किराए का कंधा

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कथाकार मन्नू भंडारी की एक कहानी है, ‘ग्लोबलाईजेशन’. कहानी एक बड़े शहर में बसे एक परिवार की है. एक सुबह जब घर की दाई देरी से आती है तो घर की मालकिन उसे डांटते हुए वजह पूछती है. जवाब में नौकरानी कहती है, ‘क्या करती मेम साहब? मरे मुर्दे को छोड़कर कैसे आ जाती? सुबह-सुबह ‘ए विंग’ वाले शर्मा जी के यहां गई थी. पहुंची तो देखा कि शर्मा जी मरे पड़े हैं. उनकी बेटी और बीवी रो-रोकर बेहाल हुए जा रहे हैं. शर्मा जी का प्राण रात में ही निकल गया था. रात से सुबह हो गई. न कोई अड़ोसी, न कोई पड़ोसी. न ही कोई सगा-संबंधी. मां, बेटी अकेले ही पूरी रात विलाप करते रहे. सुबह होने पर शर्मा जी के दफ्तर से जो लोग आए वो भी थोड़ी देर में ही निकल गए. शमशान तक कंधा देने के लिए भी कोई नहीं. ऐसे में कैसे आ जाती? लाश को शमशान पहुंचाया. फिर आई आपके घर.’ इस संवाद के आखिर में दाई यह कहते हुए किचन में रखे बरतनों को धोने चली जाती है कि ‘पता नहीं ये कौन-सी दुनिया है जहां लाश को कंधा देने के लिए भी कोई नहीं मिलता’.

कमोबेश शहरों की स्थितियां ऐसी ही हो गई हैं. दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, हैदराबाद और बंगलुरु में ऐसे कई निजी संगठन हैं जो न केवल मृतक को कंधा देकर शमशान पहुंचाते हैं. बल्कि मृतक के धर्म के हिसाब से उसके अंतिम संस्कार की पूरी व्यवस्था करते हैं. इसके लिए 8 से 10 हजार रुपये का खर्च आता है. कुछेक मामलों में ये रकम एक लाख रुपये तक भी हो सकती है. जैसी सुविधाएं होती हैं उस हिसाब से पैसा भी बढ़ता जाता है.

इस क्षेत्र में काम करने वाली निजी एजेंसिंयों की फोन लाइनें 24 घंटे खुली रहती हैं. किसी मुश्किल की घड़ी में इन्हें केवल एक फोन करना पड़ता है और बताना पड़ता है कि मृतक का क्रिया-कर्म किन धार्मिक मान्यताओं और विधि के मुताबिक करना है. बस, इसके बाद की सारी जिम्मेदारी इन एजेंसियों की होती है. इन एजेंसियों के संपर्क में पंडित, मौलवी, फूलवाले और वे सारे लोग होते हैं जिनकी जरूरत ऐसे वक्त में पड़ती है.

आपको बस बताना है कि मृतक का क्रिया-कर्म किन धार्मिक मान्यताओं और विधि से होगा. बाकी जिम्मेदारी इन एजेंसियों की होती है. इनके संपर्क में पंडित, मौलवी, फूलवाले और वे सारे लोग होते हैं जिनकी जरूरत ऐसे वक्त में पड़ती है

दिल्ली में शुरू हुई ऐसी ही एक कंपनी ‘इंडियन फ्यूनरल सर्विस’ का दावा है कि वो इस क्षेत्र की पहली एजेंसी है. ये कंपनी मुंबई, दिल्ली सहित दक्षिण भारत के शहरों में भी सेवा देती है. इसका मुख्यालय मुंबई में है. एजेंसी का दावा है कि वो इस क्षेत्र में सबसे बेहतर सेवा लोगों को देती है. इसके अलावा ‘पीएस फ्यूनरल एंड एंबुलेंस सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड’ आदि राजधानी की कुछ ऐसी कंपनियां हैं जो एंबुलेंस और शव वाहन के साथ-साथ अंतिम संस्कार से जुड़ी दूसरी सारी व्यवस्थाएं कराती हैं. एजेंसी के निदेशक एनएस भट्ट के मुताबिक उनकी एजेंसी दिल्ली और दिल्ली के आसपास के इलाकों में भी अपनी सेवाएं देती है और दूसरों के मुकाबले बेहतर सेवा देती है.

