‘जीवन की जटिलता का प्रतीक है छंदमुक्त कविता’

फोटोः अंकित अमलतास
फोटोः अंकित अमलतास
फोटोः अंकित अमलतास

व्यक्तिगत जीवन में आप स्वयं को कितना आजाद या कितना बंधा हुआ महसूस करते हैं?
मैं व्यक्तिगत जीवन में निहायत बंधा हुआ इंसान हूं. इस अर्थ में बंधा हूं कि व्यक्तिगत, परिवारिक, सामाजिक बंधन के कारण न तो स्वाधीन जीवन, अपनी तरह का जीवन जी सका और इसका मुझे कोई मलाल भी नहीं है.

आप कैसा जीवन जीना चाहते थे?
प्रत्येक व्यक्ति की जीवन आकांक्षा कुछ और होती है और उसे एक दूसरा जीवन जीना पड़ता है, मैं भी एक पूर्णतया स्वाधीन जीवन जीना चाहता था किंतु ‘जीवन के चयन’ का अवसर ही मुझे नहीं मिला. मैं अपनी पारिस्थितिकी से इतना बंधा हूं कि स्वाधीन जीवन जी ही नहीं सका.

साहित्य में आपके प्रेरणास्रोत कौन हैं?
मेरे भीतर जो साहित्य के बीज थे, उन्हें अंकुरित करने का श्रेय, मेरे गुरु, अग्रज और सखा, तीनों की भूमिका में, डॉ. परमात्मा नाथ द्विवेदी की रही, जिन्होनें बस्ती जिले में ‘आचार्य रामचन्द्र शुक्ल परिषद’ की स्थापना की थी. उन्हीं की प्रेरणा से मेरा साहित्य संसार में प्रवेश हुआ.

आप संस्कृत के आचार्य हैं. हिंदी साहित्य, कवि-कर्म की ओर आपका रुझान कैसे हुआ?
ये दोनों ही मेरे प्रिय विषय रहे हैं. संस्कृत तो मेरे रक्त में रही है. मेरे बड़े पिता जी संस्कृत के आचार्य रहे. मेरे अग्रज सम्पूर्णानन्द विश्वविद्यालय, काशी में आचार्य रहे. इस तरह संस्कृत मुझे विरासत में मिली. हिंदी हमारी मातृभाषा है. संस्कृत अब एक अप्रयुक्त भाषा है, हालांकि संस्कृत में अब भी युग धर्म के अनुसार श्रेष्ठ साहित्य लिखा जा रहा है. मातृभाषा में स्वाभाविक उद्गार न तो चकित करने वाली बात है, न आश्चर्यजनक और न ही विडम्बनापूर्ण.

आपके काव्य में ग्राम्य जीवन, कृषक जीवन तथा लोक जीवन की विविधातामयी रंगत देखने को मिलती है. मौजूदा समय में जब दुनिया सूचना प्रौद्योगिकी की ओर तेजी से गतिशील है. ऐसे समय में आपके काव्य की क्या भूमिका है?
देखिए, बहुत पहले संस्कृत काव्य में भी ये सवाल उठते रहे हैं, आप उन्हें नए ढंग से पूछ रहे हैं. संस्कृत में आचार्यों यानी आज की शब्दावली में आलोचकों ने कविता की कई कोटियां बनाई थीं- ग्राम्या, नागरिका, उपनागरिका. यानी जो ग्रामीण संवेदना की कविता थी उन्हें ग्राम्या, नागर संवेदना की कविता को नागरिका तथा कस्बाई या उपनगरों की कविताओं को उपनागरिका कहा जाता था. तो आप जो कह रहे हैं कि आज के सूचनातंत्र बहुल समय में, प्रौद्योगिकी के विस्फोट के दौर में लोक जीवन की कविता की सार्थकता का सवाल तथाकथित मुख्यधारा के साहित्य में शामिल लोग उठाते हैं. वे ये सवाल इसलिए उठाते हैं कि लोकजीवन, लोकसंवेदना को चित्रित करने वाले कवियों को यह कह दिया जाता है कि ये ग्राम्य संवेदना या कृषक संवेदना को चित्रित करते हैं और इस तरह एक मेढ़बंदी कर दी जाती है कि आप वहीं रहिए. प्रौद्योगिकी ने दुनिया को सहज सुगम बनाया है लेकिन इसे कविता से जोड़ने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि कविता शर्तों पर नहीं चलती, उसकी अपनी आंतरिक शर्त होती हैं.

