ग्राम स्वराज का काला सच

हालांकि महिलाओं का लगातार चुने जाते रहने का फायदा आगामी समय में मिलेगा. ऐसी उम्मीद ज्यादातर राजनीतिक विश्लेषकों को है. शीतला सिंह कहते हैं, ‘महिलाओं का चुना जाना एक लोकतंत्र के लिए सुखद है. हमें एक बात तो माननी पड़ेगी कि उनकी स्वीकार्यता बढ़ रही है. पुरुषों के वर्चस्व को महिलाएं अब चुनौती दे रही हैं, यह बात उन्हें पच नहीं रही है. इसलिए वो प्रधान पति, प्रमुख पति और अध्यक्ष पति जैसे पदों को सृजित कर रहे हैं. लंबे समय से शक्ति पर पुरुष ही कब्जा जमाए बैठे रहे हैं, ऐसे में जब ​शक्ति का लैंगिक आधार पर बंटवारा होगा तो वह उसे रोकने की कोशिश करेंगे. लेकिन जैसे-जैसे महिलाएं आर्थिक रूप से सशक्त होंगी, वे शक्ति का नियंत्रण भी करेंगी और अपने फैसले खुद लेंगी. बड़ी संख्या में उनका चुना जाना इस तरफ बढ़ा पहला कदम है.’

चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार नवनिर्वाचित ग्राम प्रधानों में से 78 फीसदी लखपति हैं. इनके पास पांच लाख से अधिक की चल या अचल संपत्ति है

इस मामले में एक और चौंकाने वाला पहलू यह है कि अगर महिलाओं में सवर्ण और गैर-सवर्ण जातियों को देखें तो अभी गांवों में सवर्ण महिलाओं को वह आजादी नहीं हासिल है जो गैर-सवर्ण जातियों की महिलाओं को मिली है. अरुण त्रिपाठी कहते हैं, ‘महिलाएं इतनी बड़ी संख्या में जीती भले हैं, लेकिन अगर ध्यान से देंखे तो वे चुनाव की इस पूरी प्रक्रिया में ज्यादा जुड़ी ही नहीं थी. वे न तो मतदाताओं से संपर्क कर रही थी और न ही कहीं बैठकों में नजर आ रही थीं. उनके स्थान पर मोर्चा घर के पुरुष संभाले हुए थे. हालांकि गैर-सवर्ण जातियों के हिसाब से देंखे तो महिलाओं के लिए यह सुखद है. उनके घर की महिलाएं ज्यादा बाहर निकलती हैं. वे ज्यादा स्वतंत्रता के साथ फैसले लेती हैं. हालांकि वास्तविकता यही है कि महिलाओं के सशक्तिकरण के बहाने ग्रामीण अभिजात्य वर्ग ने खुद को सशक्त बनाया है. कुल मिलाकर ग्राम स्वराज को ये स्वरूप चिंता उत्पन्न करता है. जिस तरह से प्रधान चुने जा रहे हैं वह सत्ता के केंद्रीकरण का ही एक रूप है. इसमें विकेंद्रीकरण जैसा कुछ भी नहीं हैं.’

इसके अलावा दलितों के लिए आरक्षित सीटों पर कई जगह सवर्ण जातियों के दबंगों द्वारा डमी उम्मीदवारों के जिताने का मामला सामने आया है. चुनाव परिणाम आने के दिन उत्तर प्रदेश के फैजाबाद के रहने वाले अभिषेक सिंह ने फेसबु​क पर लिखा था, ‘हमारे गांव में प्रधानी की सीट दलितों के लिए आरक्षित थी. चुनाव में जीत भी दलित ने हासिल की. लेकिन लोग बधाई गांव के ही एक दबंग को दे रहे हैं. उसी को माला पहना रहे हैं और मिठाई खिला रहे हैं. यहां तक कि डीजे भी उन्हीं के घर बज रहा है. धन्य हो लोकतंत्र.’

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पंचायती राज में उत्तर प्रदेश सबसे घटिया राज्य

 

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उत्तर प्रदेश में कोई पंचायत राज नहीं है, वहां सरपंच राज है. जब तक हम पंचायत राज को पूरे मायने में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के सोच के हिसाब से निचले स्तर पर नहीं लाते हैं और संरपच राज जारी रखते हैं, तब तक आपको गुंडाराज मिलेगा. पंचायत राज में सबसे घटिया राज्य उत्तर प्रदेश है. आप बिहार का उदाहरण ले लीजिए एक समय वहां भी यही सब हो रहा था, लेकिन नीतीश कुमार के आने के बाद हालात बदल गए हैं. अब वहां की पंचायतें उत्तर प्रदेश से बेहतर हैं. आप दक्षिण की तरफ चले जाएं केरल या कर्नाटक में वहां ऐसा बिल्कुल नहीं होता है. दरअसल, पहले आप पंचायतों को सशक्त बनाएं, फिर आप देखें  कि यह पंचायत राज हो ना कि संरपच राज. मतलब जो दस-पंद्रह लोग चुन कर आते हैं, वो सब बैठकर तय करें, कि क्या होना चाहिए क्या नहीं. फिर वह अपनी जवाबदेही तय करें.जब तक कि ग्राम सभा गठित न हो और सही तरीके से काम न करे, तब तक पंचायत राज संभव ही नहीं है. पंचायती राज के तीन नहीं चार स्तर होते हैं. ग्राम सभा पहले फिर ग्राम पंचायत और बाद में ब्लाक व जिला पंचायत. अब आप सिक्किम या हिमाचल प्रदेश जैस्ो राज्य का उदाहरण लें. वहां कोई भी अपराध, गुंडागर्दी की कहानियां चुनाव के दौरान सामने नहीं आती है.

 

मणिशंकर अय्यर, पूर्व पंचायती राज मंत्री [/box]

हालांकि इस बार पंचायत चुनाव में पूरे प्रदेश में 19 पीएचडी धारक युवा प्रधान बनकर आए हैं. कुल जीते युवा प्रधानों का प्रतिशत 35 रहा. देश में प्रधानी को लेकर चली आ रही पुरानी परिपाटी को तोड़ने की वास्तविक चुनौती नए लोगों के सामने ही है. नए लोगों का जीतकर आगे आना निश्चय ही नया बदलाव और नई उम्मीद जगा रहा है. इस पूरे पंचायत चुनावों पर बद्री नारायण कहते हैं, ‘भारतीय लोकतंत्र के प्रसार का रास्ता काफी उलझन भरा और जटिल है. एक तरफ उच्च लोकतांत्रिक नैतिकता है, तो दूसरी तरफ व्यावहारिक राजनीतिक दबाव. एक ओर निर्बल तक पहुंचने का लक्ष्य है, तो दूसरी तरफ शक्तिवानों का लगातार लोकतांत्रिक स्पेस में सबल होते जाना. एक ओर जनतंत्र के साथ राजनीतिक चेतना का प्रसार है, तो दूसरी ओर हिंसा और भ्रष्टाचार का आधार तल की जनतांत्रिक प्रक्रियाओं में फैलते जाना. इन्हीं अंतर्विरोधों के बीच से भारतीय लोकतंत्र को आगे बढ़ने और जड़ें जमाने का रास्ता बनाना है.’