‘पुरस्कार लौटाकर खामोशी तोड़ने की कोशिश’

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कुछ लोग पुरस्कार लौटाने में राजनीति देख रहे हैं, लेकिन वैसा बिल्कुल नहीं है. पुरस्कार लौटाना राजनीति करने का मसला नहीं है, बल्कि यह उस खामोशी को तोड़ने का एक प्रयास था जो लगातार लेखकों पर हो रहे हमले के बावजूद पसरी हुई थी. अपने विचार व्यक्त करने के लिए कई लेखकों और बुद्धिजीवियों को प्रताड़ित किया जा रहा है. कुछ की तो हत्या भी कर दी गई. एमएम कलबुर्गी, नरेंद्र दाभोलकर और गोविंद पानसरे को क्रूरतापूर्वक मार दिया गया. इन हत्याओं और हमलों के बाद भी जो चुप्पी छाई हुई थी, उसने मुझे झिंझोड़ कर रख दिया. इन सब घटनाओं को लेकर साहित्य अकादमी की उदासीनता भी निराश करने वाली रही. मुझे ऐसा लगा कि इन सब खतरों को लेकर एक संदेश देने की जरूरत है. मैंने वही किया जो मुझे करना चाहिए था. मैं सिर्फ साहित्य समाज को ही नहीं, बल्कि अकादमिक संस्थानों को भी एक संदेश देना चाहता था.

मेरे पुरस्कार वापस करने के बाद आपातकाल का मुखर विरोध करने वाली साहसी लेखिका नयनतारा सहगल और वरिष्ठ साहित्यकार अशोक वाजपेयी ने भी उन्हीं कारणों से अपने पुरस्कार लौटाए और अब बड़ी संख्या में लेखकों ने अपने पुरस्कार लौटाने की घोषणा कर दी है और आगे भी करेंगे. जाहिर है कि मेरा फैसला गलत नहीं था. इस समाज में लेखकों को अकेला छोड़ दिया गया है. लेखक ऐसी संस्था का पुरस्कार लेकर करेगा भी क्या जो अपने द्वारा पुरस्कृत लेखक की मौत पर भी चुप रहे?

इस समय देश में 1947 के पहले वाला सांप्रदायिकता का खेल खेला जा रहा है. जाति,  समुदाय, धर्म आदि के बीच फूट डाली जा रही है. लोगों को बांटकर वोट बटोरने और सत्ता तक पहुंचने का गंदा खेल देश पर सबसे बड़ा खतरा है. ऐसा नहीं है कि यह सब आज शुरू हुआ है, यह कांग्रेस के समय भी था, लेकिन जिस रूप में आज यह हमारे सामने है, वह बेहद भयावह है. पिछले दो तीन सालों से लेखकों, बुद्धिजीवियों और कार्यकर्ताओं पर हमले बढ़े हैं और अब तो अति हो गई. अब उनकी हत्याएं हो रही हैं. उन्हें शर्मसार करने या उन पर आरोप लगाने, अफवाह फैलाने जैसी हरकतें हो रही हैं. इन सबका विरोध करना जरूरी है.

जब प्रो. एमएम कलबुर्गी की हत्या हुई, उस समय मैं अपने गांव में था. पांच दिन से बिजली नहीं थी. चार सितंबर को मैं गांव के पास एक ढाबे पर गया, वहां पर अपना मोबाइल चार्ज किया और फेसबुक खोला तो पता चला कि कलबुर्गी की हत्या कर दी गई है. यह घटना बेहद डरावनी और विचलित करने वाली थी. हत्या हुए पांच दिन हो गया था, लेकिन उन्हें पुरस्कृत करने वाली साहित्य अकादमी ने भी तब तक कोई कदम नहीं उठाया था. आप लेखक को सम्मानित तो करते हैं, लेकिन वह निहायत ही अकेलेपन में जीता है. उसकी मौत पर भी उसके साथ कोई नहीं है. उस वक्त के दुख और भय की वजह से मैंने वहीं से यह घोषणा की कि मैं यह पुरस्कार लौटा रहा हूं.

भारत सरकार कहती है कि हम 2017 तक महाशक्ति हो जाएंगे और अर्थव्यवस्था एवं विकास के मामले में चीन को पीछे छोड़ देंगे. लेकिन आप गांवों में जाइए, तो हालात बदतर हैं. बाजारवाद ने गांवों में सिर्फ अपराध और भ्रष्टाचार पहुंचाया है. विकास के दावों की हवा मात्र डेढ़ साल में ही निकल गई. वहां घोर गरीबी और अशिक्षा है. इन सबने लोगों में सिर्फ अति संवेदनशीलता भर दी है. अब अफवाहें फैलाकर उसका फायदा उठाया जा रहा है.

