चलो चलें, धनियाझोर की ओर…

108_2924-webबाल मृत्य दर के मामले पर खूब बहस चल रही है. गांव और आदिवासी संकट में बताए जाते हैं. इसी बहस के बीच हम (मौजूदा मानकों के हिसाब से अविकसित) वनग्राम धनियाझोर पहुंच गए. यहां 11 जुलाई 2009 को जगोतीन  और सुकलाल के बेटे महेंद्र की असमय मौत हो गई थी. इसके बाद ठीक छह साल गुजर रहे हैं. पांच साल से कम उम्र के किसी बच्चे की मृत्यु नहीं हुई है. साल 1941 में जन्मे प्रताप सिंह मरकाम ने बड़ी जबरदस्त बात कही, ‘बिना कुछ साथ लिए जंगल में जाकर आप कई दिन रह लो, भूख से नहीं मरोगे. शहद मिल जाएगा, जड़ें मिल जाएंगी, फल और भाजियां भी मिलती हैं. शहर में यदि आपके पास खीसे (जेब) में पैसा न हो, तो इंसान जिंदा ही नहीं रह सकता.’

गांव का आधुनिक मतलब है एक पिछड़ी और आनंद से विहीन इकाई. इस इकाई का तोड़ा जाना विकास के लिए जरूरी है. आदिवासी का मतलब माना जाने लगा है गरीब, पिछड़े, अनुत्पादक और विकास न करने देने वाले लोग, जो बहुत सारी जमीन पर कब्जा किए हुए हैं.

थोड़ा सोचा तो हमें लगा कि चलो, बिना कुछ कहे, बिना कोई मानक ज्ञान लिए गांव को देखते हैं और आदिवासियों की बात सुनते हैं. जो वह कहें, उसे सुनना. मन में कोई धारणा न बनाना और यह मानकर न जाना कि यह अपने समाज का कमजोर या पिछड़ा हिस्सा है. बहुत कुछ कह और बताकर हमने बहुत कुछ बिगाड़ लिया है. जितना बताया गया, उतना समझा, देखा और महसूस नहीं किया गया. एक अपराध बोध के चलते अब लगता है कि सुनकर समझने और फिर कुछ मानने से ही प्रायश्चित हो सकेगा. इसी भाव के चलते हमने सोचा कि बस सुनेंगे और जानेंगे. और हम बालाघाट जिले में एक गांव में पहुंच गए. धनियाझोर नाम का यह गांव राजधानी भोपाल से 515 किलोमीटर की दूरी पर है. इस गांव को सपनों के गांव की तरह मैं नहीं देखता. बस एक छोटी से सूचना वहां खींचकर ले गई. सूचना थी कि यह गांव अपनी जरूरत का अनाज पैदा करता है. खेती में रसायनों और मशीनों का उपयोग नहीं करता है.

बालाघाट जिले का धनियाझोर गांव जून 1974 में कान्हा राष्ट्रीय अभयारण्य की स्थापना के दौरान बिना किसी पुनर्वास के मुक्की क्षेत्र से विस्थापित किया गया था. तब सौधर, घुरीला, बिशनपुरा और ओरयीं गांव के 417 परिवार ऐसे हटाए गए कि वे अपने घर से रसोई के बर्तन, पहनने के कपड़े और अनाज भी उठा न पाए. सब तितर-बितर कर दिए गए थे. वन विभाग का तत्कालीन आदेश तो कहता था कि कान्हा अभयारण्य से प्रभावित होने वाले परिवारों का पुनर्वास करते हुए उन्हें उस जगह तक भेजा जाएगा, जहां उन्हें घर और जमीन मिल रही है. उन्हें नकद सहायता भी दी जाएगी, पर ऐसा हुआ नहीं. तब बेघर किए गए कुछ परिवारों ने बालाघाट के बैहर विकासखंड के जंगलों में आकर जमीन के एक छोटे से टुकड़े पर बसना शुरू किया. 41 साल बाद उस बसाहट ने धनियाझोर गांव का रूप ले लिया है. आज के 46 गोंड आदिवासी परिवारों के इस गांव के लोग खेती के उत्पादन और सामाजिक जीवन में कुछ उसूलों के साथ जिंदगी बिता रहे हैं.

