
भोपाल के रेलवे स्टेशन पर हमीदिया रोड की तरफ खुले आसमान के नीचे 18 दिसंबर 2015 की कड़कड़ाती ठंड की रात 50-52 साल की औसत उम्र की लगभग 200 महिलाओं का समूह जद्दोजहद करता नजर आ रहा था. ये सोने की कोशिश कर रही थीं, लेकिन अजनबी शहर में ये सो कैसे सकती थीं? एक तरफ कड़ाके की ठंड थी और दूसरी तरफ अनजाना-सा भय. ये सभी महिलाएं भोपाल से लगभग150 किलोमीटर दूर विदिशा जिले के गंज बासौदा और मंडी बामोरा क्षेत्र से चने की भाजी और झाड़ू बेचने के लिए यहां आईं थीं. अपनी सुरक्षा के मद्देनजर इन्हें सोना नहीं, बल्कि रातभर जागना था. आजीविका कमाने की इस कोशिश से उन्हें 200 से 300 रुपये हासिल होंगे और वे फिर वापस अपने कस्बों में लौट जाएंगी. क्यों आती हैं वे यहां, क्या वहीं उनकी कुछ कमाई नहीं हो सकती है? इस सवाल के जवाब में रामवती बाई कहती हैं, ‘हमारे यहां या तो लोग हमारा बनाया सामान खरीदते ही नहीं हैं या खरीदते भी हैं तो बहुत ही कम दाम देते हैं. खेतों में मजदूरी करते हुए हमें चने की ये भाजी काटने का मौका मिल जाता है और इसे बेचने भोपाल आना ही पड़ता है, क्योंकि यहां इसकी अच्छी कीमत मिल जाती है.’
रामवती पिछले 28 साल से यही कर रही हैं. इनमें से हर दूसरी महिला के पास घर और खेती की थोड़ी बहुत जमीन थी, लेकिन जरूरतें पूरी करने के लिए उन्हें बेचना पड़ा. देश में अब तक यह आकलन हुआ ही नहीं कि साल-दर-साल समाज के एक तबके से उनकी पहचान और संपदा छिनती जा रही है और आजीविका के लिए उन्हें बड़े शहरों में शरणार्थियों जैसा जीवन व्यतीत करना पड़ रहा है. देशभर में रामवती जैसे हजारों-लाखों लोग बेघर हैं या फिर बेघरों जैसी जिंदगी गुजर-बसर कर रहे हैं. इनमें से ज्यादातर हमेशा से बेघर नहीं थे. मंडी बामोरा की 58 साल की क्रांति बाई बताती हैं, ‘गांव में घर है, फिर भी आधी जिंदगी बेघर के रूप में ही गुजारी है.’ उन्हें यह जानकारी है कि शहरों में रैन-बसेरे बने हैं, जहां लोग रुकते हैं, लेकिन उन्हें लगता है कि वहां ठहरने के लिए 20 रुपये देने पड़ते हैं. उनकी इस जानकारी को किसी ने दुरुस्त नहीं किया कि वे वहां बिना किसी शुल्क के रह सकती हैं.
भोपाल रेलवे स्टेशन पर यह समूह एक या दो रात ही दिखाई नहीं देता है. शहर में हर रोज इस तरह के बेघरों का एक कुनबा अलग-अलग इलाकों में बसता है और सुबह होते ही उजड़ जाता है. बहरहाल 20 सितंबर 2011 को सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देश दिए थे कि सरकार द्वारा चलाए जा रहे आश्रय घरों और रैनबसेरों के बारे में प्रचार किया जाना चाहिए, लोगों को बताया जाना चाहिए कि वहां उन्हें बुनियादी सुविधाएं मिलेंगी, लेकिन इस मामले में राज्य सरकारों ने तत्परता नहीं दिखाई.
