होली खेले आसफुद्दौला वजीर…

मोरे कान्हा जो आए पलट के
अबके होली मैं खेलूंगी डट के
उनके पीछे मैं चुपके से जाके
ये गुलाल अपने तन से लगाके
रंग दूंगी उन्हें भी लिपट के
अबके होली मैं खेलूंगी डट के

वाजिद अली शाह की होली को लेकर लखनऊ में मशहूर किस्सों में एक किस्सा यह भी सुनाई देता है कि एक दफा मोहर्रम और होली एक ही दिन पड़ गए. पहले आप की तहजीब वाले लखनऊ में हिंदुओं ने फैसला किया कि इस बार वे होली नहीं मनाएंगे. जबकि मुसलमानों का मानना था कि जैसे मोहर्रम को हिंदू अपना ही त्योहार मानते हैं वैसे ही होली हम भी मनाते हैं इसलिए मोहर्रम की वजह से होली न टाली जाए, लिहाजा कोई और रास्ता निकलना चाहिए. वाजिद अली शाह ने एक ही दिन में होली खेले जाने का और मोहर्रम के मातम का अलग अलग वक्त तय किया. इस तरह पूरा लखनऊ होली और मोहर्रम दोनों में शरीक हुआ. ऐतिहासिक रूप से पता नहीं यह घटना कितनी सच्ची है, लेकिन अपनी मिली-जुली तहज़ीब में यकीन रखने वाला हर लखनवी इसे पूरे ईमान से तस्लीम (स्वीकार) करता है.

उर्दू के एक और बड़े शायर इंशा अल्लाह खां इंशा ने भी नवाब सादत अली खां के होली खेलने की तारीफ गद्य और शायरी दोनों में की है. इंशा लिखते हैं- ‘जो शख्स भी इस बात से गुमान करता है कि मैं उनकी खुशामद कर रहा हूं तो उसके लिए होली के जमाने में बिल-खुसूस हुजूर की खिदमत में हाजिर होना शर्त है कि वो खुद देख ले कि राजा इंद्र परियों के दरम्यान ज्यादा खुश मालूम होते हैं या वली अहद हूरों के दरम्यान.’ शायरी में होली का बयान इंशा इस तरह करते हैं-

संग होली में हुजूर अपने जो लावें हर रात
कन्हैया बनें और सर पे धर लेवें मुकट
गोपियां दौड़ पड़े ढ़ूंढें कदम की छैयां
बांसुरी धुन में दिखा देवें वही जमना तट
गागरे लेवें उठा और ये कहती जावें
देख तो होली जो बज्म होती है पनघट

लखनऊ में नवाबी उजड़ने के बाद भी मुसलमानों का होली खेलना और होली पर शायरी करना पहले की तरह ही जारी रहा. स्वतंत्रता सेनानी और अज़ीम शायर हसरत मोहानी जिनका रकाबगंज स्थित मज़ार आज पूरी तरह गुमनाम है, उन्होंने भी होली पर खूब शायरी की.

मोसे छेड़ करत नंदलाल
लिए ठाड़े अबीर गुलाल
ढीठ भई जिनकी बरजोरी
औरन पर रंग डाल डाल

शायरे इंकलाब जोश मलीहाबादी की शायरी भी होली के रंगों से सराबोर है, आम तौर पर अपनी नज़्मों और गजलों के लिए मशहूर जोश ने कई गीत भी लिखे हैं जिनमे होली का जिक्र मिलता है-

गोकुल बन में बरसा रंग
बाजा हर घर में मिरदंग
खुद से खुला हर इक जूड़ा
हर इक गोपी मुस्काई
हिरदै में बदरी छाई

अपने तंजो मिज़ाह (हास्य-व्यंग्य) के लिए मशहूर सागर खय्यामी और उनके भाई नाजिर खय्यामी भी होली की मस्ती के मतवाले थे. दोनों होली पर दोस्ताना महफिलें भी सजाते थे. सागर साहब की होली-ठिठोली मुलाहिजा हो-

छाई हैं हर इक सिम्त जो होली की बहारें
पिचकारियां ताने वो हसीनों की कतारें
हैं हाथ हिना रंग तो रंगीन फुवारें
इक दिल से भला आरती किस किस की उतारें
चंदन से बदन आबे गुले शोख से नम हैं
सौ दिल हों अगर पास तो इस बज्म से कम हैं

यहां तो लखनऊ के सिर्फ चंद मुसलमान शाइरों के होली के रंग में डूबे कलाम दिए गए हैं. वास्तव में इस शहर के अनगिनत मुस्लिम शायरों ने होली पर अपनी शायरी के जरिए न सिर्फ लखनऊ की होली की महानता बयान की है बल्कि पूरी दुनिया को धार्मिक सद्भाव का संदेश भी दिया है. नाजिर खय्यामी का यह पैगाम ही देखिए.

ईमां को ईमां से मिलाओ
इरफां को इरफां से मिलाओ
इंसां को इंसां से मिलाओ
गीता को कुरआं से मिलाओ
दैर-ओ-हरम में हो न जंग
होली खेलो हमरे संग!

4 COMMENTS

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  2. लखनऊ कि होली पर इस से बेहतर कभी नहीं पढ़ा …मुबारकबाद काय मुस्तहक़ हैं हिमांशु भाई …ग्रेट

  3. मुसलमानों को जाने-समझे बिना, उनसे बात किए बिना, केवल उनकी शक्ल देखकर राय इख्तियार कर लेने में हम अरसों से माहिर रहे हैं. हमारे मन में उन्हें लेकर कई पूर्वाग्रह हैं. “हम पूरब वो पश्चिम” जैसे मुहावरे भी हिन्दुओं के मुंह से सुनने को मिलेंगे. ये भी कि उनके मन में पाकिस्तान बसा है, हिन्दुस्तान नहीं. वो हमें काफिर समझते हैं वगैरह वगैरह. इस बार की होली मैंने तीन दोस्तों के साथ मनाई और तीनों के तीनों मुसलमान थे. मज़हब और संस्कृति दो अलग चीज़ें हैं. कोइ हिन्दू होकर भी ईद मना सकता है, और कोई मुस्लिम होकर दीवाली. हिमांशु भाई की यह रिपोर्ट नफ़रत फैलाने वाली साम्प्रदायिक ताकतों पर एक और करारी चोट है.

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