हालांकि, रमाशंकर इन नए गठजोड़ को लेकर आशान्वित हैं. वे कहते हैं, ‘एक तरफ आंबेडकर हैं जो सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और राजनीतिक संदर्भों में इस विचार को आगे बढ़ाते हैं कि लोकतंत्र से ही वंचना और बहिष्करण से मुक्ति मिलेगी, बराबरी और अधिकार से ही दुनिया समान होगी. तो दूसरे छोर पर मार्क्स हैं जो पूंजी और समाज के रिश्ते को समझाकर उसे आम जनता के पक्ष में लाना चाहते हैं. मार्क्स और आंबेडकर के अनुयायी समाज को आमूलचूल बदलना तो चाहते रहे हैं लेकिन वे ऐसी किसी दृष्टि का विकास करने में असफल रहे जो एक वैकल्पिक राजनीतिक समाज बना सके जिसमें दलित, मजदूर, स्त्री, अल्पसंख्यक का शोषण न हो. अब एक ऐसा समय है कि जहां युवा, किसान, मजदूर, दलित, स्त्री और अल्पसंख्यक नवपूंजीवादी ब्राह्मणवादी सत्ताओं से दबाए जा रहे हैं और यही समूह इतिहास को एक नए रास्ते पर ले जाना चाहता है. जब रोजगार के अवसर सीमित हो रहे हैं, सरकारें अपनी सामाजिक और संवैधानिक जिम्मेदारियों से पीछे हटना चाह रही हों और उन्हें फासीवादी पूंजीवाद का सहारा मिल रहा हो तो आंबेडकर और मार्क्स की गतिकी से एक मदद मिल सकती है.’
दूसरी ओर आंबेडकर को अपनाने लेने के लिए मचे सियासी हड़कंप पर भी सवाल उठ रहे हैं. पत्रकार अजय प्रकाश ने अपनी फेसबुक वॉल पर लिखा, ‘देश के आखिरी आदमी के नेता आंबेडकर की इतनी ऊंची बोली पहली बार लगी है. जिसे देखो वही आंबेडकर को अपनी ओर घसीट रहा है. समझ में नहीं आ रहा कि राजनीतिक पार्टियों का यह हृदय परिवर्तन उनको बाजार में नीलाम करने के लिए है या फिर मंशा कुछ और है. ऐसे में मैं इस आशंका से उबरने के लिए एक जानकारी चाहता हूं कि क्या आप 6 लाख गांवों के इस देश में ऐसे छह गांव भी जानते हैं जहां दलितों के साथ भेदभाव और छुआछूत नहीं होती? छह छोड़िए, एक ही बता दीजिए. अगर नहीं तो आंबेडकर को अपने-अपने पाले में घसीटना छोड़कर पहले एक ऐसा गांव बनाइए और भरोसा रखिए वहां आंबेडकर खुद चलकर आ जाएंगे. आपको खुद के आंबेडकरवादी होने की बांग नहीं देनी पड़ेगी.’
वामपंथ और आंबेडकरवाद के बीच कोई सियासी सामंजस्य हो सकता है या नहीं, भविष्य में राजनीतिक मोर्चा जैसी कोई संभावना हो सकती है या नहीं, इस सवाल पर पत्रकार और जेएनयू के शोध छात्र दिलीप मंडल कहते हैं, ‘दलित आंदोलन की तरफ से मार्क्सवाद की तरफ कोई हाथ बढ़ाया गया हो, इसके मुझे कोई संकेत नहीं दिखे हैं. मार्क्सवादी पार्टी के रहते हुए आंबेडकर ने अपनी पार्टी बनाई थी. उसकी जरूरत महसूस की थी. उनके लिए जाति का सवाल बहुत जरूरी था, सामाजिक लोकतांत्रिक समाज बने, यह सवाल बहुत जरूरी था. चूंकि लेफ्ट ने इस इश्यू को सीधे-सीधे कन्फ्रंट नहीं किया, इसलिए इस पार्टी की जरूरत महसूस की गई थी. आप कांशीराम को देखेंगे तो उन्होंने भी एक प्रयोग किया. वाम पार्टियों के रहते हुए भी आंबेडकरवादी आंदोलन का स्पेस था और लोगों ने अपने ढंग से काम करने की कोशिश की. नई चीज जो हुई है कि लेफ्ट ने पहली बार, अपने हाशिये पर चले जाने के दौर में, ये कोशिश की है कि जाति के सवाल को एड्रेस करें. पहली बार उन्होंने जातियों के सवाल पर सम्मेलन किए. पार्टी का ढांचा बदलने की बात की, हालांकि अभी तक हुआ ऐसा कुछ नहीं है कि जो सवर्ण वर्चस्व था पार्टी में उसको तोड़ने की कोशिश की हो. कुल मिलाकर एक नई प्रक्रिया शुरू हुई है. मुझे लगता है कि इस पर नजर रखनी चाहिए कि चीजें कहां तक जाती हैं. अभी यह दोतरफा प्रक्रिया नहीं है. उधर से चार कदम आगे बढ़े तो इधर से एक कदम कोई बढ़ाए, ऐसा मुझे नहीं दिखता. कैंपसों में जरूर वाम और आंबेडकरवादियों के बीच एक सिंथेसिस बना है, लेकिन कैंपस में वाम पर दलित लोग बहुत भरोसा कर रहे हैं, ऐसा लगता नहीं है.’