‘अब जनवाद, कलावाद, प्रगतिवाद आदि जो ‘इज्म’ हैं वे खत्म हो रहे हैं अब वादी-प्रतिवादी कविता का नहीं, संवादी कविता का युग आ रहा है’

आधुनिक हिंदी कविता के छंदमुक्त होने के आप क्या कारण देखते हैं.
कविता अनायास ही छंदमुक्त नहीं हो गई. छंदमुक्त कविता लिखे जाने की शुरुआत तब हुई जब जिंदगी की लय टूटने लगी. उसकी सांसे बाधित होने लगीं, जिंदगी जटिलतर होती गई फलस्वरूप कविता की लय भी टूटने लगी. पहले जिंदगी, बेफिक्र, निश्चिंत, निरापद थी वह धीरे-धीरे मुश्किल होती गई. जटिल जीवनबोध को वाणी देने के लिए गीत उतने कारगर नहीं साबित हुए क्योंकि प्रेम या करूणा को तो गाकर कहा जा सकता था. किंतु समय का संत्रास, उसकी घुटन, उलझे हुए सामाजिक सम्बन्धों को व्यक्त करने में छंद असमर्थ होते गए और इसका आरम्भ ‘निराला’ के समय से ही हो गया था. अब एक बार फिर लोगों को यह लगने लगा है कि लय कविता का अनिवार्य अंग है. भवानी प्रसाद मिश्र की कविता में लय देखने को मिलती है लेकिन उन्हें तो सर्वथा भुला दिया गया है.

लेकिन वर्तमान कविता की धारा छंदरहित कविता है. ऐसे में आप किस आंतरिक आवश्यकता के कारण छंदबद्ध रचना कर रहे हैं?
मैंने ऐसा दो कारणों से किया. एक तो मुक्त छंद की कविता इतनी असम्प्रेष्य और अपठनीय होने लगी थी कि जहां पहले कभी हिंदी कविता का एक विशल पाठक वर्ग था वह चंद कवियों, आलोंचकों तथा प्रकाशकों तक सिमट कर रह गया. यानी वह कागजी कविता बनकर रह गई है. ऐसे में मुझे यह जरूरी लगा कि जो हमारे परम्परागत छंद हैं, जो लोकशैलिया हैं, इनका प्रयोग भी कविता में किया जाए जिससे कविता को अधिक व्यापकता, प्रसार और अवकाश मिले. अब मुक्त छंद के कवि भी लय और तुक मिलाने लगे हैं. दूसरी ओर, ये जो छंदानुशासन की कविता है या छंदोबद्ध कविता है, ‘गद्य कविता के कवि’ विष्णु खरे जैसा खरा कवि उसके मुख्य प्रशसंकों में से एक है. यह आश्चर्य की बात है.

आप को केदार सम्मान भी प्राप्त हो चुका है. आप उनकी धारा के प्रतिनिधित्व करते प्रतीत होते हैं. केदार की जनवादी कविता धारा में समकालीन कविता का क्या भविष्य हैं?
केदार जी की कविता से मैं प्रेम तो करता हूं लेकिन उनकी धारा का प्रतिनिधित्व नहीं करता. केदार जी बहुत सरलरेखीय कवि हैं लेकिन उनके भीतर जो स्थानिक प्रेम और संघर्ष है, लोकजीवन के रंग व गंध हैं वे मुझे आकर्षित करते हैं. दूसरी बात कविता को इस तरह से वादों में बांटना सम्भव नहीं है. अब जनवाद, कलावाद, प्रगतिवाद आदि जो ‘इज्म’ हैं वे खत्म हो रहे हैं अब वादी-प्रतिवादी कविता का नहीं, संवादी कविता का युग आ रहा है.

तो क्या आप स्वयं को वैचारिक रूप से कहीं सम्बद्ध पाते हैं?
अवश्य! मेरी सम्बद्धता और प्रतिबद्धता उन असंख्य जनों के प्रति है जिनके जीवन के स्वप्न, आनंद, आदि लगातार समाप्त करने की कोशिश जारी है. मैं उनके साथ हूं, कोटि-कोटि जनों की आवाज में, उनकी चीत्कार, पुकार में, सदैव उनके साथ हूं.

