‘अगर आप वोट करने की उम्र से ऊपर हैं और राजनीति को संदेह से देखते हैं तो आपको बच्चों की पेंटिंग प्रतियोगिता में हिस्सा लेना चाहिए’

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‘अवॉर्ड वापसी’  के चलते आप चर्चा में हैं. लोगों का कहना है कि ऐसा तो हमेशा से होता आया है तो फिर अब ऐसी कौन सी बात हुई है जो एक फिल्मकार इस पर बात कर रहा है. आप इस पर क्या कहेंगे?

जब सिख विरोधी दंगे हुए तो उस समय मैं स्कूल में पढ़ रहा था. जब आडवाणी ने रथयात्रा निकाली थी तब मैंने रामायण देखने वाले दोस्तों से कहा था कि वे इस ‘बकवास’ से प्रभावित न हों. फिर जब मुंबई दंगों की आग भड़की तब मैंने इस बारे में लिखा भी था और ज्यादा से ज्यादा लोगों के बीच इसे साझा भी किया था. यहां तक कि मैंने अपनी एडवरटाइजिंग एजेंसी के न्यूज लेटर पर इसे प्रकाशित कराने की भी कोशिश की, लेकिन इसे हटा लिया गया क्योंकि मेरे मुस्लिम बॉस मेरे ये लिखने से सहज नहीं थे. इसके बावजूद अगर आप मानते हैं कि मैं पहले नहीं बोला तो मैं माफी चाहता हूं. दूसरी बात, अब मैं एक नई शुरुआत कर रहा हूं. अभी शुरुआत की है, तो आशीर्वाद दीजिए.

आप क्या सोचते हैं कि एक फिल्ममेकर को किस हद तक राजनीतिक होना चाहिए?

(हंसते हुए) ये बेकार का सवाल है! मैं आपका सवाल समझ रहा हूं. मुझे याद है एक एक्टिविस्ट ने कुछ पत्रकारों से कहा कि हर चीज पॉलीटिकल होती है तो उन सबने उसे हैरानी से देखा. तो जैसे ही आप कहते हो कि हर जगह राजनीति होती है तो इसे सीधे देश की राजनीति से जोड़कर देख लिया जाता है. लोग एकबारगी हैरान हो जाते हैं कि एक फिल्मकार भी राजनीतिक समझ रख सकता है. ये ठीक उसी तरह से है, जैसे जब मैंने अपनी मां को ‘लव सेक्स और धोखा’ फिल्म का नाम बताया तो वे चौंक गईं. तो इस माहौल में अगर आप वोट करने की उम्र से ऊपर हैं और राजनीति या राजनीति करने को संदेह से ही देखते हैं तो आपको बच्चों की किसी पेंटिंग प्रतियोगिता में हिस्सा लेना चाहिए.

अब अापकी पिछली रिलीज फिल्म  ‘तितली’  की बात करते हैं. इस फिल्म पर शानदार प्रतिक्रियाएं आ रही हैं और यह रणवीर शौरी के करिअर की अब तक की सर्वश्रेष्ठ फिल्म मानी जा रही है. नकारात्मक माहौल वाले परिवार की यह कहानी जबर्दस्त तरीके से ध्यान खींचने वाली साबित हुई. ऐसा कैसे हुआ?

आपने सही कहा. ‘खोसला का घोंसला’ के बाद यह फिल्म रणवीर शौरी की अब तक की श्रेष्ठ फिल्म है. जहां तक नकारात्मक माहौल वाले परिवार की कहानी की बात है तो कनु बहल (फिल्म के निर्देशक) कार चोरी पर फिल्म बनाना चाहते थे. हालांकि आजकल नई तरह की कहानियों पर बात करने के लिए माहौल काफी अनुकूल है लेकिन किसी कहानी को लोगों तक पहुंचाने के लिए यह एकमात्र कसौटी नहीं है. मैं समझता हूं कि अपनी जिंदगी के कुछ मिलते-जुलते पहलुओं के कारण कनु इस तरह की कहानी के प्रति आकर्षित हुए. ऐसे में कहानी की पृष्ठभूमि में बदलाव आना शुरू हुआ. कार चोरी की कहानी से यह कार चोरों की कहानी बनी. इसके बाद कहानी ने फिर करवट बदली और एक ऐसे मध्यमवर्गीय परिवार पर आ टिकी जो कार चोरी में लगा है. यह सब काफी महत्वपूर्ण ब्योरा था. इस तरह शुरुआत हुई और फिर ‘तितली’ पर काम हुआ. शुरुआत में यह कुछ और थी और विकसित होते-होते कुछ और हो गई.

