फिल्म में बनारस की पृष्ठभूमि में कई कथानक साथ चलते हैं. ‘शिप ऑफ थिसियस’ जैसी फिल्मों ने इसे बहुत प्रभावी रूप से प्रयोग किया है, क्या ये विचार वहीं से आया था?
मेरी लिखी एक छोटी कहानी इस फिल्म के कथानक का आधार रही है. पर हम जब इस पर काम कर रहे थे तब हमने फिल्म को एक हिंदी उपन्यास की तरह गढ़ा. हां, शिप ऑफ थिसियस में कई कहानियां हैं पर हमारी फिल्म बिना किसी विशेष प्रयास के अपने मौलिक स्वरूप में पहुंच जाती है.
‘मसान’ में सेक्स स्कैंडल व जातिगत भेदभाव के मुद्दों को भी उठाया गया है. क्या ये तय था कि छोटे शहरों को किसी विशेष तरीके से ही दिखाना है या फिर ये सिर्फ आम जिंदगी को कैद करने की कोशिश थी?
अगर गौर करें तो इंडस्ट्री की गंभीर फिल्मों में ही सामाजिक संदेश होते हैं. चाहे वो गृह युद्ध संबंधी हों या किसी शारीरिक अक्षमता के बारे में हों. पर हम सोच के उस दायरे से आते हैं जहां कहानी मूल में है और उसके इर्द-गिर्द सामाजिक और राजनीतिक परतों को बुना गया है. आप मणिरत्नम की फिल्मों को देख लीजिए. उनकी किसी फिल्म की पृष्ठभूमि भले ही गृहयुद्ध की हो उसके मूल में एक खूबसूरत प्रेमकथा होती है. अब मेरी फिल्म का उदाहारण लेते हैं. फिल्म में इंस्पेक्टर का किरदार देखिए. ये सिस्टम पर कोई सीधी चोट करने की बजाय उस भ्रष्ट चरित्र को दिखा रहा है जो समाज में आसानी से देखा जा सकता है. वो सादे कपड़ों में पुलिस चौकी से दूर जाकर रिश्वत लेता है. तो ये कहानी का स्वाभाविक हिस्सा है जो समाज की विभिन्न परतों को दिखा रहा है.
फिल्म में कहीं बहुत उदासी है तो कहीं ये बहुत सहज और सरल है. क्या कहानी कहने के किसी विशेष तरीके को प्रयोग करना चाहते थे?
मैं इस बात को गलत साबित करना चाहता था कि किसी फिल्म में सिर्फ हीरो-हीरोइन का होना जरूरी है. हमारी फिल्म में हर किरदार अहम है. हमने कहानी को ऐसे ही बनाया था कि अगर किसी जगह पर एक कहानी थोड़ी उदास या विषादपूर्ण हो तो हम साथ चल रही दूसरी कहानी को कुछ हल्का या सरल ही रखें. ऐसा जान-बूझकर ही किया गया था. आप मैक्सिको के फिल्म निर्देशक अलेजांद्रो इनार्तियु की फिल्में देखें तो उन्हें कला या मुख्यधारा जैसे किसी खांचे में नहीं बांट पाएंगे. वे ऐसी फिल्में हैं जो लोगों से जुड़ती हैं, उन्हें प्रभावित करती हैं. मैं भी अपनी फिल्म से बिलकुल यही चाहता था.
आत्म-अन्वेषण यानी खुद की खोज आपकी फिल्म का एक अभिन्न हिस्सा है. इसी पर बात करें तो ये क्यों जरूरी लगा कि दोनों मुख्य किरदारों को अंत में मिलना ही चाहिए?
वो मिले क्योंकि वो वहां थे! यहां मैं फिर कहूंगा कि हमने फिल्म को किसी हिंदी उपन्यास की तरह बनाया है, जहां लोग, जगहों और चीजों के बीच में किसी भी अवसर और संयोग की पूरी-पूरी संभावना रहती है. अगर आप फिल्म की परिस्थितियों को गौर से देखेंगे तो पता चलेगा कि दोनों किरदारों के रास्ते कई बार टकराते हैं पर वो इससे अनजान हैं. इसके अलावा, अगर ऐसा नहीं होता तो दर्शकों को एक शून्यवादी, अर्थहीन-सा अंत देखने को मिलता, यह फिल्म की टैगलाइन के उलट होता, जो कहती है, सेलीब्रेटिंग लाइफ एंड डेथ, एंड एवरीथिंग इन बिटवीन (जीवन और मृत्यु के बीच की सभी चीजों पर उत्सव मनाना).

दर्शकों के एक वर्ग का मानना है कि फिल्म अच्छी है पर उतनी नहीं कि उसे कांस जैसे नामी फिल्म समारोह में इतना सराहा जाए! आप क्या कहना चाहेंगे?
वैसे तो फिल्म को हर तरफ सराहना ही मिली है पर आपका शुक्रिया कि इसकी आलोचना भी मुझ तक पहुंचाई. मुझे कोई गिला नहीं है कि लोग ‘मसान’ को जरूरत से ज्यादा तवज्जो देने की बात कह रहे हैं. अगर कोई फिल्म एक अच्छा विचार-विमर्श शुरू नहीं कर सकती तो क्या फायदा? किसी फिल्म की प्रासंगिकता के लिए स्वस्थ आलोचना जरूरी होती है.
इसके उलट, क्या आपको लगता है कि ‘द लंचबॉक्स’ के बाद दर्शकों का एक बड़ा वर्ग तैयार हुआ है जो इस तरह की फिल्मों को देखना पसंद करता है?
मैं ‘द लंचबॉक्स’ का शुक्रगुजार हूं. उसके आने के बाद से ही धीरे-धीरे लोगों की धारणा बदली कि फिल्म समारोह में दिखाई जाने वाली फिल्में भी आम दर्शकों को भा सकती हैं, वे उनको एंजॉय कर सकते हैं. मुझे ढेरों लोगों ने मेसेज भेजे कि उन्हें मेरी फिल्म बहुत पसंद आई. एक सज्जन जिन्हें मैं जानता तक नहीं, उन्होंने मुझे फेसबुक पर मेसेज किया कि कैसे फिल्म देखते हुए उन्हें उनके पिता का दाह-संस्कार याद आया. और यही बातें होती हैं जो किसी फिल्मकार को बॉक्स ऑफिस रिकॉर्ड से ज्यादा याद रहती हैं.
तो अब मसान की सफलता के बाद क्या योजना है?
मैंने पिछले पांच सालों से कोई ब्रेक नहीं लिया है तो सबसे पहले तो मैं छुट्टी पर जाने की सोच रहा हूं. ऐसी जगह जहां कोई मुझे न जानता हो, जिससे मैं इस फिल्म से आगे निकल कर अपने नए प्रोजेक्ट के बारे में सोच सकूं.