‘बेघर होने से महिलाओं और बच्चों के शोषण की एक श्रृंखला जुड़ी होती है. उनका शारीरिक-मानसिक शोषण होता रहता है पर न्याय व्यवस्था उन्हें दुत्कारती है’
भोपाल के यादगार-ए-शाहजहांनी पार्क के नजदीक बने रैनबसेरे में एक सज्जन रह रहे हैं हरिसिंह कुशवाहा. सागर जिले की बंडा तहसील में छह एकड़ कृषि भूमि के मालिक हरिसिंह दो सालों से भोपाल मजदूरी करने आते हैं. कारण- बारिश नहीं हुई और कर्ज इतना बढ़ गया है कि गांव से बाहर निकलना पड़ा. जब उनसे पूछा गया कि मजदूरी तो सागर में भी मिल जाती, फिर परिवार छोड़कर यहां क्यों आए? वो थोड़ा सकुचाए, फिर बोले, ‘वहां कई रिश्तेदार रहते हैं, वो देखते तो बदनामी होती.’ अब वे भोपाल में मजदूरी करते हैं और रैन बसेरे में रहते हैं. डेढ़-दो महीने काम करेंगे और 3-4 हजार रुपये की मजदूरी कमाकर गांव लौट जाएंगे. एक आैैर कहानी है रहीम की, जिन्होंने पुराने शहर में दीवार से सटाकर प्लास्टिक की पन्नियों से अपना अस्थाई आशियाना बनाया है. फुटपाथ के 35 वर्गफुट के टुकड़े पर वे अपने परिवार के साथ रहते हैं. शहर आए उन्हें 3 साल हो चुके हैं. इस दौरान वे रैन बसेरे में गए, पर वहां उन जैसों के लिए कोई व्यवस्था नहीं है क्योंकि वे परिवारवाले हैं और उनके जैसे बेघरों को वहां आसरा नहीं मिल सकता. पत्नी और बच्चों के साथ वे वहां रह ही नहीं सकते थे.
रैन बसेरे में ही रहने वाले रामबाबू शर्मा ने कुछ देर तक बात नहीं की. कुछ देर देखते रहे और दूसरों से बात करते हुए सुनते रहे. फिर खुद बुलाकर अपने बारे में बताया. रामबाबू शर्मा शहर के व्यावसायिक इलाके के एक होटल में काम करते हैं. ऐसा नहीं है कि उनका घर नहीं है. चूंकि उन्हें भोपाल शहर के दूसरे कोने तक अपने घर आने-जाने में 50 रुपये खर्च करने पड़ते हैं, इसलिए वे 3 किलोमीटर पैदल चलकर इस रैनबसेरे में आकर रुक जाते हैं, ताकि अगले दिन सुबह काम पर जल्दी पहुंच सकें. बिहार के मुजफ्फरपुर से 1996 में मध्य प्रदेश आए रामबाबू ने मनोविज्ञान में उच्च शिक्षा हासिल की है, पर आज उनकी पहचान बस एक बेघर की ही है. अब्दुल रेहान इसलिए सड़क पर ही रहते हैं, क्योंकि उनके पास सामान की दो पोटलियां हैं. वही उनकी संपत्ति है. इसे रखने की रैन बसेरों में कोई व्यवस्था नहीं है.

भोपाल के यादगार-ए-शाहजहांनी पार्क स्थित रैन बसेरे में एक समय में 200 से 300 लोग रात गुजारते हैं, इसके दूसरी तरफ महिलाएं पूरी तरह से खुले आसमान के नीचे रहती हैं क्योंकि रैन बसेरों को लेकर जिस तरह की संवेदनशील और सुरक्षित व्यवस्था बनाने की जरूरत थी, वह नहीं की गई है. महिलाओं के लिए बने रैन बसेरे खाली हैं और महिलाएं सड़कों रात बिता रही हैं.
