नर्क बना नेपाल

ड्राइवर अनिल यादव बताते हैं, ‘हमें सीमा के दोनों ओर हर 100 मीटर पर रिश्वत देनी पड़ती है.’ हालांकि कस्टम अधिकारी रिश्वत लेने के आरोप को नकारते हैं. आरके सिंह कहते हैं, ‘आप मुझे एक ड्राइवर दिखा दीजिए जो कह दे कि हम रिश्वत लेते हैं फिर आप जो चाहेंगे मैं वो करने को तैयार हूं.’ एक ड्राइवर बताते हैं, ‘जब कुछ ड्राइवरों ने नेपाल में प्रवेश करने की कोशिश की तो उन्हें पीटा गया और उनके लाइसेंस जब्त कर लिए गए. एक एजेंट परसों मेरे कागज ले गया था जो अब तक नहीं लौटाए गए हैं.’ जब हमने एक निजी एजेंट नरेंद्र चौधरी से बात करने की कोशिश की तो उसने हमें दूसरे अधिकारियों के पास जाने को कहा.

‘नेपाल की 60 प्रतिशत दवाएं भारत से आती हैं. ऐसे में जीवनरक्षक दवाओं और वैक्सीन की कमी सर्दी के मौसम में बच्चों के लिए घातक साबित हो सकती है’

नेपाल एक नेतृत्वविहीन समाज है. ये तब तक कोई समस्या नहीं थी जब तक माओवादी नेता प्रचंड ने विद्रोह का बिगुल नहीं बजाया था. इस बगावत के उभार के समय नेपाल के 80 फीसदी हिस्से पर माओवादी शासन था. कानूनी सरकार के अधिकार बस काठमांडू और पोखरा तक ही सीमित थे. माओवादियों का अपना संविधान था, अपने कानून और ‘जनता की सरकार’. वे स्कूल चलाते थे, डाक व्यवस्थाएं देखते थे, विदेशी और घरेलू व्यापार पर कर वसूलते थे. 2006 में, संयुक्त राष्ट्र (यूएन) की मध्यस्थता के बाद माओवादी आगे आए और सात दलों के गठबंधन वाली सरकार के साथ एक शांति समझौता करने पर राजी हुए. तबसे माओवादी नेतृत्व द्वारा उठाया गया हर कदम बस उनके अस्तित्व को बचाए रखने के लिए है. नेपाल की यूनाइटेड कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी) के एक सदस्य कहते हैं, ‘नेतृत्व की सोच को हेग (यूएन का मुख्यालय) ने खासा प्रभावित किया है. उन्हें डर है कि बगावत के समय मानवाधिकारों के हनन को लेकर उन पर मुकदमा चलाया जा सकता है. इसी कारण वे लोगों से साफ बात कर पाने में असमर्थ हैं.’

माओवादियों का ये डर बेबुनियाद नहीं है. नवंबर 2015 में जेनेवा में हुई संयुक्त राष्ट्र की बैठक में नेपाल सरकार ने भारत द्वारा की गई नाकेबंदी का मुद्दा उठाने की कोशिश की थी, जिसके प्रतिरोध में भारत सरकार ने हिंसक विरोध करने वालों को सजा देने की बात कही. जिस पर दिसंबर में, दिल्ली में हुई एक पत्रकार वार्ता में नेपाल के फोरम फॉर द प्रोटेक्शन ऑफ ह्यूमन राइट्स के प्रमोद काफले ने कहा, ‘अब भारत एक लोकतांत्रिक शक्ति को सजा देना चाहता है.’ जब मैंने यूनाइटेड कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी) के एक सदस्य से पूछा कि वे अपने नेताओं के इस नाकाबंदी पर कड़े स्वर में न बोलने पर क्या राय रखते हैं तो उन्होंने कहा, ‘आईफोन, महंगे गैजेट्स, लैपटॉप, रंगबिरंगी वेशभूषा से उसे छला जा सकता है, जो कुछ जानता न हो. नेपाल वास्तव में एक अर्द्ध-आधुनिक समाज है जहां आज भी जीवन बचाने यानी सर्वाइवल को किसी भी और चीज से ऊपर रखा जाता है. लोगों को प्रचंड या किसी और की कोई परवाह नहीं है. उनके ऊपर आई मुसीबतों के लिए वे अपनी किस्मत को ही कोसते हैं.’

