गांवों के देश में पत्रकारिता का शहरी मिजाज
मौजूदा स्थितियों में मांग की जानी चाहिए कि पत्रकारिता के प्रशिक्षण संस्थानों से प्रशिक्षण लेने वालों को सीधे शहरों में नियुक्ति देने या लेने से पहले ग्रामीण इलाके में जाना अनिवार्य होगा. मीडिया कंपनियों के लिए भी यह अनिवार्य होगा कि वे प्रशिक्षण के बाद सीधे मुख्यालय में नियुक्ति के बजाय ग्रामीण इलाकों में पहली नियुक्ति दें. कंपनियां ग्रामीण इलाकों की खबरों के लिए जिन लोगों की अंशकालीन नियुक्ति करती हैं उनमें अधिकतर को इतनी राशि भी नहीं दी जाती है कि वे ठीक ढंग से दो वक्त का खाना खा सकें और परिवार पाल सकें. उनके बारे में आमतौर पर यह धारणा भी बनी हुई है कि उनमें से ज्यादातर पत्रकारिता की ताकत का इस्तेमाल अपने हितों में करते हैं जो आखिरकार स्थानीय संवाददाताओं के पूर्वाग्रहों के रूप में सामने आते हैं. इस बात को भी अनदेखा किया जाता है कि दूरदराज के इलाके से खबरें देने वाले लोग सचमुच वैसे खतरों से घिरे रहते है जो आखिरकार उनके लिए जानलेवा साबित होते हैं. बड़े शहरों में वैसे खतरे बहुत कम होते हैं और उनकी सुरक्षा के लिए संरक्षण और संस्थाएं भी खड़ी रहती हैं.
शहरों में पत्रकारिता का प्रशिक्षण लेने वालों के पास दूरदराज के इलाकों में काम करने का कोई तजुर्बा नहीं होता है, न ही दूरदराज के इलाकों के जीवन और समाज के बारे में अनुभव. एक सर्वेक्षण करें तो हम यह आसानी से पा सकते हैं कि सरकार के नए कृषि चैनल ‘डीडी किसान’ में अधिकतर पत्रकारों का कृषि से प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष कोई रिश्ता नहीं रहा है. कृषि चैनल पर कृषि और पत्रकार के रिश्ते के कई हास्यास्पद किस्से सुनने को मिल सकते हैं. यह कोई नई बात नहीं है. गांवों के इस देश में पत्रकारिता शहरी मिजाज और शहरी भाषा से ही होती रही है. पहले इस भूमिका में आने वाले लोगों में ज्यादातर की पृष्ठभूमि ग्रामीण होती थी. लिहाजा पत्रकार की समझ में ग्रामीण पृष्ठभूमि और शहरी प्रशिक्षण का एक संतुलन दिख सकता है लेकिन मौजूदा दौर में बेहद शहरी माहौल और मिजाज के साथ गांवों के इस देश में पत्रकारिता बेहद तकलीफदेह साबित हो रही है.
ग्रामीण स्तर पर शुरुआती तैनाती (पोस्टिंग) के बाद शहरों की तरफ प्रशिक्षित पत्रकारों के आने से पत्रकारिता की समझ में थोड़ा फर्क पड़ सकता है. पत्रकारिता के लिए बुनियादी काम करने वाले अप्रशिक्षित पत्रकारों व संवाददाताओं के लिए एक नए तरह का अनुभव साबित होगा. इस समय पत्रकारिता में ‘पहली नियुक्ति, पहले गांव’ के नारे जैसे एक नए प्रयोग की जरूरत है.
[/box]विदर्भ में मीडिया संस्थानों की सामाजिक पृष्ठभूमि को लेकर शोध छात्र दिनेश मुरार ने एक अध्ययन किया. उसमें ये तथ्य सामने आए कि विदर्भ के दैनिक अखबारों के संपादकीय प्रमुख के पदों पर 100 प्रतिशत नियंत्रण सवर्ण पुरुषों का है. विदर्भ की पत्रकारिता में 42 प्रतिशत सवर्ण, 43 प्रतिशत पिछड़ा वर्ग, 14 प्रतिशत दलित और केवल 1 प्रतिशत आदिवासी पत्रकार हैं. लैंगिक आधार पर विदर्भ की पत्रकारिता में 91 प्रतिशत पुरुष और केवल 9 प्रतिशत महिलाएं हैं. विदर्भ में भी खासतौर पर हिन्दी में सवर्ण वर्चस्व दिखता है. लोकमत समूह की हिंदी इकाई ‘दैनिक लोकमत समाचार’ में 12 प्रतिशत पत्रकार दलित, 4 प्रतिशत पत्रकार आदिवासी, 24 प्रतिशत पत्रकार पिछड़े वर्ग और 60 प्रतिशत पत्रकार सवर्ण हैं. हिन्दी अखबार दैनिक भास्कर में 3 प्रतिशत दलित, 27 प्रतिशत पत्रकार पिछड़े वर्ग के और 70 प्रतिशत पत्रकार सवर्ण हैं. इस संस्थान में एक भी पत्रकार आदिवासी नही हैं. हिन्दी पत्र नवभारत में 17 प्रतिशत पत्रकार दलित, 28 प्रतिशत पत्रकार पिछड़े वर्ग से और 55 प्रतिशत पत्रकार सवर्ण हैं. इस संस्थान में भी आदिवासी पत्रकार नहीं हैं.