‘मैंने पहले भी विभिन्न मुद्दों पर अपनी बात रखी है, इसके बावजूद अगर आप मानते हैं कि मैं पहले नहीं बोला तो मैं माफी चाहता हूं. अब मैं एक नई शुरुआत कर रहा हूं, आशीर्वाद दीजिए’

यशराज फिल्म्स से आपका जुड़ना आप दोनों के लिए कैसा रहा?

यह दोनों के लिए ही मुश्किल था. यशराज के लिए अपने पुराने ढांचे से बाहर आकर जोखिम लेना निश्चय ही सीखने की राह पर उनके लिए एक नया मोड़ था. उन्होंने इससे पहले कभी कम बजट की फिल्म नहीं बनाई थी. यह हम दोनों के लिए ही अनूठा अनुभव था. हमने कभी किसी फिल्म को 60 लाख रुपये के कम बजट पर बाजार में नहीं उतारा था. किसी एक फिल्म का न्यूनतम मार्केटिंग बजट लगभग 3 करोड़ रुपये होता है. तो इस तरह ‘तितली’ केवल डिजिटल मार्केटिंग और जबानी प्रचार पर निर्भर थी.

आपने एक विज्ञापन कंपनी से करिअर की शुरुआत की. बाद में फिल्म निर्देशन और निर्माण के क्षेत्र में आए. जिस तरह की फिल्में आप बनाते हैं उससे एक फिल्ममेकर और प्रोड्यूसर के तौर पर काफी दिक्कतें आई होंगी. यह सफर कैसा रहा?

मेरी फिल्में ‘ओए लक्की! लक्की ओए!’ और ‘खोसला का घोंसला’ जबानी प्रचार पर ही चलीं. खोसला… जैसी फिल्म के साथ क्या किया जाए, किसी को समझ नहीं आ रहा था. फिर यूटीवी ने इसे कॉमेडी फिल्म के तौर पर प्रचारित करने का प्रस्ताव रखा लेकिन सच कहूं तो एक नए फिल्मकार के रूप में मुझे यह प्रस्ताव भयभीत करने वाला लगा, क्योंकि यह असल में एक कॉमेडी फिल्म नहीं थी. लेकिन यूटीवी के रॉनी स्क्रूवाला मुझे यह यकीन दिलाने में सफल रहे कि दर्शकों में यह एक कॉमेडी की तरह हिट रहेगी, क्योंकि उन्हें व्यंग्य व नाटक के बीच का अंतर पता नहीं होता. अगर दोनों फिल्मों को देखें तो मेरी बाद की फिल्मों की अपेक्षा ये दोनों ही अपनी बनावट और मार्केटिंग में महज ‘भीड़ को खींचने वाली फिल्म’ से कहीं बढ़कर थीं. मैंने यह सुनिश्चित किया कि इन फिल्मों में गाने जरूर हों. ‘लव सेक्स और धोखा’ (एलएसडी) और ‘शंघाई’ जैसी फिल्मों में भी गाने थे. असल में ये सब ध्यान आकर्षित करने के पैंतरे हैं. ये पैंतरे ऐसे माहौल में बने रहने के लिए जरूरी हो जाते हैं, जहां दर्शक शतुरमुर्ग के स्वभाव (वास्तविकता से इंकार करने वाले) और परंपरागत खयालात वाले हों. ऐसे में ऐसी फिल्मों के लिए बीच का रास्ता अपनाना पड़ता है लेकिन ‘तितली’ के साथ ऐसा नहीं है. इस फिल्म के बारे में किसी भी तरह का समझौता नहीं किया गया है. मेरे उलट कनु फिल्म में गाने रखने और खासतौर से किरदारों को गाते हुए दिखाने को लेकर सहज नहीं थे.

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बॉलीवुड में हमेशा गानों, ड्रामा और परिवार की परंपरा रही है. क्या आप सोचते हैं कि अकेले इंडस्ट्री ही इस तरह की फिल्में बनाने में दिलचस्पी लेती है या दर्शकों की भी दिलचस्पी होती है?

