बीते दस सालों में उस्ताद महमूद फारूकी ने न सिर्फ अमीर हमजा की रवायती दास्तानों के लुत्फ को तहरीर से तकरीर में पहुंचाया है, बल्कि दास्तानों की एक नई नस्ल को भी जन्म दिया है. इनमें से दो का जिक्र जरूरी है. ‘मंटोइयत’ ने मुझे सिखाया कि कैसे दास्तानगोई का फन किसी की जीवनी बयान करने का लाजवाब तरीका है. इसी जमीन में हमारी टीम ने कबीर, खुसरो, घुम्मी कबाबी और मजाज लखनवी पर दास्तानजादियां बनाईं. उस्ताद का दूसरा कारनामा- ‘दास्तान-ए-सेडिशन’ मेरे लिए सबसे अहम है. बिनायक सेन की गिरफ्तारी और उन पर चले मुकदमे की कहानी को तिलिस्म-ए-होशरुबा की तर्ज पर सुना देना गैरमामूली है. ये दास्तान मेरे लिए शागिर्द के तौर पर एक ऐसा सबक है जिसे मैं बार-बार पढ़ता हूं. डिजिटल डिवाइड और इंटरनेट पर बनाई मेरी दास्तान का ढांचा मुझे इसी से हासिल हुआ. दास्तानगोई के फन के विकास और विस्तार में शैली के इस परिवर्तनात्मक उपयोग को मैं सिंचाई की तरह देखता हूं. इस उपयोग में शैली का मूल अखंड है, पर जो बात, उसके जरिये कही जा रही है, वो लगातार इस शैली को और उपजाऊ बना रही है. अब तक जो हुआ वो मात्र प्रयोग भर है. पर इन प्रयोगों की कामयाबी ने जो हौसला हमें दिया है, उससे अब ये काम शुरू होने जा रहा है. ‘दास्तान राजा विक्रम के इश्क की’ इस काम का आगाज है.
अब जबकि जमीन तैयार हो गई है, बीज बोकर देखे गए हैं और सींचने का इंतजाम शुरू हो गया है. वक़्त के साथ-साथ इस फन की कुदरती सादगी को फैलना होगा. उस रुत को लौटना होगा जिसमें दास्तानें सुनना और सुनाना हमारी रोजाना की जिंदगी का एक हिस्सा था. ये तभी मुमकिन है जब हमारे उस्तादों की नजर का आफताब हमारे िसर पर बना रहे, और दास्तानगोई के चाहनेवालों की गर्मजोशी इस ज़मीन के लिए धूप बने. वो तहजीब आए जब ‘वाह! वाह!’, ‘बहुत खूब’ और ‘क्या बात!’ से महफिल में वो रंग आए जैसे हरी-भरी फसल का होता है. सुखन का जादू यूं िसर चढ़कर बोले जैसे हवा के चलने से लहलाते खेत शोर मचाते हैं. उस जबान की मिठास की फरमाइश ता-कयामत तक की जाएगी.