मीडिया स्टडीज ग्रुप के देश के 620 जिलों में मीडियाकर्मियों की आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से जुड़े तथ्यों में एक यह भी है कि झारखंड के गोड्डा में तीन सरकारी मान्यता प्राप्त पत्रकारों में एक भी न तो दलित है और न आदिवासी है. छत्तीसगढ़ के जशपुर में चार मान्यता प्राप्त पत्रकारों में तीन ब्राह्मण और एक बनिया है. ओडिशा के मल्कानगिरी में 22 मान्यता प्राप्त पत्रकारों में 19 सवर्ण, 2 दलित और एक पिछड़ा है. पूरे देश में जिला स्तर पर एक प्रतिशत भी दलित और आदिवासी पत्रकार नहीं होंगे. भारतीय समाज को योग्यता के पैमाने को इस रूप में समझना होगा कि वह वंचितों को वंचित रखने के नजरिये के साथ विकसित हुए हैं. भारतीय लोकतांत्रिक नजरिये से भारतीय मीडिया में योग्यता का पैमाना बनाया नहीं जा सका है.
निजी क्षेत्र बनाम सरकारी क्षेत्र
सरकारी मीडिया में भी महिलाओं और सामाजिक स्तर पर पिछड़े वर्गों को प्रतिनिधित्व नहीं मिलता. रेडियो, राज्यसभा टीवी, लोकसभा टीवी, दूरदर्शन के विज्ञापनों में आरक्षण शब्द तक की चर्चा नहीं होती है. दूरदर्शन और आकाशवाणी में सामाजिक वर्गों के संवैधानिक प्रावधानों के मुताबिक प्रतिनिधित्व नहीं है. मीडिया के दो बड़े संस्थानों आकाशवाणी और दूरदर्शन में 40 हजार से ज्यादा कर्मचारी हैं. आकाशवाणी दूरदर्शन के मुकाबले बड़ा संगठन है, लेकिन संसद की एक रिपोर्ट के मुताबिक वहां ‘क’ श्रेणी के पदों पर केवल 14 प्रतिशत महिलाएं हैं जबकि दूरदर्शन में 25 प्रतिशत हैं. दूरदर्शन में कुल 4714 दलित और आदिवासी है और उनमें महिलाओं की संख्या 203 और 101 है.
(लेखक रिसर्च जर्नल जन मीडिया और मास मीडिया के संपादक हैं)
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उर्दू मीडिया की स्थिति
ये आंकड़े फरवरी 2010 तक के हैं. राज्यसभा द्वारा प्राप्त सूचनाओं के अनुसार सदन में समाचार पत्रों के प्रतिनिधियों को प्रवेश के लिए मान्यता देने का सिलसिला 1952 से शुरू किया गया. समाचार पत्रों से पहले 1951 में ऑल इंडिया रेडियो को ही ये मान्यता थी. दूरदर्शन को 1965 में ये मान्यता मिली. 1952 में दैनिक आज, अमृत बाजार पत्रिका, हिन्दुस्तान, असम ट्रिब्यून, फ्री प्रेस जर्नल, द हिंदू, द स्टेट्समैन, द टाइम्स ऑफ इंडिया, हिन्दुस्तान टाइम्स, तेज, समाज, जन्मभूमि को मान्यता वाले समाचार पत्रों की सूची में शामिल किया गया लेकिन उर्दू समाचार पत्रों में 1952 और 1993 के बीच केवल एक समाचार पत्र को राज्यसभा में मान्यता दी गई. 2010 में दिल्ली के तीन, बेंगलुरु, लखनऊ, हैदराबाद और रांची के एक-एक उर्दू समाचार पत्र को मान्यता प्राप्त हुई.
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जब तक दलित ओर आदिवाशी का मिडिया में प्रमुख भूमिका में सहभाग नही होगा तबतक लोकशाही का चौथा आधार थम्ब मिडिया नहीं हो सकता.
लोकशाही में यह बहोत चिंता जनक बात है……