‘ग्रीन पीस का हर अभियान देशहित में है’

फोटोः विकास कुमार
फोटोः विकास कुमार

बातचीत की शुरुआत आईबी की उस बहुचर्चित रिपोर्ट से करते हैं जिसमें ग्रीनपीस को राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में लिप्त बताया गया है. क्या आप उस विवाद को निपटाने के लिए यहां आए हैं?
इस यात्रा का एक मकसद सरकार और सविल सोसाइटी के साथ अपने संबंधों को परखना और उसे नए सिरे से तय करना है. इस दौरान हमारा मुख्य ध्यान सरकार और सिविल सोसाइटी के हमारे साथियों के बीच तालमेल को बेहतर करना भी है. जहां तक आईबी रिपोर्ट का सवाल है तो मैं यही कहूंगा कि यह कैसे संभव है, क्या हमारा कोई खाता सील किया है सरकार ने? सरकार इस बात की पड़ताल कर सकती है. बल्कि मैं तो यही कहूंगा कि हमारे एक के बाद एक हर अभियान देश के हित में चलाए जा रहे हैं, इसलिए यह बात मेरी समझ से परे है. मैं सरकार के साथ बातचीत की कोशिश कर रहा हूं पर अभी तक कुछ स्पष्ट नहीं हुआ है. मुझे उम्मीद है कि जल्द ही हमारी मुलाकात होगी.

क्या सरकार के किसी प्रतिनिधि या सिविल सोसाइटी के सदस्यों से आपकी कोई मुलाकात हुई है?
मैं कुछ दिन पहले ही आया हूं. हमने दो महत्वपूर्ण मंत्रालयों से संपर्क किया है, पहला गृह मंत्रालय और दूसरा पर्यावरण मंत्रालय. अगले हफ्ते हमारी बैठक होने की संभावना है. इस दौरान हम सिविल सोसाइटी के तमाम सदस्यों और समूहों से मिल रहे हैं.

आईबी रिपोर्ट के मद्देनजर मौजूदा सरकार का सिविल सोसाइटी के प्रति किस तरह का रवैया आप देखते हैं?
मैं इसे अलग तरह से देखता हूं. इससे पहले पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश थे, उनके सामने भी तमाम चुनौतियां थीं, हमारे बीच तमाम तरह के मतभेद थे, हमनें उनकी कई नीतियों के खिलाफ अभियान भी चलाया था. लेकिन कई बार यह जानते हुए भी कि ग्रीनपीस उनके लिए परेशानी खड़ा कर रहा है, उन्हें यह भरोसा था कि अंतत: हम इसे जनता के हित में चला रहे हैं. मुझे लगता है कि मौजूदा सरकार ने भी वही नीति अपनायी है. हम इस बात पर बहस कर सकते हैं कि भारत सरकार को जितनी जरूरत सिविल सोसाइटी की है उतनी ही जरूरत सिविल सोसाइटी को भी है. पर्यावरण के मामले में जिस तरह की गंभीर चुनौती आज भारत के सामने उपस्थित हुई है उसका हमें अहसास है. अफ्रीका में तो गलत नीतियों के चलते पहले ही तांडव मच  चुका है.

आईबी रिपोर्ट का जोर महान कोयला खदान इलाके में आपके द्वारा किए जा रहे कामकाज पर था जहां एस्सार-हिंडाल्को का संयुक्त उपक्रम चल रहा है. वहां ग्रीनपीस का सारा विरोध एस्सार के खिलाफ दिखता है, हिंडाल्को का नाम भी नहीं लिया जाता. ग्रीनपीस के अभियान में यह दोहरापन क्यों दिखता है?
एस्सार-हिंडाल्को का मामला हो या इस तरह के दूसरे और भी जितने मामले हैं, उनमें हमारा ध्यान मालिकाना हक अनुपात पर होता है. जैसे महान में एस्सार के पास 60 फीसदी हिस्सेदारी है जबकि हिंडाल्को की हिस्सेदारी 40 फीसदी है. अगर आप इसे और विस्तार से देखें तो हम पाएंगे कि महान कोयला खदान का मामला पूरी व्यवस्था में मौजूद खामी का मामला है. किस तरह से खदान के लाइसेंस दिए गए और फिर किन स्थितियों में सुप्रीम कोर्ट ने उनके लाइसेंस निरस्त कर दिए? कोर्ट के मुताबिक इस पूरी प्रक्रिया में नियन कानूनों की जमकर धज्जी उड़ाई गई. यह सिर्फ ग्रीनपीस का विरोध नहीं है, बल्कि देश की  न्यायपालिका भी ऐसा ही मानती है. ग्रीनपीस में हम सब एक कहावत में गहराई से यकीन करते हैं- ‘यहां न तो कोई स्थायी दोस्त है न कोई स्थायी दुश्मन है.’ अगर कोई कंपनी अच्छा काम करती है तो हम उसका समर्थन करते हैं और गलत करती है तो उसका विरोध भी करते हैं. मसलन कोका कोला का उदाहरण ले लीजिए. कोका कोला ने हमारे सालों के अथक अभियान के बाद  अपने रेफ्रीजरेशन यूनिट से हाइड्रो फ्लूरो कार्बन जैसी नुकसानदेह ग्रीन हाउस गैस को हटाने का फैसला किया तो हमने खुले तौर पर कहा ‘वेल डन कोका कोला, आपने सही काम किया.’ कुछ चीजों को लेकर एक गलत धारणा लोगों में बन सकती है लेकिन हमारी नीयत ऐसी नहीं है.