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आखिर इस पेशे में कौन से लोग हैं और ये संगठन किस तरह से काम करते हैं, इस बारे में एनएस भट्ट बताते हैं, ‘हम एंबुलेंस और शव वाहन के पेशे में 1996-97 से जुड़े हैं. इस पेशे में रहते हुए और शवों को घर तक या शमशान तक छोड़ते हुए हमने महसूस किया कि कुछ लोग यह भी चाह रहे हैं कि हम उनके लिए पंडित बुला दें. फूल-माला की व्यवस्था करने के साथ शमशान घाट तक के इंतजामों को भी देख लें. दो-तीन ऐसे अनुभवों से गुजरने के बाद हमने 2000 से यह ऑफर करना शुरू किया.’ इस बातचीत में भट्ट एक बात और जोड़ते हैं. वे कहते हैं, ‘शहरों में भागमभागवाली जिंदगी है. आज भी गांवों में ये सारे काम मृतक के सगे-संबंधी करते हैं लेकिन यहां किसी के पास इतना समय ही नहीं है. ऐसे में हम मृतक के परिवार को ये सुविधाएं देते हैं कि वो अपने प्रिय व्यक्ति के बिछड़ने का दुख मनाए. बाकी इंतजाम हम कर देंगे. इसके लिए उन्हें केवल एक फोन कॉल करने की जरूरत होती है.’

एनएस भट्ट के मुताबिक, उनके यहां हर रोज चार से पांच ऐसे फोन आ ही आते हैं जो अपने किसी प्रिय की मौत से दुखी होते हैं और अंतिम संस्कार के लिए उनकी मदद लेना चाहते हैं. एनएस भट्ट का मानना है कि आनेवाले समय में इस क्षेत्र में और काम बढ़ेगा. वो कहते हैं, ‘हर कोई शहरों में ही रहना चाह रहा है. यहां 24 घंटे, काम का ही होता है. मतलब इंसान अभी जितना व्यस्त है वो आगे उससे भी ज्यादा व्यस्त होगा. ऐसे में उन्हें हमारी पहले से ज्यादा जरूरत पड़ेगी.’

‘समाज एक ही समय में भौतिकवादी और धार्मिक दोनों होना चाहता है. वो शराब पीता है. पब जाता है लेकिन जैसे ही उसके परिवार में मृत्यु जैसी कोई घटना होती है वैसे ही वो धार्मिक हो जाता है’

पंजाब के एक गांव से कुछ साल पहले दिल्ली आकर एक  फ्यूनरल और एंबुलेंस सर्विस चलानेवाले एनएस भट्ट शहरी समाज के बदलाव की जो व्याख्या हमारे सामने रखते हैं वो डरानेवाली है. यहां एक प्रश्न उठता है कि क्या वाकई शहर में रहनेवाले इतने अकेले और व्यस्त हो गए हैं कि उन्हें अपने बेहद निजी क्षणों तक में किसी न किसी सर्विस प्रोवाइडर की मदद लेनी पड़ रही है? क्या शहरी जीवन में समाज और सामाजिकता की पूरी अवधारणा चरमरा गई है? हम ये सवाल हिन्दी के जाने-माने कथाकार और शहरी सामाज पर गहरी पकड़ रखनेवाले शिवमूर्ति के सामने रखते हैं. इलाहाबाद में रहनेवाले शिवमूर्ति कहते हैं, ‘यह कोई आश्चर्यजनक बदलाव नहीं है. ये तो उन्हीं हजार बदलावों में से एक है जिससे मानव समाज गुजरते-गुजरते यहां तक पहुंचा है.’ वे आगे कहते हैं, ‘शुरू में जब शादियां होती थीं तो गांव-जवार की महिलाएं और पुरुष मिलकर ही सारा काम करा देते थे. खासकर खाना तो लोग खुद ही बनाते थे लेकिन आज तो हर जगह हलवाई का चलन है. क्या गांव, क्या शहर? फर्ज कीजिए कि आज गांव में एक लड़की की शादी होनी है और उसका बाप कहता है कि मैं हलवाई न रखूंगा. सारे समाज को मिलकर बारातियों के लिए खाना बनाना चाहिए. तो क्या होगा? लड़की के परिवार के ही लोग कहेंगे कि ये क्या बकवास है. ऐसा तो किसी भी सूरत में नहीं हो पाएगा.’ वे आगे कहते हैं, ‘जिस तरह से शादी-ब्याह के लिए हलवाई आने लगे उसी तरह से अब अंतिम संस्कार करवानेवाले लोग भी आ रहे हैं. जो काम हम खुद नहीं कर सकेंगे उसे कोई न कोई तो करेगा.’

