भूपेंद्र सिंह हुड्डा: हाईकमान मेहरबान तो…

साभारः द विब्यून
साभारः द ट्रिब्यून
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साल 2005. मार्च का महीना. हरियाणा विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद प्रदेश कांग्रेस सातवें आसमान पर थी. उसे 90 सदस्यीय विधानसभा में 67 सीटें हासिल हुई थीं. इस पूरी कामयाबी का सेहरा तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष भजनलाल के सिर बांधा जा रहा था. चूंकि पार्टी ने भजनलाल की अध्यक्षता में चुनाव लड़ा था और इतनी शानदार सफलता पाई थी इसलिए यह लगभग तय था कि प्रदेश के अगले मुख्यमंत्री पूर्व मुख्यमंत्री भजनलाल ही बनेंगे. लेकिन पार्टी ने सभी को चौंकाते हुए रोहतक से सांसद भूपेंद्र सिंह हुड्डा को प्रदेश का अगला मुखिया घोषित कर दिया.

पूरे प्रदेश में भजनलाल के समर्थकों ने पार्टी के इस निर्णय का जमकर विरोध किया. भजनलाल कांग्रेस नेतृत्व पर अपनी पीठ में छुरा घोंपने का आरोप लगाते रहे. लेकिन पार्टी ने अपना फैसला बदलने से इंकार कर दिया. हां, भजनलाल के जख्म पर मरहम लगाने के लिए उनके बेटे चंद्रमोहन को, जो बाद में चांद मोहम्मद के रूप में भी जाने गए, उप मुख्यमंत्री बना दिया गया. भजनलाल जब तक जीवित रहे उन्हें इस बात का दुख बना रहा.

2005 में मुख्यमंत्री बनने वाले भूपेंद्र सिंह हुड्डा के नेतृत्व में पार्टी ने 2009 का विधानसभा चुनाव लड़ा. चुनाव में पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में तो उभरी लेकिन बहुमत से काफी दूर थी. जहां 2005 में उसे 67 सीटों की शानदार सफलता मिली थी वहीं इस बार यह संख्या घटकर 40 रह गई थी. खैर, जोड़-तोड़ करते हुए हुड्डा ने भजनलाल के पुत्र कुलदीप विश्नोई की नईनवेली पार्टी हरियाणा जनहित कांग्रेस (हजकां) के विधायकों को तोड़ लिया.

इससे उनकी सरकार तो बन गई लेकिन उसकी वैधता पर पहले दिन से ही सवाल उठने लगे थे.

हाल ही में हुए 16 वीं लोकसभा के चुनावों में भी पार्टी को प्रदेश में भयानक हार का सामना करना पड़ा. हरियाणा उन प्रदेशों में शामिल रहा जहां कांग्रेस का लगभग सूपड़ा साफ हो गया. प्रदेश की 10 लोकसभा सीटों में से उसे सिर्फ एक सीट पर ही जीत मिल सकी. बाकी नौ पर वह बुरी तरह से हार गई. 2009 के लोकसभा चुनाव में राज्य में पार्टी को 10 में से 9 सीटों पर विजय हासिल हुई थी.

आज प्रदेश में पार्टी के भीतर माहौल यह है कि अधिकांश कार्यकर्ता और नेता इस बात को लेकर निश्चित हैं कि आगामी विधानसभा चुनावों में भी पार्टी की दुर्दशा लोकसभा चुनावों जैसी ही होने वाली है. नेताओं के साथ ही प्रदेश की राजनीति को जानने-समझने वाले भी इस बात को बेहद मजबूती के साथ कह रहे हैं. प्रदेश के वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक नवीन एस ग्रेवाल कहते हैं, ‘जिस पार्टी के पास 10 में से नौ लोकसभा सीटें थी आज उसके पास सिर्फ रोहतक सीट बची है. यह कोई आश्चर्य नहीं है. सभी को पता था कि लोकसभा चुनावों में ऐसा ही होगा. आगामी विधानसभा चुनाव में भी पार्टी अपनी हार की संभावना को काफी हद तक स्वीकार कर चुकी है.’