आज के दौर में जब इस बात का जोर है कि कृषि का उत्पादन बढ़ाने और फसलों को बीमारी से बचाने के लिए रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों का इस्तेमाल किया ही जाना चाहिए, तब धनियाझोर के इन 46 परिवारों में से कोई भी व्यक्ति अपनी जमीन और फसल के लिए रसायनों का इस्तेमाल नहीं करता है. गांव के मुखिया 74 वर्षीय प्रताप सिंह टेकाम कहते हैं, ‘ऐसा नहीं है कि हमें रासायनिक खाद या कीटनाशकों के बारे में पता नहीं है. गांव में सरकारी लोग भी आते हैं और कंपनी के लोग भी. वे हमें बताते रहे हैं कि इन्हें डालोगे तो उत्पादन बढ़ जाएगा. कीड़े नहीं लगेंगे. और खूब आय होगी. तब हमने आपस में बात की कि जितना धरती दे सकती है, उतना ही तो देगी. यदि हम इन रसायनों का उपयोग करेंगे तो इसका मतलब है कि हम मिट्टी की ताकत और क्षमता से ज्यादा उलीचेंगे. यह तो गलत है. आज मिट्टी की ताकत खींच लेंगे, तो कल क्या बचेगा? कल का भी तो सोचना है?’

तिहारू सिंह टेकाम कहते हैं, ‘हाट बाजार जाओ या फिर जिले में, हर जगह यह कहा जाता है कि यदि उत्पादन बढ़ाना है तो दवाइयां और फला कंपनी की खाद डालनी पड़ेगी. जब हम यह पूछते हैं कि अगर हम खाद डालेंगे तो कब तक डालना पड़ेगा! इसका जवाब आता है कि इसे तो हर बार और बार-बार डालना पड़ेगा. इसका मतलब है कि मिट्टी और धरती को कोई बीमारी तो है नहीं कि एक बार दवाई डाली और वह ठीक हो गई. यह तो जमीन को निचोड़ने का तरीका है. हमने अपने समाज के बुजुर्गों से बात की, जो अच्छी खेती करने वाले लोग हैं. तब यही पता चला कि एक बार खाद डालने के बाद न केवल इसे बार-बार डालना पड़ेगा, बल्कि हर बार एक किलो की बजाय डेढ़ किलो और फिर दो किलो रसायन डालना पड़ेगा. तब समझ में आया कि यह तो जाल जैसा है.’

प्रताप सिंह टेकाम कहते हैं, ‘जमीन की ताकत पत्तियों, गोबर और पानी से है. कोई भी खाद मिट्टी को खराब करेगी. उसकी स्वाभाविक गुणवत्ता को बचाकर रखना सबसे जरूरी है. अगर वह खत्म हो गई तो वह कई सौ सालों तक ठीक नहीं होगी. वह बीमार हो जाएगी. अभी एक एकड़ में 10 कुंतल धान होता है. इसे बढ़ाना क्यों? जितना होता है, उससे कुछ अपनी जरूरत पूरी हो जाती है और कुछ बाजार में बेच आते है. गांव में अगर किसी को दुख होता है या कमी होती है, तो जरूरत के हिसाब से उसे अनाज दे दिया जाता है. जब किसी को ज्यादा अनाज की जरूरत होती है, जैसे शादी के लिए, तो जितना अनाज लोग सहयोग में देते हैं, उससे थोड़ा ज्यादा वह वापस कर देता है.’

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धन्नो सिंह मरकाम के मुताबिक, ‘नए बीज के साथ रसायनों का उपयोग जरूरी होता जा रहा है. अब तक हम केवल वही बीज उपयोग में लाते हैं, जिनसे नया बीज बन सके और जो बिना रसायन के पैदा हो जाए. अब तो अपना बीज बचाना भी कठिन होता जा रहा है क्योंकि इस तरह की खेती के लिए सरकारी मदद नहीं मिलती है.’

बहरहाल, अब भी इस गांव के लोग छह तरह के धान, कोदो, कुटकी, सरसों, मक्का सरीखे अनाज, उरद, मसूर, चना, जैसी दालें उगाते हैं. उनका उत्पादन उनकी जरूरत को पूरा कर देता है. बिना रसायनों के वे भिंडी, लौकी जैसी 10 सब्जियां भी पैदा करते हैं. आठ तरह की भाजी जंगल से ही मिल जाती है. लगभग एक किलोमीटर की दायरे में फैले धनियाझोर गांव में और इसके आस-पास आम के 90 पेड़, पपीते के 70 पेड़, कटहल और इमली के 20 पेड़. लगे हुए हैं. सरसों का तेल उनके उपयोग में अहम है.