इस बीच बेतिया (बिहार) के अंजनी कुमार को जल्दी पैसे कमाने का एक जरिया मिल गया है. वो नेपाल में डीजल की तस्करी कर रहे हैं. बिहार में डीजल का दाम लगभग 50 रुपये प्रति लीटर है, जिसे वे काठमांडू में लगभग 250 रुपये नेपाली (भारतीय मुद्रा में करीब 160 रुपये) में बेच रहे हैं. जब हम काठमांडू छोड़ रहे थे, उसने कलंकी बस स्टॉप के एक छोटे से रेस्तरां में हमें पहचान लिया. उसने बताया कि इस यात्रा में उसने 15 हजार रुपये कमाए हैं. ये बताने के बाद कि वो एक नेपाली नागरिक है, उसने हमें आधार कार्ड की पर्ची भी दिखाई. ‘मेरे पिता चाहते थे कि मैं ये भी बनवा लूं. जिस तरह के काम मैं करता हूं, उसमें नेपाल की नागरिकता के साथ भारतीय पहचान पत्र होना भी बहुत जरूरी है.’ जब हमने चेताया कि ये गैरकानूनी हो सकता है तो उसने तुरंत कहा, ‘कई लोग ऐसा करते हैं.’

इस वक्त चल रहे मधेसी आंदोलन की एक महत्वपूर्ण मांग देशीयकृत नागरिकता या दत्तक नागरिकता से जुड़ी है. नए संविधान के अनुसार दत्तक नागरिक किसी बड़े सरकारी पद पर नहीं रह सकते. मधेसी नेताओं को डर है कि यह अनुछेद अस्पष्ट है और इसके अनुसार मधेसी मूल के किसी भी नेपाली नागरिक को किसी संवैधानिक पद के लिए अयोग्य साबित किया जा सकता है. वहीं दूसरी तरफ गैर-मधेसी नेताओं का मानना है कि इस अनुच्छेद में नरमी करना भविष्य में नेपाल के हित में नहीं होगा. नेपाल में मधेसियों के प्रति कोई भेदभाव नहीं है, ये साबित करने के लिए इस समय सत्तारूढ़ यूनिफाइड लेनिनिस्ट-मार्कसिस्ट पार्टी (यूएलएम) के कार्यकर्ता दीनानाथ खनल नारायणघाट में बताते हैं कि नेपाल के पहले राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति भारतीय मूल के ही थे. वे कहते हैं, ‘राजतंत्र जाने के बाद सरकार और अन्य क्षेत्रों में मधेसियों का प्रतिनिधित्व बढ़ा है. हां, अब भी बहुत सी समस्याएं हैं, पर उन्हें धीरे-धीरे बातचीत के द्वारा सुलझाया जा सकता है.’

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नाकाबंदीः भारत की ओर से ये नाकाबंदी पहली बार नहीं की गई है. 1989 में भी भारत ने तकरीबन सालभर तक नाकाबंदी की थी

हालिया एक घटना ने भी भारत की छवि को गलत तरीके से सामने रखा है. भारत और चीन के बीच 15 मई को हुए लिपू-लेख व्यापारिक समझौते पर नेपाल में कड़ा विरोध जताया गया. लिपू-लेख दर्रा नेपाल चीन और भारत, तीनों की सीमा से सटा इलाका है, जो पश्चिमी नेपाल के कालापानी में आने वाला विवादित क्षेत्र है. नेपाल की संसदीय समिति ने अपने दोनों पड़ोसियों के बीच, नेपाल के सहमति के बिना हुए इस समझौते को अंतर्राष्ट्रीय मानकों के विरुद्ध बताया है. इस मुद्दे पर सबसे ज्यादा विरोध प्रचंड की यूनाइटेड कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी) की ओर से हुआ. इसने भारत और चीन दोनों को ही इस समझौते को रद्द करने के लिए पत्र भी लिखे थे.

हमेशा से भारत का प्रयास इस पार्टी को सत्ता से बाहर रखने का रहा है. यहां तक कि संविधान बनने के बाद नेपाल में सरकार बनाने को लेकर तीनों बड़े राजनीतिक दलों के बीच आपसी समझ को भी तोड़ने को कोशिश की गई थी. तीनों दलों में ये सहमति बहुत पहले से ही बन चुकी थी कि संविधान आने के बाद संसदीय चुनावों तक सुशील कोइराला की जगह केपी ओली प्रधानमंत्री बनेंगे. आखिरी वक्त पर सुशील कोइराला ने इस बात का विरोध किया पर अपनी ही पार्टी के नेताओं के दबाव में उन्हें इस्तीफा देना पड़ा. तब भारत ने अपना आखिरी दांव खेला, उसने नेपाल में जरूरी सामान और ईंधन की आपूर्ति पर रोक लगा दी.

