पंकज-राजनाथ विवाद : देखने के कुछ सीधे और कुछ कम सीधे तरीके

गुजरात में उनके कार्यकाल के वक्त की और भाजपा में प्रधानमंत्री बनने के बाद की अनगिनत अखबारी रपटों को इन अफवाहों के साथ रखकर देखें तो मोदी की यह ‘हरेक पर नजर और नियंत्रण’ वाली छवि कइयों को सच लग सकती है. इस छवि में इजाफा करने का काम हाल ही में अपने मंत्रियों-सांसदों की क्लास सी लेने वाली नरेंद्र मोदी की तस्वीर भी कर देती है और मंत्रियों और नेताओं को मीडिया से दूर रहने की उनकी और पार्टी की हिदायत भी.

इन अफवाहों में कितनी सच्चाई है और कितनी कल्पना की उड़ान, यह तो इनसे पास-दूर से जुड़े लोग ही जानें, लेकिन इनके उड़ने का फायदा बाहरी और अंदरूनी दोनों तरह के मोदी विरोधी खेमों को तो मिल ही सकता है. बाहरी खेमे को ये अफवाहें चुनाव के दौरान उन्हें तानाशाह प्रचारित कर फायदा उठाने के मौके देती हैं तो दूसरे को इसके बाद की स्थिति का फायदा उठा सकने के.

हां, इसे देखने का एक और महत्वपूर्ण नजरिया यह भी है कि सरकार और उसकी तरफ से मीडिया और जनता को जानकारियां मिलना पिछले कुछ समय से न के बराबर हो गया है. जो जानकारियां मिलती भी हैं वे एकतरफा और सूखी सी होती हैं. इसके कुछ फायदे भी हैं जैसे कि सरकार को कोई बात जनता तक पहुंचानी हो तो उसका सुर एक होता है और वह वक्त से पहले, अधपकी अवस्था में बाहर भी नहीं निकलती है. लेकिन यदि मोदी सरकार, जैसाकि भाजपा के नेता-प्रवक्ता दावा करते हैं, पूरे तन-मन-धन से जन-सेवा के उपायों में लगी है, तो यही संपूर्ण चुप्पी वाली व्यवस्था तमाम भ्रामक मान्यताओं को भी जन्म दे सकती है.

एक राज्य की सरकार में इस व्यवस्था के कुछ फायदे हो सकते हैं.. लेकिन हर वक्त और हर जगह वाले मीडिया और ऐसी ही जनता की नजरों मे रहने वाली केंद्र सरकार के लिए ऐसा करते चले जाना मुमकिन और मुनासिब नहीं है. दिल्ली में खबरें न देने का मतलब खबरें न छपना नहीं है.

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