इस आदिवासी समाज में जिस तरह लोगों के रहने के लिए घर बने हैं, उसी तरह के घर पशुधन के लिए भी हैं. कोई भेदभाव नहीं. वे अच्छे से जानते हैं कि बिना पशुधन के इस तरह की खेती असंभव है. यही कारण है कि इस गांव के सभी घरों में 5 से लेकर 20 जानवर हैं. जो इन परिवारों को केवल दूध नहीं देते, बल्कि मक्खन भी देते हैं. वे मानते हैं कि जानवर के दूध पर सबसे पहला हक उसके बच्चे का होता है. जब तक पूरा दूध न पी ले, तब तक जानवर का दूध नहीं निकला जाता है. समाज स्वच्छता के अपने मानक बनाता है. हर घर साफ और मिट्टी-गोबर से लिपा हुआ है. अगर स्वच्छता का मतलब केवल शौचालय बनाना नहीं हो तो, इस गांव के घरों और लोगों से ज्यादा कुछ स्वच्छ नहीं है. महुआ से बना मादक पेय आदिवासी समुदाय की पहचान और चरित्र माना जाता रहा है. वे कहते हैं कि महुआ केवल पेय बनाने के काम नहीं आता है. यह भोजन भी रहा है और इसकी गुल्ली से तेल भी बनता है.

जंगल उनके जीवन का केंद्र रहा है, परंतु अब यह उनसे छीना जा रहा है. उन्हें पास के जंगल में प्रवेश की अनुमति नहीं है. प्रताप सिंह कहते हैं, ‘यदि कोई जानवर गांव के किसी व्यक्ति को मार देता है, तो कोई पूछने नहीं आता. साही और जंगली सूअर पूरी फसल उजाड़ देते हैं, तब भी कोई पूछने नहीं आता लेकिन अगर कोई हिरन अपनी मौत भी मर जाए, तो चार गाड़ियां आकार खड़ी हो जाती है. उन्हें लगता है कि हमने जानवर को मारा है.’ जंगल की तरफ देखते हुए वे कहते हैं, ‘इससे हमें अचार (चिरौंजी), मशरूम, कांदे, भाजी, आंवला, इमली और कई बीमारियों की दवाइयां मिलती थीं. अब हम खाली हाथ हैं. बारिश में कड़वा कांदा, गिर्ची कांदा और कनिहा कांदे मिलते हैं. अब मुश्किल होती है क्योंकि जंगल में जा नहीं सकते.  बहुत कुछ बचा होने के बाद भी कुछ चुनौतियां सामने बनी रहती हैं. अब केवल अनाज पैदा कर लेने से जिंदगी नहीं चलती है. अब तो नकद चाहिए क्योंकि इलाज गांव में संभव नहीं. बाहर जाना पड़ता है और फीस देनी पड़ती है, दवाइयां खरीदनी पड़ती हैं. पिछले पांच-छह सालों में जब नकद की जरूरत बढ़ी, तो गांव से बाहर जाना ही पड़ा. अब कुछ लोग पैसा कमाने शहर जाते हैं और वापस भी आ जाते हैं. किसी ने गांव अब तक तो नहीं छोड़ा है. कब तक नहीं छोड़ेंगे, यह कह नहीं सकते.’

गांव की आंगनबाड़ी कार्यकर्ता प्रभा धुर्वे कहती हैं, ‘अब गांव के लोग अपने उत्पादों को बाजार में बेचना चाहते हैं. खूब आम-पपीते होते हैं, खुद नहीं खाते हैं और बाजार में बेचते हैं. गांव की जड़ें बहुत मजबूत हैं, इसीलिए इस गांव में वर्ष 2004-05 के बाद पांच साल से कम उम्र के एक भी बच्चे की मृत्यु नहीं हुई है. गांव की आंगनबाड़ी में दर्ज 33 बच्चों में से दो बच्चियों का वजन कम था. इनमें से राजकुमारी को वर्ष 2012 में पोषण पुनर्वास केंद्र भेजा गया था. वहां उसका इलाज हुआ, जबकि रेखा को गांव में ही अंडा, आलू और घर का खाना सही तरीके से खिलाकर कुपोषण से मुक्त करवा लिया. बहरहाल जन्म लेते ही दो बच्चों की मृत्यु जरूर हुई है. वे कहती हैं कि अब महिलाओं को मूसली खाने को नहीं मिलती है, यह महिलाओं को स्वस्थ बनाती थी.’ वह कहती हैं, ‘धनियाझोर में बच्चों का टीकाकरण होता है. लोग कभी विरोध नहीं करते. बीमारी होने पर अब सबसे पहले इलाज अस्पताल या डाक्टर से करवाते हैं. यह व्यवहार तो ठीक ही बदला है, लेकिन गांव में और जंगल से मिलने वाले खाने को बचाना भी जरूरी है.’