मैं समझता हूं कि भारत में एक बड़ा दर्शक वर्ग परिवार, ड्रामा और गानों से भरपूर फिल्में देखना पसंद करता है. इन्हें ‘दर्दनिवारक फिल्में’ कहा जा सकता है, जिन्हें देखते हुए वे अपना गम कम होता महसूस करते हैं. बहुत कम लोग ऐसे हैं, जो इसके इतर फिल्मों को देखना पसंद करते हैं. मैं समझ सकता हूं जब कोई स्टूडियो कहता है कि नॉन स्टार वाली फिल्म बनाकर खुदकुशी क्यों करना! वैसी फिल्म बनाएं जो इस तरह के दर्शकों को खींचती हों. तब डिस्ट्रीब्यूटर भी पूछते हैं कि ‘आप खोसला का घोंसला जैसी फिल्म क्यों नहीं बनाते?’ ‘खोसला का घोंसला’ से ‘तितली’ तक के सफर के दौरान हिंदी सिनेेमा में हुए विकास को वे कभी नहीं समझ पाएंगे.

संक्षेप में कहूं तो यह काफी कठिन काम है और इस तरह का काम करने का साहस बहुत कम लोग ही कर पाते हैं. आदि (यशराज फिल्म्स के आदित्य चोपड़ा) जैसे शख्स का सपना है कि मुख्यधारा के सिनेमा के साथ ही वह इस तरह की फिल्में भी बनाए.

‘मैं समझता हूं कि एक बड़ा दर्शक वर्ग परिवार, ड्रामा और गानों से भरपूर फिल्मों को देखना पसंद करता है. इन्हें ‘दर्दनिवारक फिल्में’ कहा जा सकता है, जिन्हें देखते हुए वे अपना गम कम होता महसूस करते हैं’

अभय देओल और इमरान हाशमी अलग तरह की भूमिकाएं निभाने वाले अभिनेता हैं. दोनों में कोई मेल नहीं. ऐसे में  ‘शंघाई’  फिल्म में इमरान हाशमी की भूमिका ने सबको चौंका दिया, क्योंकि आमतौर पर हम भट्ट कैंप के साथ उन्हें बिल्कुल अलग तरह की फिल्मों में देखने के आदी हैं. ऐसे अभिनेताओं से चरित्र अभिनय कराने की कैसे सूझी?

ये लोग अपनी पुरानी छवियों से खुद तंग आ चुके थे. अब तक मैंने जितने अभिनेता देखे हैं उनमें इमरान हाशमी सबसे बुद्धिमान, सुलझे और प्रोफेशनल अभिनेताओं में से एक हैं. इमरान पुरानी छवि में कैद महसूस कर रहे थे और उससे मुक्त होना चाहते थे. हालांकि ऐसा कहने वाले बहुत लोग हैं कि ‘शंघाई’ जैसी फिल्म क्यों बनाई जाए जो 50 करोड़ रुपये नहीं कमा सकती. इमरान और अभय देओल जैसे अभिनेता बहुत दबाव में थे और हर दिन अपनी पुरानी छवि से बाहर आने की कोशिश कर रहे थे.

मैं बता नहीं सकता कि किस तरह बुद्धिजीवी पत्रकार इमरान हाशमी की निंदा उनके किसिंग सीन की वजह से करते थे. तो इस तरह आप देख सकते हैं कि अभिजात्य वर्ग के लोग भी प्रचलित छवियों से प्रभावित हो जाते हैं. अगर आप अब भी इमरान के अभिनय की क्षमता नहीं देख पा रहे हैं तो मैं कहूंगा आप अंधे हैं. मैं ऐसा कोई डॉक्टर नहीं जिसने उन दोनों अभिनेताओं को अभिनय की घुट्टी पिलाई है. इमरान ने ‘गैंगस्टर’ और कुछ दूसरी फिल्मों में बेहतरीन काम किया है. इसके बावजूद उनकी आलोचना इस ओर भी संकेत करती है कि अब भी समाज के एक वर्ग में संकीर्णता है और जब आप कोई नई राह चुनते हैं तो कहीं से भी आपको सहयोग नहीं मिलता.