आप देखेंगे कि साहित्य अकादमी, ललित कला अकादमी, एफटीआईआई आदि संस्थाएं आजादी के बाद बनाई गई थीं. लंबे प्रयास के बाद इनमें एक परंपरा कायम हुई. जवाहर लाल नेहरू प्रधानमंत्री के रूप में ऐसे शख्स थे, जिनके देश में और विदेश में तमाम लेखकों कलाकारों से निजी रिश्ते थे. वे कला और साहित्य के महत्व और सरोकार समझते थे. अब इन संस्थाओं में चुन-चुन कर ऐसे लोगों को बिठाया जा रहा है, जो इसे नष्ट कर दें. शिक्षा, इतिहास, कला, साहित्य के संस्थानों को मिटाने का बाकायदा अभियान चलाया जा रहा है. पिछले सालों में वेंडी डोनिगर समेत कई लेखकों की किताबें प्रतिबंधित करना और लेखकों को प्रताड़ित करना इसी अभियान का हिस्सा था. हालत यह है कि आज यदि कोई लेखक प्रचलित धारणाओं और विचारों के खिलाफ अपने विचार व्यक्त करता है, तो उस पर हमले किए जाएंगे, उसकी किताबें जलाई जाएंगी और उसे देशद्रोही घोषित किया जाएगा. मशहूर लेखक यूआर अनंतमूर्ति ने चुनावों से पहले प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को लेकर अपनी नापसंदगी जाहिर कर दी तो उनके खिलाफ पब्लिक ट्रायल किया गया, उन्हें अपमानित किया गया. उनके साथ ऐसा व्यवहार हुआ जैसे वे गंभीर किस्म के अपराधी हैं, उन्हें पाकिस्तान भेज दिए जाने की धमकी दी गई. यह सब बेहद स्तब्ध करने वाला है.

जो चीजें अभी तक इस समाज की अच्छाइयां थी, उनका मजाक बनाया जा रहा है. बौद्धिकता को हाशिये पर किया जा रहा है. धर्मनिरपेक्ष, वामपंथ, समाजवाद, लोकतंत्र आदि शब्द गाली की तरह इस्तेमाल किए जा रहे हैं. यानी नेहरू की विरासत पर व्यवस्थित तरीके से हमले हो रहे हैं. इस देश की लोकतांत्रिक परंपरा पर ऐसे हमले कभी नहीं हुए. राम मनोहर लोहिया नेहरू के आलोचक थे, पर वे इस तरह के हमले के बारे में सोच नहीं सकते थे. अटल बिहारी वाजपेयी ने भी नेहरू को लेकर ऐसे हमले कभी नहीं किए. उनके समय में यह भाषा भी नहीं इस्तेमाल हुई थी जो आजकल विरोधियों या आलोचकों के लिए इस्तेमाल हो रही है.

एक देश के रूप में भारत में ऐसा कभी नहीं था कि लोकतांत्रिक मूल्यों को हतोत्साहित किया जाए. भारत हमेशा से विचारों के लिए एक लोकतांत्रिक स्पेस आजादी कराने वाला देश रहा है. हमने उन लेखकों को भी प्रश्रय दिया जो अपने देशों से बाहर किए गए. तस्लीमा नसरीन और सलमान रुश्दी जैसे लेखकों को यहां जगह दी गई और उनके अभिव्यक्ति के अधिकार और विचारों की रक्षा की गई.

एक समय था जब हमारे लेखकों का सम्मान होता था, उनकी एक गरिमा थी. लेकिन आज अगर आप राजनीतिक, सांस्कृतिक या सामाजिक मसलों पर तार्किक आलोचना करते हैं, तो लोग उसे बर्दाश्त नहीं करते. वे हिंसात्मक होकर आपको प्रताड़ित करते हैं. हर चीज का सांप्रदायिकरण हो रहा है, कला जगत भी इससे अछूता नहीं है. अब हालात पाकिस्तान या बांग्लादेश जैसे हो चुके हैं. बांग्लादेश में भी कट्टरपंथियों द्वारा लेखकों की हत्या कर दी जाती है.

इस सांस्कृतिक-सामाजिक पतन के लिए मौजूदा सरकार जिम्मेदार है. नेतृत्व की ओर से लोगों को कोई ऐसा संदेश नहीं दिया जा रहा है कि वे सहिष्णु हो सकें. हर घटना पर, हर चीज पर बोलने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हालिया घटनाओं पर मौन हैं, चाहे वह लेखकों की हत्या का मामला हो या फिर दादरी में घटी जघन्य घटना. अपराधियों को सुरक्षा देने वाले देश में लेखकों की हालत यह  है कि कोई भी आकर उन्हें मार सकता है. लेखक अकेलेपन में जी रहा है.

रवींद्र नाथ टैगोर ने कहा था, ‘हम मानवता का महासागर हैं.’ हमारे पास एक महान विरासत है. तमाम भाषाएं, संस्कृतियां हैं, लोगों की अपनी आदतें और पसंद-नापसंद है. हम इन सब विभिन्नताओं के बावजूद एक साथ रहते हैं. इस सहिष्णुता के कारण ही हमारे पास महान विरासत है. अब उसी सहिष्णुता पर हमले किए जा रहे हैं. हालांकि, इन सबके बावजूद, मेरा अब तक यह विश्वास है कि भारत की जनता असहिष्णुता बर्दाश्त नहीं करेगी. वह उन प्रवृत्तियों को नकार देगी, जो हमारी परंपरा को चोट पहुंचाती हैं.

(कृष्णकांत से बातचीत पर आधारित)