ग्रीनपीस के खिलाफ एक और बड़ा आरोप यह लगता है कि यह संगठन लोकप्रियता बटोरने की नीयत से और कई बार सिर्फ दिखावटी अभियान आयोजित करता है?
क्या है कि भारत समेत पूरी दुनिया में मीडिया का माहौल पर्यावरण के प्रति बेरुखी वाला है. इसलिए हमारे सामने आम लोगों के बीच अपनी पैठ बनाना एक बड़ी चुनौती रहती है. ऊपर से हमारा ज्यादातर मीडिया भी अब कॉर्पोरेट के मालिकाना हक में चला गया है इसलिए वो हमारे अभियानों से दूरी बनाए रखता है. हमारे अभियान अनोखे और मनोरंजक होते हैं ताकि मीडिया का ध्यान खींच सके. पर यकीन मानिए ये सब हमारे असल अभियानों का 20 प्रतिशत भी नहीं होता.  मैं ये नहीं कहूंगा की हम पूरी तरह से संपूर्ण हैं. सिविल सोसाइटी के एक हिस्से में ग्रीनपीस की आलोचना भी हो रही है. लेकिन हमारे कामकाज को मिल रहा समर्थन इन आलोचनाओं की तुलना में कहीं ज्यादा है. आलोचना बहुत जरूरी है क्योंकि यह आपको जवाबदेह बनाती है, आदमी को जमीन पर बनाए रखती है.

एक राजनीतिक सवाल है. मौजूदा सरकार के मुकाबले क्या पिछली यूपीए सरकार आपके लिए ज्यादा मुफीद थी?
आपको पता है कि हमारा इस मामले में नजरिया एकदम निष्पक्ष होता है. यहां तक की जब ग्रीन पार्टी भी सत्ता में होती है तब भी हमारा रवैया निरपेक्ष ही रहता है. कोई विशेष संबंध नहीं होता सरकारों से. हमारे लिए जनता की पसंद मायने रखती है. अंतत: हम जनता की राय का ही सम्मान करते हैं. जब तक जनता के द्वारा चुनी हुई कोई लोकतांत्रिक सरकार सत्ता में है तब तक हमें किसी तरह की परेशानी नहीं होती. ऐसी सरकार जो संविधान का सम्मान करे, माज में सिविल सोसाइटी की भूमिका को समझे, बस.

मेरा मानना है कि जितनी जरूरत आज सुनीता नारायण को सरकार की है उससे कहीं ज्यादा सरकार को सुनीता नारायण की जरूरत है. मैं एक बार फिर से सरकार से आग्रह करूंगा कि वह विचारों की विविधता को अपने यहां स्थान दे, इससे उसे बेहतर से बेहतर पर्यावरण संबंधी नीति बनाने में मदद मिलेगी

आप अपने दायरे में निष्पक्ष हो सकते हैं लेकिन कई चीजें सत्ताधारी दल के विचारों से भी तय होती हैं. यह एक राष्ट्रवादी दल की सरकार है. जाहिर सी बात है महिला अधिकारों को लेकर आपका जो रुख है सरकार का रुख उससे अलग होगा. इस तरह की समस्याओं से आप कैसे निपटेंगे?
भारत समेत दुनियाभर में हमने देखा है कि नीति के स्तर पर सरकारें जिन चीजों की हिमायत करती हैं असल व्यवहार में उसके एकदम विपरीत काम करती हैं. लेकिन मुझे लगता है कि नरेंद्र मोदी सरकार महिलाओं के प्रति हिंसा के मामले में स्थापित नीतियों पर ही चलेगी. अगर पर्यावरण नीति और अर्थव्यवस्था के मामलों में सरकार लोगों के संवैधानिक अधिकारों का हनन करेगी तब हम उसका विरोध जरूर करेंगे. आप जो कह रहे हैं उस पर मैं कोई टिप्पणी नहीं कर सकता, लेकिन मुझे इतना भरोसा है कि चाहे किसी भी विचारधारा की सरकार बने उसे चलना तो संविधान के दायरे में होता है. अगर ऐसा नहीं होगा तब हम उसका विरोध करेंगे.

एक उदाहरण से इसे समझते हैं. कुछ दिन पहले सरकार ने पर्यावरण परिवर्तन कमेटी से प्रमुख पर्यावरणविद सुनीता नारायण को हटा दिया. इस तरह के फैसलों का नीतियों पर दीर्घकालिक असर होता है. अब इस पैनल में प्रधानमंत्री के मंत्रिमंडलीय सहयोगियों का प्रभुत्व है. इस तरह के फैसलों को आप कैसे देखते हैं?
मैंने यह खबर नहीं सुनी है लेकिन पहली नजर में यह दुर्भाग्यपूर्ण कदम है. सरकार अगर ऐसे प्रतिभाशाली लोगों का सहयोग नहीं लेगी तो अच्छी नीतियां कैसे बनेंगी. हालांकि मैं इस मामले से अनभिज्ञ हूं, पर मेरा मानना है कि जितनी जरूरत सुनीता नारायण को सरकार की है उससे कहीं ज्यादा सरकार को सुनीता नारायण की जरूरत है. मैं एक बार फिर से सरकार से आग्रह करूंगा कि वह विचारों की विविधता को स्थान दे ताकि, उसे बेहतर से बेहतर पर्यावरण नीति बनाने में मदद मिले.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की योजना है?
मैं उनसे जरूर मिलना चाहूंगा, फिलहाल मैंने सरकार से मुलाकात की अर्जी भेजी है. ग्रीनपीस के हमारे सहयोगी सरकार के संपर्क में हैं लेकिन अभी तक मुझे कोई जवाब नहीं मिला है. इस बीच हम सिविल सोसाइटी के सदस्यों से मिल रहे हैं, फिलहाल गेंद सरकार के पाले में है.