पिछले कुछ समय में सटायर के केंद्र में देश में लगे बैन रहे. सरकार जनता को निर्देशित करती है कि क्या खाना है, क्या पढ़ना है. क्या किसी लोकतंत्र में ऐसा होना विरोधाभास की तरह नहीं है?
विरोधाभास तो डेमोक्रेसी में होते ही हैं, मेरे लिए इसमें चौंकने जैसा कुछ नहीं है. ऐसा होगा ही. देश में इतना कुछ है कि आप चाहें तो किसी न किसी बात पर हमेशा गुस्से में रह सकते हैं. उसमें भी अभी हम सिर्फ वही बातें पकड़ रहे हैं जो हमारे दायरे में हैं यानी दिल्ली, मुंबई, बंगलुरु में हो रही हैं. इसके बाहर देश में कितना बुरा हो रहा है वो सोच ही नहीं पाते क्योंकि सोचकर आपको खुद से ही नफरत हो जाएगी कि आप चुप क्यों बैठे हैं जब इन शहरों से दूर किसी गांव में दलित के मंदिर में चले जाने या कुएं से पानी पी लेने पर कुएं में जहर मिला दिया गया. इन सबके बीच ये शहरी या कहें हिंदुस्तान की ‘फर्स्ट वर्ल्ड प्रॉब्लम्स’ बेमानी हो जाती हैं.
निर्देश देने में वैसे सेंसर बोर्ड भी पीछे नहीं रहा है. पहले गाली-गलौज, हिंसा आदि पर सेंसर की कैंची चलती थी पर अब देश में बन रही सेमी पॉर्न फिल्म एडल्ट कॉमेडी के नाम से रिलीज होती है और बोर्ड को हॉलीवुड में बनी फिल्म के किसिंग सीन की अवधि पर आपत्ति होती है. किसिंग सीन की सही अवधि का क्या मानक है? इस पर क्या कहेंगे?
दो बातें हैं, एक है सिस्टम यानी व्यवस्था और दूसरा उस व्यवस्था को चलाने वाले, तो ये व्यवस्था ही दोषपूर्ण है. ये कहूं कि पहलाज निहलानी से पहले सेंसर बोर्ड अच्छा था तो मैं झूठ बोल रहा हूं. ये सिस्टम बना ही एक्सप्लॉइट करने के लिए है. ये नहीं हो सकता न कि एक जमींदार अच्छा आ गया तो इसका अर्थ ये है कि फ्यूडल सिस्टम (सामंती व्यवस्था) खराब नहीं है. बस अब ये हो गया है कि अब जो जमींदार आया है वो सिर्फ गांव के बड़े लोगों की ही हत्या नहीं करता बल्कि बच्चों का भी खून पीता है तो अचानक से पिछला अनुभव अच्छा लगने लग गया. सिस्टम खराब है इसीलिए जमींदार आते हैं, जमींदार बदलते रहते हैं, व्यवस्था तो वही है. पहलाज निहलानी के साथ सिर्फ ये हुआ है कि उन्होंने वो हद भी पार कर दी है जिसके हम आदी हो चुके थे. सेंसर बोर्ड हमेशा से ही ऐसा था. पहले भी कई फिल्मों के साथ बुरा हुआ है. लीला सैमसन इनसे बेहतर थीं. पहलाज ने सेंसर बोर्ड से इतर जो काम किए हैं, मोदी जी के वीडियो बनाए हैं, उससे उन्हें समझना आसान हो गया है, तो ये व्यक्ति और विचारधारा विशेष को आधार बनाकर फिल्में सेंसर कर रहे हैं. और जहां तक किसिंग सीन की सही अवधि की बात है तो ये कुंठाएं हैं, जिसको उन्हें अब देश पर डालने का मौका मिला है तो वो कर रहे हैं. इसके पीछे कोई लॉजिक नहीं है. ये इसी से समझ आता है कि वे कहते हैं कि दस नहीं सात सेकंड्स ओके है यानी उनके दिमाग में पैरामीटर है कि इसके बाद आठवें सेकंड में देश की मर्यादा भंग हो जाएगी! आप दस लोगों को ये सीन दिखाइए, किसी को छह सेकंड पर परेशानी होगी तो किसी को पहले पर ही, किसी को होगी ही नहीं. ये बिल्कुल निजी राय है और वो अपनी निजी राय को देश पर थोप रहे हैं.
