फिल्म के पास कुछ अच्छे हिस्से हैं, और इनमें रितेश देशमुख को देखकर सुख मिलता है. जानते तो हम ‘नाच’ और ‘ब्लफ मास्टर’ के वक्त से थे, लेकिन खराब फिल्मों में वे ऐसे सने कि उनके अच्छा अभिनेता होने के निशान कम ही मिले. यहां वे बर्फ चेहरे पर कभी क्रूरता और कभी बेचारगी के भाव देते वक्त उन्मुक्त हैं, लेकिन हावी नहीं, और ऐसा अच्छा अभिनय आखिर तक उनके लिए हमारी उत्सुकता बनाए रखता है. सिद्धार्थ मल्होत्रा के किरदार की तीव्रता भी आकर्षक है और उनका अभिनय भी, लेकिन निर्देशक उनकी उस रेंज को ज्यादा दूर नहीं ले जाते, गर ले जाते तो वे उस कोरियाई फिल्म के नायक की तरह का काम कर सकते थे. श्रद्धा कपूर खूबसूरत लगी हैं, उतनी ही जितना फिल्म उनसे चाहती है, लेकिन अभिनय अभी भी वे अच्छा नहीं करतीं, कत्थई आंखों वाली खूबसूरत काठ की गुड़िया से अधिक कुछ नहीं हो पातीं.
एक विलेन के नायक और खलनायक की पकड़म-पकड़ाई में उस तरह का थ्रिल नहीं है जिस तरह के रोमांच का वादा फिल्म करती है. ‘एक विलेन’ खुद को ऊन का वह गोला बना लेती है, जिसे बेहद जल्दी में आधे से ज्यादा खोल दिया जाता है, और फिर जब फिल्म बेतरतीब उलझती है तो सुलझाते वक्त हैरत में पड़ती है क्योंकि जिसे वे सुलझा रही है उसे वह और उलझा रही है, व्यर्थ में, और शायद इसलिए वापस लपेटते वक्त ऊन के गोले को गोल नहीं बना पा रही है.
movie utni bhi ubaau nhi h jitna aapne review main btaya h