कर लेती है. और आखिरी है बेसिन मैनेजमेंट. खेत का पानी खेत में रहे, रुके, इस पर काम होना चाहिए. गंगा बेसिन में ग्राउंड वाटर बैलेंस रहेगा, तभी गंगा अपने स्वाभाविक रूप में अपनी गति को बरकरार रख पाएगी. ये सब बहुत साधारण बिंदु हैं. इन पर काम होना चाहिए. इसके लिए गंगा को सजाने-संवारने से काम नहीं चलेगा. नदी को लेकर बेहतर संस्थान खोलने चाहिए. नदियों का अध्ययन होना चाहिए. चीन जैसे देश में अंतर्राष्ट्रीय स्तर के तीन-तीन रिवर सेंटर हैं. उस पर काम होता है. उसके अनुसार योजनाएं बनती हैं. अपने देश में तो मैं खुद 35 साल तक रिवर इंजीनियरिंग पढ़ाता रहा, कई पीएचडी करवाई, बाद में उसका राष्ट्रहित, गंगाहित में कोई सार्थक उपयोग हुआ हो, मुझे नहीं लगता. इसलिए कह रहा हूं कि मोदी जी अगर चाहते हैं तो गंगा पर गंभीरता से काम करें. गंगा का अध्ययन करवाएं. फिर उसका समुचित उपचार करें. सजाने-संवारने की जरूरत नहीं, सिर्फ अपने स्वाभाविक रूप में रहे तो गंगा ऐसे ही बहुत खूबसूरत है.
‘गंगा में जल परिवहन की बात फालतू है. बहा रहे हैं नाला और चलाएंगे जहाज. बस गंगा पर बात करनी है तो बातें की जा रही हैं. पैसे बहाना है तो बहाना चाहिए’
आपने बीच में गंगा रिसर्च सेंटर की बात कही. वह क्यों बंद हो गया? अभी तो गंगा पर शोर का समय है, फिर इतना पुराना संस्थान बंद क्यों हो गया?
बीएचयू में दो-तीन वजहों से गंगा रिसर्च सेंटर की स्थापना 1985 में हुई थी. एक, बनारस गंगा का प्रमुख केंद्र है. दूसरा यह कि मालवीय जी खुद गंगा में गहरी रुचि रखते थे. यही सोच कर उसकी स्थापना हुई थी कि बीएचयू जैसा प्रसिद्ध संस्थान बनारस में होने के कारण गंगा पर महत्वपूर्ण काम करेगा. वहां से अब तक 55 एमटेक थीसिस लिखी गईं. तीन महत्वपूर्ण पीएचडी हुईं. सैकड़ों रिसर्च पेपर दिए गए. सारा काम होता रहा लेकिन बीएचयू ने उसे फंड ही नहीं दिया. 2011 तक मैं बीएचयू में था तो वहां जाता था. साफ-सफाई वगैरह करता था लेकिन अब तो वह भी बंद हो गया. एक बार वहां पांच करोड़ का फंड स्वीकृत हुआ कि इसका पुनरुद्धार होगा लेकिन बाद में कहा गया कि पांच लाख से यहां सब काम करवा लीजिए. मैंने कहा कि पांच लाख रखिए, मैं सत्याग्रह करूंगा. बीएचयू के वीसी ने कहा कि सत्याग्रह मत कीजिए, पूरे पैसे का उपयोग होगा. लेकिन बाद में वह मामला खत्म कर दिया गया. इसलिए तो मैं कह रहा हूं कि गंगा पर बातें करने वाले ढेरों हैं, गंगा पर लंबी सोच रखकर, ठोस पहल करने वाले लोग नहीं हैं. गंगा पर पॉपुलर तरीके से बात हो, पॉपुलर काम हो, सब इसी में उलझे हुए हैं. अब बीएचयू का वह गंगा रिसर्च सेंटर भी बंद हो गया तो समझिए कि गंगा का कोई संधान केंद्र देश में नहीं बचा है. कैसी विडंबना है, इसी से समझिए. देश की राष्ट्रीय नदी, 47 करोड़ आबादी पालने वाली नदी, दर्जन भर राज्यों से जिसका वास्ता है, जिस नदी को लेकर रोज लच्छेदार भाषण होते हैं, उसका एक वैज्ञानिक संधान-अनुसंधान केंद्र तक नहीं.