आज के हालात यह हैं कि लोग बेघर होते नहीं हैं, बेघर किए जाते हैं. कुछ लोग इंसान और नागरिक नहीं होते हैं. वे महज अतिक्रमणकारी होते हैं. ऐसे लोग अक्सर मिट्टी, बांस और घास-प्लास्टिक की पन्नी जोड़कर एक ढांचा बनाते हैं ताकि खुद को ढक सकें. ऐसे लोग सरकार की निगाह में ‘अनाधिकृत और अपराधी’ हैं. दिसंबर 2015 के दूसरे सप्ताह में दिल्ली की ऐसे ही एक इलाके शकूरबस्ती पर रेल महकमे का कहर बरपा. जाड़े के मौसम में अतिक्रमण हटाने के नाम पर बस्ती को तहस-नहस कर दिया गया. इस कार्रवाई में एक बच्चे की माैत भी हो गई. यह कार्रवाई बिना किसी वैकल्पिक व्यवस्था किए और बिना ये सोचे हुई कि ठंड में ये लोग कहां जाएंगे? जिंदा भी रह पाएंगे कि नहीं? यह सब उस स्थिति में किया गया जब दिल्ली अर्बन शेल्टर इम्प्रूवमेंट बोर्ड नीति और दिल्ली लॉ (स्पेशल प्रोविजन) कानून, वर्ष 2006 से पहले बनी झुग्गी-बस्तियों को वैधानिक संरक्षण देता है.
आकलन बताते हैं कि जनगणना में बेघर लोगों की बहुत सीमित परिभाषा गढ़कर उनकी संख्या को सीमित कर दिया गया है
बात केवल शहरी बेघरों तक ही सीमित नहीं है. वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता अनुराग मोदी बताते हैं, ‘दिसंबर 2015 में मध्य प्रदेश के बैतूल जिले के पीपलबर्रा और बोड गांव में आदिवासियों के 45 घर तोड़ दिए गए. फसलों को नष्ट कर दिया गया और कुंए में जहर डाल दिया, ताकि लोग गांव छोड़ कर चले जाएं. इन लोगों ने उन गांवों में 50 हजार फलदार पौधे लगाए हैं, पर वन विभाग उनकी फसल और वृक्षारोपण को अचानक नष्ट कर देता है.’
सर्वोच्च न्यायालय वर्ष 2010 से बेघर लोगों को आश्रय देने के लिए निर्देश दे रहा है. 20 जनवरी 2010 को पीयूसीएल बनाम भारत सरकार और अन्य के मामले में न्यायालय ने निर्देश दिए थे कि हर एक लाख की जनसंख्या पर एक ऐसा आश्रय घर होना चाहिए जिसमें सभी बुनियादी सुविधाएं जैसे साफ बिस्तर, साफ शौचालय और स्नानघर, कंबल, प्राथमिक उपचार की सुविधा आैैर पीने का पानी उपलब्ध हो. अक्सर शिकायत की जाती है कि रैन बसेरों में लोग नशे का सेवन करते हैं और बीमार होते हैं, इस मामले में निर्देश कहता है कि वहां नशा मुक्ति की व्यवस्था होनी चाहिए. सुरक्षा और सम्मान के नजरिये से 30 फीसदी आश्रय घर महिलाओं, वृद्धों के लिए होने चाहिए. दिशानिर्देशों के मुताबिक एक व्यक्ति के लिए आश्रय घर में कम से कम 50 वर्ग फिट जगह होगी जबकि सच यह है कि अभी एक व्यक्ति को 15 वर्ग फिट जगह मिल रही है यानी जितने में वह सिर्फ लेट पाता है.

बेघर लोगों के लिए काम कर रहे लेखक आैैर सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मंदर कहते हैं, ‘चूंकि समाज ही इन लोगों को भेदभाव की नजर से देखता है, इसलिए नीतिगत-राज्य व्यवस्था में इस विषय को केवल नजरअंदाज ही नहीं किया जाता, बल्कि खारिज किए जाने की पहल होती है. हम यह सोचते ही नहीं है कि सड़कों पर रहने वालों के पास एक अदद घर नहीं होता है, किंतु वे जिंदगी जीने के लिए सबसे ज्यादा श्रम करते हैं. बेघर होने से महिलाओं और बच्चों के शोषण की एक श्रृंखला जुड़ी होती है. उनका आर्थिक-शारीरिक और मानसिक शोषण होता रहता है पर न्याय व्यवस्था उन्हें दुत्कारती है.’