आप सोशल मीडिया पर सक्रिय रहते हैं. यहां रोज हर बात पर बहस-बवाल होता है. अफवाहें फैलाने में सोशल मीडिया का सबसे ज्यादा प्रयोग हो रहा है. क्या ये बंदर के हाथ उस्तरा देने जैसी स्थिति नहीं है?
मेरा मानना है बंदर के हाथ उस्तरा लगने वाली बात आधी सही है क्योंकि ये बंदर सीख सकता है. पिछले कुछ सालों में दुनिया भर में जो क्रांतियां या विरोध हुए हैं, उनमें इंटरनेट का बड़ा योगदान रहा है. इंटरनेट से सबकी आवाज बराबर हो गई है. ये अच्छा है. एक तरह से डेमोक्रेटिक स्पेस है पर इसके साथ कॉमन सेंस की कमी भी है. आपको नहीं पता कि आप क्या आग लगा रहे हैं और वो कहां तक पहुंचेगी. ये उसी तरह है कि आप जिस डाल पर बैठे हैं उसी को काट रहे हैं. अनजाने में बहुत-से लोग ऐसा कर रहे है.
आपने ‘ग्रेट इंडियन कॉमेडी शो’ के लिए काम किया है, जो अलग तरह का कॉमेडी शो था और काफी सराहा भी गया. खुद भी स्टैंडअप कॉमेडी से जुड़े हुए हैं. आजकल टीवी पर जो कॉमेडी शो दिखाए जा रहे हैं, क्या आप उनसे खुश हैं?
बिल्कुल नहीं. आजकल जो कॉमेडी शो टीवी पर आ रहे हैं मुझे उनसे बेहद चिढ़ है. मैंने उन्हें सिर्फ देखने के लिए देखा है कि ये लोग किस हद तक गिरे हैं. ये जो हो रहा है उसमें जनता की गलती है पर बनाने वाले की ज्यादा है क्योंकि ताकत उनके हाथ में है और फिर वे यह कहकर बचने की कोशिश करते हैं कि लोग यही देखते हैं. वे लोगों के बेसिक इंस्टिंक्ट यानी मूल प्रवृत्ति को संतुष्ट करके खुश हैं. पूरी दुनिया में मूल प्रवृत्ति यही है कि जो अपने से कमजोर है उसका मजाक बनाओ, वो कुछ नहीं कह सकता. वे अच्छे शो बना सकते हैं पर मेहनत नहीं करना चाहते, दिमाग नहीं लगाना चाहते.
आप फिल्म भी बनाना चाहते हैं, किस तरह की होगी ये फिल्म?
इस सवाल का जवाब देना अभी बहुत मुश्किल है. मैंने जब ऐसा कहा था तब मेरे पास एक स्क्रिप्ट थी पर अब तीन हैं. तो इतना कह सकता हूं कि इनमें से जो भी बनेगी, जब भी बनेगी बहुत वास्तविक होगी और हिंदुस्तान के मध्य वर्ग के बारे में होगी क्योंकि वही एक दुनिया है जिसे मैं अच्छी तरह से जानता हूं.
अब तक लिखे गीतों में कौन-सा दिल के करीब है? किसी गीत को लिखते समय कोई ऐसा अनुभव जो यादगार बन गया हो.
दिल के सबसे करीब है ‘मसान’ का ‘मन कस्तूरी रे’ है क्योंकि इसे लिखने के पहले कुछ अंदाजा नहीं था कि क्या चाहिए और लिखने के तुरंत बाद लगा कि यही चाहिए था बिल्कुल. इस गीत के साथ ऐसा लगा जैसे वरदान की तरह मिला हो कबीर से. बस हाथ फैलाए, आंख बंद करके सोचा और यह उपमा आ गिरी. सबसे यादगार मौका रहा जब ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ के गीत ‘जियऽ हो बिहार के लाला’ की रिकॉर्डिंग हो रही थी मनोज तिवारी के साथ. स्टूडियो में अनुराग कश्यप और स्नेहा खानवलकर भी थे और एक मौका आया जब मनोज तिवारी आंख बंद करके बस आलाप लेने लगे और स्नेहा ने संगीत को बस चलने दिया और तब मनोज बस मुग्ध होकर गीत को दोहराते रहे. हम सब सुनने वाले भी एक तरह के ट्रांस में चले गए और गाना पार लग गया.
आने वाली फिल्में?
फिलहाल तो अनुराग कश्यप की अगली फिल्म ‘रमन राघव’ के लिए गाने लिख रहा हूं.