मौसम पर भी गांव के लोगों की नजर बनी हुई है. जिस तरह से मौसम का चक्र और व्यवहार बदला है, वह संकट का संकेत है. प्रताप सिंह बताते हैं कि पहले जब बारिश शुरू होती थी, तब शुरुआती दिनों में खूब पानी गिर जाता था. वह बारिश अच्छे मौसम की बारिश होती थी. फिर थोड़े दिन रुककर बारिश होती थी. अब शुरुआत या तो बहुत तेज बारिश से होती है या बहुत कम बारिश से. दो दिन में ही इतना पानी गिर जाता है कि जमीन तो बहुत गीली हो जाती है, पर धार तेज होने के कारण पानी बह जाता है. इस तरह की बारिश कांदे और पुत्ती (मशरूम) के लिए अच्छी नहीं होती है. हमारी खेती भी ढलान की जमीनों पर है, जिससे थोड़ा पानी ज्यादा दिनों के लिए चाहिए होता है.

आजीविका की कमी से बढ़ रहा तनाव

पिछले 15 सालों में हिरमा बाई की ही मातृ मृत्यु हुई है, लेकिन अब यहां स्थिति बदल रही है. जंगल न जा पाने, आजीविका के अवसरों की कमी और बाजार के लिए नकद धन की बढ़ती जरूरत महिलाओं समेत सबको तनाव और डर दे रही है. अपनी जरूरत को सीमित रखकर गांव वाले जीना चाहते हैं, मगर वक्त उन्हें ऐसा करने नहीं दे रहा है. इस जंगल में 118 वन कम्पार्टमेंट हैं. धनियाझोर के लोगों ने इसमें हिस्सेदारी मांगी है क्योंकि उनका मानना है कि वे जंगल का केवल उपयोग नहीं करते हैं, बल्कि हमेशा से इसे बचाते भी आए हैं. वे सरकार से कहते भी हैं, ‘जब जंगल में आग लगी है तो उसे कौन बुझाता है- हम बुझाते हैं, हमारे गांव का हर बच्चा आग बुझाने जाता है. लेकिन वन अधिकार कानून तो केवल शमशान, गोठान, नाले, सड़क के ही हक देता है. पिछले 20-30 सालों में थोड़ी-बहुत भुखमरी आने का केवल यही कारण है.’ भोपाल और दिल्ली जा कर आ चुके प्रताप सिंह दो वाक्यों में इनसे अपने गांव की तुलना करते हैं, ‘इन शहरों में हमने केवल दो गोड़ (पैर) वाले जानवर देखे, हमारे यहां तो असंख्य हैं. शहर कभी साफ हवा और साफ पानी पैदा नहीं कर सकता, हमारा गांव करता है. मैंने कभी जूते नहीं पहने, शहर जाकर पहने क्योंकि वो लोग मुझ पर हंसते थे, पर हम उन पर नहीं हंसते. गांव हमें अनाज दे सकता है, सब्जी दे सकता है, जंगल हवा देता है, पानी देता है, हरियाली देता है, जानवरों को घर देता है. शहर क्या देता है? बहुत कुछ देता है, पर जो शहर देता है, क्या उसके बिना जीवन संभव नहीं है? शायद है… मगर जो गांव और जंगल देते हैं, क्या उसके बिना जीवन संभव है, यह सोचने वाली बात है.’

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विवाह की लमसना परंपरा

समाज एक संरक्षक की भूमिका में भी रहता ही है. ‘लमसना’ परंपरा के तहत जिया लाल की बेटी फगनी बाई का बैजलपुर के नैन सिंह के साथ विवाह हुआ. धनियाझोर के गोंड समुदाय के जिस आदिवासी परिवार में केवल लड़की होती है, वहां दूसरे परिवार या दूसरे गांव के परिवार के लड़के को सदस्य के रूप में स्थान दिया जाता है. वह लड़का कुछ महीने तक उसी परिवार में रहता है. और यदि परिवार के सदस्य और लड़की उसे ‘लायक’ पाते हैं, तो सहमति होने पर उसका विवाह लड़की से किया जाता है. यदि लड़के को लायक नहीं पाया जाता है, तो वह अपने घर वापस चला जाता है. विवाह के बाद लड़का लड़की के घर पर ही रहता है. इस परंपरा से कहीं कोई टकराव या वैमनस्यता नहीं होता है. फगनी बाई के लिए विवाह का मतलब जबरिया का बंधन नहीं था. फगनी को अगर कभी ये लगे कि उसके जीवन साथी का व्यवहार और शैली मानकों के मुताबिक नहीं है, तो वह सम्मान के साथ अलग भी हो सकती हैं. इसमें उस पर कोई दोषारोपण नहीं होगा. इस तरह की स्त्री के अस्तित्व को सम्मान और समानता का दर्जा देने वाली खुली और जिम्मेदार व्यवस्था क्या आधुनिक समाजों में है? बहरहाल सरकारी पंचायती राज व्यवस्था धनियाझोर गांव को कभी नहीं सुहाई. वे मानते हैं कि इससे हमारे रिश्ते टूटे हैं और अपने की लोगों पर अविश्वास बढ़ा है.

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