आजादी की लड़ाई के समय से ही आंबेडकर की अपनी अलग लड़ाई रही थी, क्योंकि वे जातीय शोषण और भारतीय समाज की विषमता को खत्म किए बगैर दलित समाज की मुक्ति को असंभव मान रहे थे. इसलिए मार्क्सवाद से भी उनकी दूरी बनी रही. मार्क्सवादी रुझान के दलित लेखकों को यह उम्मीद है कि अगर मार्क्सवादी अपने विचारों और संगठनों में कुछ संशोधनों के साथ दलितों को जगह दें तो दोनों मिलकर बेहतर राजनीतिक विकल्प बन सकते हैं. लेखक कंवल भारती कहते हैं, ‘मार्क्सवादियों ने आंबेडकर के जमाने में उनको नकार दिया था, लेकिन आज उनको स्वीकार करने के लिए विवश हो रहे हैं वोट की राजनीति की वजह से. आंबेडकर ने तो जब लेबर पार्टी बनाई थी, उस समय कहा था कि जितनी भी सोशलिस्ट ताकतें हैं, वे सब हमारे साथ आ जाएं और मिलकर एक जॉइंट फ्रंट बनाएं. लेकिन उस समय तक कोई भी उनके साथ खड़ा होने को तैयार नहीं था. आज से 20-25 साल पहले नंबूदरीपाद तक आंबेडकर को साम्राज्यवाद का पिट्ठू कह रहे थे. आज वही वामपंथी आंबेडकर के साथ आने को कह रहे हैं तो इसका मतलब है कि उन्होंने आंबेडकर को भारतीय संदर्भ में समझने की कोशिश की है. मैं तो शुरू से कहता हूं कि वामपंथी विचारधारा जब तक भारतीयकरण नहीं करेगी अपनी राजनीति का, तब तक वह इस देश में विकल्प नहीं बन सकती.’
राजनीतिक संभावनाओं के सवाल पर कंवल भारती कहते हैं, ‘बाबा साहब पूरे मार्क्सवादी थे, पूरे समाजवादी थे. वे चाहते थे कि सब समाजवादी ताकतें मिलकर संयुक्त मोर्चा बनाएं. अगर ऐसा हुआ होता तो सत्ता कांग्रेस के हाथ में आती ही नहीं. लेकिन ऐसी ताकतें कांग्रेस की पिछलग्गू थीं.’
वामपंथी बुद्धिजीवियों के बीच भी इस मसले पर बहस छिड़ चुकी है. मार्क्सवाद हर समस्या के मूल में वर्ग को देखता है तो आंबेडकरवाद जाति के सवाल के बिना आगे नहीं बढ़ता. हाल ही में बांदा में प्रकाश करात के बयान पर प्रतिक्रिया स्वरूप लेखक अरुण माहेश्वरी ने एक लेख में लिखा है, ‘मार्क्सवाद किसी भी संरचना के लक्षणों की, उसकी दरारों की पहचान कराता है. जाति से अगर वर्ग बनते हैं तो जातियों का अंत वर्ग का अंत नहीं हो सकता. यह एक संरचना का टूटना और उसकी जगह दूसरी संरचना का निर्माण है. इसीलिए कम्युनिस्टों ने जातिवाद के विरोध के साथ ही वर्ग संघर्ष पर हमेशा बिल्कुल सही बल दिया है. जातिवाद का खात्मा तो पूंजीवाद के विकास से भी होगा, लेकिन जातिवाद के अंत से पूंजीवाद का अंत नहीं होगा… आज जो लोग कम्युनिस्ट आंदोलन में आए गतिरोध के कारण जातिवाद के मसले के प्रति कम्युनिस्टों के नजरिये में किसी प्रकार के दोष में देख रहे हैं, वे पूरे विषय को सिर के बल खड़ा कर रहे हैं. कम्युनिस्ट आंदोलन को अपनी विफलता के कारण अपनी राजनीतिक कार्यनीति और सांगठनिक नीतियों की कमियों में खोजना चाहिए. मुश्किल यह है कि ऐसा करने पर पार्टियों के प्रभावी नेतृत्व की क्षमताओं पर सवाल उठने लगेंगे, जो कोई करना नहीं चाहता.’