बकौल शिवमूर्ति शहरी समाज एक ही समय में भौतिकवादी और धार्मिक दोनों होना चाहता है. वो शराब पीता है. पब जाता है लेकिन जैसे ही उसके परिवार में ऐसी कोई घटना होती है वैसे ही वो धार्मिक हो जाता है. वो यहां भौतिकवादी बिल्कुल नहीं दिखना चाहता. शिवमूर्ती आगे कहते हैं, ‘जैसे-जैसे समाज बदलेगा वैसे-वैसे पहले से बनी-बनाई कई व्यवस्थाएं बदलेंगी. इसमें कोई बात नहीं है. बदलाव एक सतत प्रक्रिया है.’

शिवमूर्ति जिसे बदलाव की एक सतत प्रक्रिया मानते हैं उसे सीएसडीएस के सीनियर रिसर्च स्कॉलर और स्तंभकार चंदन श्रीवास्तव, इंसानी जीवन में बाजार द्वारा की जा रही घुसपैठ के तौर पर देखते है. उनके मुताबिक यह बदलाव की सतत प्रक्रिया बिल्कुल नहीं है. यह उस दिनचर्या की वजह से है जहां हर एक घंटे का हिसाब सैकड़े, हजार और लाख रुपये में लगाया जाता है. चंदन कहते हैं, ‘किसी की अंतिम यात्रा में जाने के लिए आपको कम से कम पूरे दिन का समय चाहिए. इतना समय निकालना हमारे लिए  मुश्किल हो गया है. हमें लगता है कि इतने समय में तो हम कुछ सौ कमा सकते हैं. कुछ हजार बना सकते हैं और ये बात हमारे दिमाग में पिछले कई सालों में बिठाई गई है.’ चंदन आगे कहते हैं, ‘बाजार ने इंसानी जीवन के सबसे कोमल और मधुर पलों पर भी अपनी छाप छोड़ी है. चाहे वो रक्षाबंधन पर इंटरनेट से राखी भेजने का मसला हो, वेबकैम से घर की दिवाली और करवाचौथ मनाने की बात हो या फिर मरने पर इस तरह की किसी एजेंसी से अंतिम संस्कार करवाने का मामला हो.’ चंदन जिसे इंसानी जीवन में बाजार की घुसपैठ मानते हैं उसे कुछ लोग वरदान की तरह भी देख रहे हैं.

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46 वर्षीय रमा का मानना है कि अगर हम शहर में रह रहे हैं तो यहां की व्यस्त जीवनचर्या को कैसे नकार सकते हैं. शहरों में ज्यादातर लोग अकेले हैं. जो साथ हैं उनकी भी अपनी-अपनी व्यस्तथाएं हैं. ऐसे में अगर इस तरह की सेवाएं हैं तो ये बहुत ही अच्छी बात है. कुछ पैसे देकर हम वे सारे कर्मकांड तो कर पा रहे हैं जिन्हें करना जरूरी है.

रमा अपनी छोटी बहन सिया मित्रा के साथ पिछले दस साल से दुबई में रह रही हैं. इस साल फरवरी में जब इनके पिता की मृत्यु हुई तो दोनों बहनों ने ऐसी ही एक एजेंसी की मदद से पिता का अंतिम संस्कार दिल्ली में किया. रमा कहती हैं, ‘शुक्र है दिल्ली में इस तरह की एजेंसियां तो हैं जिसकी मदद से हम अपनी सुविधा के हिसाब से पिता के अंतिम संस्कार की विधियां पूरी कर सके. इस शहर में तो हमारा एक भी रिश्तेदार नहीं है. हमारा तो सबकुछ दुबई में ही है. पापा की जिद थी कि वे दिल्ली में रहेंगे. एक-दो हफ्ते में बाकी काम भी हो जाएगा तो हम वापस दुबई चले जाएंगे.’

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