मेरे निर्देशक नाटक को परंपरागत तरीके से शुरू करना चाहते थे, जिसमें लाइट धीरे-धीरे मद्धम होती और मैं मंच पर आता हूं. लेकिन मैंने जोर दिया कि जब मैं मंच पर आऊं तब दर्शकों को लगे वे मेरी ही जिंदगी का हिस्सा हैं. वे उस सच्चाई में खो जाएं जो मैं उनके सामने लाने वाला हूं. इस तरह मैं उनके साथ मजाक करता हूं, उनके साथ घुलता-मिलता हूं और जब नाटक शुरू होता है तब दर्शक बड़ी आसानी से मेरी जिंदगी के करीब आ जाते हैं. मेरी सोच थी कि दर्शक मेरी जिंदगी की यात्रा में मेरे साथ चलें ना कि सिर्फ कुर्सियों पर बैठकर दूरबीन के सहारे दूर से ही मुझे समझने की कोशिश करें.

देश में थियेटर परंपरा के इतना धनी होने के बावजूद भी दर्शकों की संख्या घटती जा रही है. आपको इसके पीछे क्या कारण लगता है?
ये आपकी जगह पर भी निर्भर करता है. जब भी मैंने कोलकाता, बंगलुरु, चेन्नई और मुंबई जैसी जगहों पर मंचन किया है तब मैं अलग तरह के दर्शकों को महसूस करता हूं. पूरे सम्मान के साथ कहना चाहूंगा कि दिल्ली के दर्शक अपने मन मुताबिक समय का चुनाव करते हैं. थियेटर में अनुशासन का होना बहुत जरूरी होता है क्योंकि एक अभिनेता दर्शकों के सामने अपना जीवन खपा कर एक अद्भुत क्षण प्रस्तुत कर रहा होता है. मैं ये नहीं चाहूंगा कि नाटक देर से शुरू हो क्योंकि अगर ऐसा होता है तो ये उन दर्शकों की बेइज्जती करना होगा जो समय पर नाटक देखने आए हैं. मेरे निर्देशक शुरू करने के लिए कहते हैं लेकिन मैं देरी से आने वाले लोगों के लिए थोड़ा इंतजार कर लेता हूं.
आपकी जिंदगी में उतार-चढ़ाव के दौर आए हैं. इन सबसे ‘कुछ भी हो सकता है’ कि अवधारणा कैसे पैदा हुई?
नाटक में अपने बुरे दौर पर हंसना आसान था. लेकिन उसका मंचन दुख के परिवेश में था इसलिए यह हंसने लायक नहीं था. मेरे नाटक की अवधारणा उस जिंदगी से आई है, जिस तरह से मैंने उसे जी है. हम तमाम चीजों के बारे में हमेशा शिकायत करते रहते हैं लेकिन मैं उनमें से नहीं हूं. मैं सोचने में नहीं करने में विश्वास करता हूं. मैं विपत्ति आने पर रोने की बजाय उसका समाधान खोजूंगा. शिकायत करना आपको थोड़े समय के लिए संतुष्ट कर सकता है लेकिन आपको उससे आजादी नहीं दिला सकता. मैंने अपने नाटक में इस विचार को इसलिए शामिल किया क्योंकि मैं पूरी तौर पर आशावादी हूं. मैं मानता हूं कि जीवन जीने के लिए आशावादी होना ही एकमात्र जरिया है. जिंदगी जीने के दूसरे तरीके निराशा और दुख से भरे हुए हैं. आपको ये मानना ही पड़ेगा कि दुनिया बेहद खूबसूरत है.
अपने नाटक के आखिर में आपने बताया कि हर प्रदर्शन के बाद आप और मजबूत हुए हैं. क्या आप इस बारे में और कुछ बता सकते हैं?
एक अभिनेता के नाते ‘कुछ भी हो सकता है’ के मंचन के दौरान मुझे हमेशा चुनौती मिलती है क्योंकि मैं अपनी जिंदगी को बार-बार जी रहा होता हूं. मुझे अपनी जिंदगी के हर पल को दोबारा जीना पड़ता है, ताकि दर्शकों को वह विश्वसनीय लगे. लेकिन अगर मुझसे मेरी जिंदगी के बारे में कुछ बदलाव करने के लिए कहा जाए तो मैं अपनी कहानी में कोई छेड़छाड़ नहीं करूंगा. मैं आज जो भी हूं उस जिंदगी की बदौलत हूं जो मैंने जी है.