काठमांडू और पोखरा जैसे शहर पूरी तरह से पर्यटन पर निर्भर हैं. पर इस साल यहां बमुश्किल ही पर्यटक दिखाई दे रहे हैं. काठमांडू में बिताए दो दिनों में हमने शायद ही वहां कोई विदेशी पर्यटक देखा हो. सुनधारा के चाइना बाजार में जूतों की दुकान चलाने वाले युबराज घिमिरे का दावा है कि इस साल नेपाल आने पर्यटकों की संख्या में 50 प्रतिशत से ज्यादा गिरावट आई है. दिसंबर में ‘पीक सीजन’ के कारण उन्हें अच्छा बिजनेस होने की उम्मीद थी पर पर्यटक हैं ही नहीं. वे कहते हैं, ‘जो यहां आने की हिम्मत कर भी रहे हैं, वो यहां अभाव की स्थितियों के कारण ज्यादा समय तक नहीं रुक रहे हैं.’ उनकी इस बात की पुष्टि हमारी स्थिति ही कर देती है. हमने काठमांडू में तीन दिन रुकने की सोची थी पर हमारे रिकॉर्डर चार्ज नहीं थे, मोबाइल फोन और कैमरे में बैटरी नहीं थी इसलिए हम वहां दो दिन भी नहीं रुक सके. युबराज बताते हैं, ‘पर्यटक यहां आराम करने आते हैं, पर इस समय जो स्थितियां हैं उसमें वे यहां आने से बच रहे हैं.’ पिछले साल इस समय उन्होंने हर दिन 50 से 60 हजार तक के जूते बेचे थे पर इस बार बिक्री 10 से 15 हजार पर आ गई है.

न्यू रोड ट्रेड फेडरेशन के महेंद्र नौपाने बताते हैं, ‘ज्यादातर पर्यटक भारत के रास्ते ही नेपाल आते हैं, पर सीमा पर चल रही अशांति के चलते कोई नेपाल आने का साहस ही नहीं कर पा रहा है.’ इस फेडरेशन में लगभग 600 सदस्य हैं. वे सभी उम्मीद करते हैं कि सीमा पर ये नाकाबंदी जल्द ही खत्म होगी और चीजें पहले जैसी हो जाएंगी.

‘इस समय जो स्थितियां हैं उसमें पर्यटक नेपाल आने से बच रहे हैं. इस साल यहां आने पर्यटकों की संख्या में 50 प्रतिशत से ज्यादा गिरावट आई है’

स्मृति सेंट मैरी स्कूल की नवीं कक्षा में पढ़ती हैं. वो बताती हैं, ‘स्कूल जाना मुश्किल हो गया है. बसें बुरी तरह भरी हुई हैं. लोग बसों की छतों पर बैठ कर सफर करने को मजबूर हैं. हमारी पढ़ाई इससे बुरी तरह से प्रभावित हो रही है.’ वर्तमान स्थिति पर यूनिसेफ ने चेताया है कि नेपाल में 2 लाख से ज्यादा भूकंप प्रभावित परिवार अब भी अस्थायी घरों में रह रहे हैं और जरूरी सामान और दवाइयों के इस अभाव की सबसे बुरी मार उन्हीं पर होगी. यूनिसेफ का कहना है, ‘नेपाल की 60 प्रतिशत दवाएं भारत से आती हैं. ऐसे में जीवनरक्षक दवाओं और वैक्सीन की कमी सर्दी के इस मौसम में बच्चों के लिए घातक साबित हो सकती है.’

नेपाल में चल रहे संकट की सबसे बड़ी शिकार नेपाली महिलाएं हैं. ग्लोबल रिस्क इनसाइट्स की एक रिपोर्ट कहती है, ‘संकट (खासकर प्राकृतिक आपदा या आर्थिक मंदी) के समय महिलाएं और बच्चे सबसे ज्यादा जोखिम में होते हैं. महिलाओं पर वैसे ही बाहर के काम, बच्चों की देखभाल, पानी की व्यवस्था और घरेलू कामों जैसी कई जिम्मेदारियां हैं, वे इस समय अपना ज्यादा समय जलाने के लिए लकड़ी ढूंढने और कुकिंग गैस के लिए लगी लंबी कतारों में बिता रही हैं. ईंधन की इस कमी का बोझ सबसे ज्यादा नेपाली महिलाओं पर ही पड़ा है, चाहे वो शारीरिक हो या मानसिक.’

वैसे ये पहली बार नहीं है जब भारत की ओर से ऐसा कोई प्रतिबंध लगाया गया है. 1989 में भी भारत ने तकरीबन साल भर के लिए सीमा पर नाकाबंदी की थी, पर उस समय लोग भारत से आने वाले ईंधन पर इतने निर्भर नहीं थे. लोगों ने जल्दी ही उस मुसीबत की घड़ी को भुला भी दिया था पर अब ऐसा नहीं हो पाएगा. आज के सोशल मीडिया और स्मार्टफोन के युग में युवा इस मुद्दे को लेकर बेहद संवेदनशील हैं. उनके दिलों में भारत-विरोधी भावनाएं घर कर गई हैं, जिन्हें निकट भविष्य में मिटा पाना मुश्किल होगा. पशुपतिनाथ मंदिर के रहवासी मनोज भट्ट कहते भी हैं, ‘हम इस समय को कभी नहीं भूल पाएंगे.’