वामपंथियों ने कभी सामाजिक प्रश्न पर विचार नहीं किया : अभय कुमार दुबे वामपंथी पार्टियों ने कभी सामाजिक प्रश्न पर पुनर्विचार नहीं किया. पार्टियों की जो लाइन तय की जाती है उसमें सामाजिक प्रश्न नहीं आए, जबकि आरएसएस इस पर व्यवस्थित तरीके से काम कर रहा है. वह वैदिक ज्ञान और आधुनिक संविधान में एक सूत्र स्थापित करने की कोशिश कर रहा है. वामपंथी सही सवाल क्यों नहीं उठा रहे? वे दलितों के सवाल से बचते क्यों हैं? दलितों के सवाल बड़े जटिल हैं, क्योंकि वे असुविधा पैदा करते हैं. कम्युनिस्ट पार्टियां दलित विमर्श और आंबेडकर के विचारों के जरिए अपना पुनर्संस्कार कर पाएं, इसके लिए तो उन्हें अपने विचारों में संशोधन करना चाहिए. सीपीआई एमएल ने थोड़ा-सा वर्ग से अलग हटकर दलित महासभा बनाने का भी प्रयोग किया था. लेकिन उनका प्रयोग दो महीने नहीं चला. ऐसा क्यों हुआ? ये सीपीआईएमएल वही पार्टी है जिसको, जब मैं दिल्ली आया था तब दिल्ली के वामपंथी सर्किल में चमार पार्टी कहा जाता था. तो ऐसी पार्टी जिसे गरीबों और भूमिहीन दलितों का समर्थन हासिल था, उसने दलित महासभा बनाई तो वह दो महीने भी नहीं चली. इसकी सीधी वजह यह है कि जब तक आप सिर्फ वर्ग के सवाल पर फंसे रहेंगे तब तक न तो जाति के सवाल पर गंभीरतापूर्वक सोचेंगे, न ही जेंडर के साथ गंभीरता से विचार कर पाएंगे. जो हो रहा है वह तो ऐतिहासिक है. मैं पिछले तीस सालों से राजनीति में दिलचस्पी रखता हूं, जो हो रहा है, ऐसा कभी नहीं देखा. लेकिन इसकी सीमा है कि ये छात्रों तक सीमित है. ये अभी कैंपस पॉलिटिक्स तक ही सीमित है. ज्यादा से ज्यादा बाहर जो कुछ बुद्धिजीवी वर्ग तक है, जो छात्रों के मुखातिब बहुत कम होता है. छात्रों में भी यह उन छात्रों तक सीमित है जिनमें से बहुत-से अब छात्र नहीं रहे. इस चीज का अगर हम लोग लाभ उठाना चाहते हैं और इस मुद्दे पर कोई ठोस और दीर्घकालिक राजनीति करना चाहते हैं, तो इस बारे में राजनीतिक दलों को सोचना पड़ेगा. जब तक राजनीतिक दल इस विषय पर नहीं सोचेंगे, तब तक यह मसला केवल लेखक संघों और छात्रसंघों द्वारा ही संचालित किया जा सकता है. और राजनीतिक दल कब सोचेंगे, कैसे सोचेंगे, ये मुझे नहीं पता. राजनीतिक दल अपनी सोच और अपनी स्थापित राजनीति बड़ी मुश्किल से बदलते हैं. उनको सामाजिक रूप से बहुत बड़ा धक्का लगता है तब वे अपनी रणनीति बदलते हैं. अभी मुझे नहीं लगता कि ऐसी स्थिति आई है कि वे इस दिशा में सोचें. इसका जो तुरंत राजनीतिक लाभ होगा, मुझे लगता है कि भाजपा रोहित वेमुला प्रकरण से पहले परमानेंट एलेक्टोरल बैलेट डेफिसिट के साथ आती थी और वो था अल्पसंख्यकों का घाटा. उसके पास अल्पसंख्यकों का घाटे का खाता था. अगर स्थिति इसी तरह से आगे बढ़ती रही और भाजपा अपनी कुल्हाड़ी से अपने पैर काटने की कोशिश करती रही तो उसका एक दूसरा परमानेंट डेफिसिट का खाता खुल जाएगा, वह है दलितों का खाता. अब देखने की बात है कि आगे क्या होगा. (राजनीतिक विश्लेषक हैं. लेखक संगठनों के कार्यक्रम में दिए वक्तव्य के अंश)