समकालीन कविता में आप किसे प्रतिनिधि स्वर मानते हैं?
समकालीन कविता में प्रतिनिधि स्वर कहना कठिन है, क्योंकि एक समय ‘अज्ञेय’ जी ने कहा था- ‘मेरे पीछे तू आ-आ’ तो वे कवियों का आहवान कर रहे थे. उन्होंने प्रत्येक कवि को ‘अपनी-अपनी राहों का अन्वेषी’ कहा था. प्रत्येक कवि अपना रास्ता बनाते हुए आ रहा था. आज की कविता में ऐसा स्वर तलाशना बहुत कठिन है बल्कि मैं यह कहूंगा कि कविता में व्यंजन बहुत अधिक हो गए हैं, स्वर लुप्त हो गया है. ये कविताएं हमारे समय की व्यंजनबहुला कविताएं हैं, एक तरह से स्वरहीन कविता हैं. ‘धूमिल’ के समय तक ही कविता जीवंत दिखाई देती है, बल्कि नागार्जुन, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, त्रिलोचन तक भी.

आपने एक बहुचर्चित कविता  ‘भारत घोड़े पर सवार है’  में एक जगह समलैंगिकता की बात की है. क्या आप वैश्विक ग्राम के संदर्भ में इसे भारतीय परम्परा का हनन मानते हैं?
उस कविता के संदर्भ में आप उसे हास-परिहास के रूप में देख सकते हैं. जहां तक समलैंगिकता की बात है यह दुनिया के हर समाज में, हर व्यवस्था, तंत्र में, चाहे वामपंथ हो या रामराज्य, रही है. और अब जब यह अस्मितामूलक आंदोलन के रूप में छिड़ा है, तो मैं इसका समर्थन करता हूं. क्योंकि यह वैयक्तिक आजादी का सवाल है. सेक्स मानव मात्र की अपरिहार्य जैविक आवश्यकता है. इसे नैतिकता व अनैतिकता से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए. नैतिकता /अनैतिकता का सवाल सामाजिक संरचना में अपना खास स्थान रखता है जबकि सेक्स या धर्म का सम्बंध व्यक्ति की सत्ता से है. मेरी दृष्टि में काम; सेक्स जीवन की मूल प्रतिज्ञा है. कुमार सम्भव – कालिदास, कामसूत्र – वात्सयायन, तक की हमारी समृद्ध परम्परा है.

विवाह संस्था को आप किस नजरिए से देखते हैं?
देखिए, विवाह संस्था का सर्वाधिक संत्रास स्त्रियों को ही भोगना पड़ा है. क्योंकि सामाजिक संरचना में पुरुषों का वर्चस्व सदा से बना रहा है स्त्रियों को सदैव ‘पुत्रवती भव’ का ही वरदान दिया जाता रहा. फलस्वरूप स्त्रियों की पहचान दर्ज नहीं हुई. विवाह संस्था का पहला उदेश्य सेक्स और संतानोत्पत्ति माना गया और कालांतर में इसे सामाजिक वैधता प्रदान की गई. लेकिन स्त्री आज अपनी स्वतंत्रता को समझ रही है. वह अपनी शक्ति, ऊर्जा तथा लक्ष्यों प्रति अधिक सजग है. उसके सुसुप्त गुण-सूत्र जागृत हो उठे हैं. विवाह आचार-संहिता अन्य संहिताओं की भांति समय-संदर्भ के सापेक्ष रही है. कालांतर में इसका स्वरूप यथावत बना रहे, यह जरूरी नहीं है.

पिछले कुछ समय से उपचुनाव वाले क्षेत्रों में हो रहे साम्प्रदायिक दंगे को आप किस तरह देखते हैं?
साम्प्रदायिकता का सबसे विकट विस्फोट बाबरी मस्जिद विध्वंस के साथ हुआ, तब एक पत्रिका निकली थी ‘परिवेश’. उसने एक पूरा अंक ही 6 दिसंबर पर केन्द्रित किया था. उसमें मेंरी कविता ‘गणित के प्रश्न’ छपी थी. लेकिन उससे भी पहले यह कविता ‘समकालीन जनमत’ के मुखपृष्ठ पर छपी थी. साम्प्रदायिकता, दो धार्मिक विश्वासों को उन्मादी बनाने की निन्दनीय चाल है. भूमण्डलीकरण के वर्तमान दौर में सभी समुदाय परस्पर इतने घुले-मिले हैं कि अलग-अलग धार्मिक विश्वास का मनुष्य दूसरे देशों, समाजों, समुदायों के साथ-साथ रह रहा है. ऐसे में यह विद्वेष चल नहीं सकता क्योंकि वर्तमान में घुलनशील सर्वस्वीकृत समाज का स्वप्न धीरे-धीरे साकार होने को है. अब सांप्रदायिकता के कारतूस खाली हो चुके हैं उसके ध्वंशावशेष/ भिनभिनाहट यदा-कदा, यत्र-तत्र सुनाई देगी किंतु साम्प्रदायिक ताकतों की मंशा अब नहीं पूरी होगी.