भारत में आतंकवाद का मुकाबला करने वाले तंत्र का बदसूरत चेहरा दिखानेवाली किताब ‘काफ्कालैंड’ की लेखक मनीषा सेठी बताती हैं, ‘ऐसा हो सकता है कि मोदी और उनके साथी ऐसी बारीकियों को न जानते हों. उनका इरादा तो बस आतंकवाद से जुड़े डर को बढ़ाना और एक पक्षीय बहस शुरू करना है. गुजरात तो बस शुरुआतभर है। वे तो इस ‘विकृत’ कानून को केंद्र से लागू करवाना चाहते हैं जिससे किसी भी वैचारिक मतभेद या नाइत्तेफाकी को आतंकवाद के नाम पर दबाया जा सके. ऐसे में गुजरात उनके लिए एक प्रयोगशाला का काम कर रहा है.’ इस बिल के कुछ मुख्य प्रावधानों के अनुसार, एसपी से ऊपर की रैंक के किसी पुलिस अधिकारी के सामने दिया गया बयान या कुबूलनामा कोर्ट में स्वीकार्य साक्ष्य का काम करता था. टेलीफोन से जुड़ी रोक के अधिकार, आरोपी की संपत्ति कुर्क करने का अधिकार और बिना चार्जशीट दाखिल किए 90 दिन की कस्टडी को बढ़ाकर 180 दिन का अधिकार पुलिस को था.
वैसे अगर बीते हुए कुछ उदाहरण देखे जाएं तो पता चलता है कि ऐसे कड़े नियमों को गुजरात में लागू करना कभी आसान नहीं रहा है। सेंटर फॉर इक्विटी स्टडीज की भारत में आतंक निरोधी कानूनों पर आई एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, ‘साल 2003 तक गुजरात में पोटा के अन्तर्गत दर्ज हुए मामलों में एकाध को छोड़कर अधिकांश मामले मुस्लिमों के खिलाफ ही थे.’ रिपोर्ट के अनुसार, ‘1993 में अकेले गुजरात में टाडा के अंतर्गत लगभग 19,263 लोगों को गिरफ्तार किया गया, जिनमें अधिकांश बांध-विरोधी प्रदर्शनकारी, मजदूर संगठन और एक धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय से ताल्लुक रखनेवाले लोग थे.’ ऐसा ही चयनात्मक लक्ष्यीकरण हाल में तब देखा गया जब गुजरात पुलिस ने एक आदिवासी नेता जयराम गमित को एक अन्य कड़े कानून ‘प्रिवेंशन ऑफ एंटी सोशल एक्टिविटी एक्ट’ (पासा) के तहत गिरफ्तार किया. हालांकि उनका अपराध सिर्फ इतना था कि वह भूमि अधिग्रहण बिल के विरोध में लोकतांत्रिक मानकों के अनुरूप प्रदर्शन कर रहे थे.
जन संघर्ष मंच के प्रतीक सिन्हा बताते हैं, ‘इस बिल का समर्थन करने वाले सोचते हैं कि सुप्रीटेंडेंट रैंक से ऊपर के अधिकारी कानून का पालन करते होंगे लेकिन क्या गुजरात का ट्रैक रिकॉर्ड किसी से छुपा हुआ है? गुजरात के न जाने कितने ही वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी फर्जी एनकाउंटर और हिरासत में हुई हिंसा के मामलों में संलिप्त पाए गए हैं. केस दर केस अध्ययन किया जाए तो पता चलता है कि ऐसे मामलों में ऊपर से नीचे तक पूरा महकमा मिला होता है.’ बात आगे बढ़ाते हुए मनीषा सेठी कहती हैं, ‘अक्षरधाम बम धमाका मामले के मुख्य आरोपी अदम अजमेरी को पोटा कोर्ट ने सजा-ए-मौत दी थी जिसे गुजरात उच्च न्यायालय ने भी बरकरार रखा था. उसके खिलाफ मुख्य भूमिका उन बयानों ने निभाई थी जो उसने पहले डीसीपी संजय गढवी और फिर सीजेएम के सामने दिए थे. इस मामले का खुलासा मुख्य जांच अधिकारी जीएल सिंघल ने डीआईजी डीजी वंजारा द्वारा दी गईं सूचनाओं के आधार पर किया था. बाद में अजमेरी को बरी करते हुए सुप्रीम कार्ट ने निचली अदालतों के फैसले को ‘अतार्किक’, ‘अन्यायपूर्ण’ और ‘अनुचित’ करार दिया था. साथ ही इसे मौलिक और आधारभूत मानवाधिकारों का हनन भी माना था.’
ट्रुथ ऑफ गुजरात के कार्यकर्ता बताते हैं, ‘नए बिल के चैप्टर 4 की धारा 15 (3) का प्रयोग दक्षिणपंथी संस्थाएं उन जोड़ों के खिलाफ कर सकती हैं जो परिवार के खिलाफ जाकर प्रेम विवाह कर लेते हैं. अगर यह साबित हो जाता है कि कोई वादा करके आरोपी ने किसी का अपहरण किया या भगाया है तो विशेष अदालत इसे जबरदस्ती या शोषण का केस मान सकेगी.’ वैसे भी हमारे देश में मानवाधिकार हनन और आतंकवाद निरोधी कानूनों का इतिहास एक-सा ही रहा है. ऐसे
अधिकतर मामलों में फैसले में देरी के कारण केस साल दर साल अदालत में चलते रहते हैं. आतंकवाद निरोधी कानूनों के तहत जेल में बंद अधिकांश आरोपी समाज के हाशिये पर पड़े उस तबके से आते हैं जिनका समाज में किसी भी स्तर पर किया गया योगदान शून्य के बराबर होता है.
क्या सच का ये चेहरा भी सत्ता में बैठी भाजपा को दिखाई देगा और वो एक बेरहम बिल को कानून में बदलने से खुद को रोकेगी? भविष्य कुछ भी हो पर इस वक्त आर्थिक सुधारों के नाम पर लिए जा रहे मनमाने फैसले कुछ और ही बयां कर रहे हैं. एक कड़े कानून से आदिवासी, दलित, अल्पसंख्यक, मजदूर या किसान आदि वर्गों की असहमति खत्म की जा सकती हैं. इसके अलावा सीआइआइ और फिक्की जैसे व्यापार संगठनों की आतंकवाद निरोधी कड़े कानून बनाने की दिलचस्पी और ‘टास्क फोर्स रिपोर्ट ऑन नेशनल सिक्योरिटी एंड टेररिज्म’ जैसे आधिकारिक दस्तावेजों से भाजपा के ऐसे कानून बनानेवाले सपने को और मजबूत करेगी. ऐसे में यह एक आदर्श उदाहरण होगा, जैसा कि इरशाद ने अपने भावुक कर देने वाले खत में कहा था, ‘सुरक्षा एजेंसियां पेट्रोल से आग बुझाने का काम कर रही है’.
मोदी पहले यही कार्य कर रहे थे अब आनंदी बेन कर रहीं