लेकिन ऐसी हालत हुई कैसे? जो पार्टी 2005 में 67 सीटों के साथ सत्ता में आई थी, जो अभी भी सत्ता में है और जिसने 2009 में लोकसभा की 10 में से 9 सीटें जीती थीं वह आज ऐसी स्थिति में कैसे पहुंच गई कि लोकसभा में उसे सिर्फ एक सीट मिली और आगामी विधानसभा चुनाव में उसकी करारी हार की भविष्यवाणियां की जा रही हैं.

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  • 2005 में भजनलाल को पछाड़ते हुए हुड्डा हरियाणा के मुख्यमंत्री बने थे
  • पार्टी नेताओं द्वारा तमाम विरोध के बाद भी हुड्डा हाईकमान के चहेते बने हुए हैं
  • हुड्डा पर हाईकमान की कृपा के तार उनके पुत्र दीपेंद्र हुड्डा की राहुल गांधी से नजदीकी से भी जुड़े हैं
  • जिस हरियाणा में 1972 के बाद से हर पांच साल पर सरकार बदल जाने का चलन रहा था. वहां पर पहली बार हुड्डा के नेतृत्व में 2009 में दोबारा कांग्रेस की सरकार बनी
  • हरियाणा की राजनीति के पितामह पूर्व उप प्रधानमंत्री देवीलाल को लोकसभा चुनावों में तीन बार हराने का रिकॉर्ड हुड्डा के नाम है
  • 2014 लोकसभा चुनाव में हरियाणा से कांग्रेस के टिकट पर सिर्फ हुड्डा के पुत्र दीपेंद्र हुड्डा चुनाव जीते.
  • राहुल की युवा टीम में से केवल ज्योतिरादित्य सिंधिया और दीपेंद्र ही हैं जो पिछला लोकसभा चुनाव जीतने में सफल रहे

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पार्टी के इस कगार तक पहुंचने में भजनलाल की जगह 2005 में मुखिया बनाए गए भूपेंद्र सिंह हुड्डा की प्रमुख भूमिका बताई जाती है. प्रदेश कांग्रेस के एक नेता कहते हैं,‘2005 में सोनिया जी के आशीर्वाद से मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही हुड्डा ने दो चीजों पर फोकस किया. एक उन्होंने उन नेताओं और विधायकों को चुन-चुनकर निपटाया जो उनके मुख्यमंत्री बनने के विरोध में थे. फिर उन्होंने प्रदेश के उन नेताओं को हाशिए पर फेंकना शुरू कर दिया जो भविष्य में उनको चुनौती दे सकते थे. इस तरह पार्टी का संगठन लगातार बर्बाद होता चला गया.’

इसके चलते कुछ समय बाद भजनलाल पार्टी छोड़कर चले गए. वे अकेले बाहर नहीं गए बल्कि अपने साथ पूरे प्रदेश से बड़ी संख्या में कार्यकर्ताओं और नेताओं को भी ले गए. यह पार्टी के लिए एक बड़ा झटका इसलिए भी था कि भजनलाल के साथ ही गैर जाटों की एक बडी संख्या उससे छिटक कर बाहर हो गई थी. 2005 में हुड्डा को मुख्यमंत्री बनवाने में अन्य कई नेताओं के साथ प्रदेश के वरिष्ठ नेता और राज्य सभा सदस्य चौधरी बीरेंद्र  सिंह, गुड़गांव से कांग्रेस के पूर्व सांसद रॉव इंदरजीत सिंह, पूर्व केंद्रीय मंत्री कुमारी शैलजा और फरीदाबाद से पूर्व सांसद अवतार सिंह भड़ाना आदि ने सकारात्मक भूमिका निभाई थी. इंद्रजीत चुनाव से पहले भाजपा में शामिल हो गए और आज केंद्र में राज्य मंत्री हैं. हुड्डा के मुख्यमंत्री बनने के कुछ समय बाद ही इनमें से कइयों ने अपने निर्णय पर अफसोस जताना शुरू कर दिया.

हुड्डा के पहले कार्यकाल के आधे समय तक सबकुछ ठीक ही चलता रहा लेकिन उसके बाद प्रदेश के नेताओं ने हुड्डा के खिलाफ आवाज उठानी शुरू कर दी. हालाकि तब हुड्डा विरोध का यह काम पर्दे के पीछे से ही होता था. वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक कमल जैन कहते हैं, ‘उस समय कोई खुलकर हुड्डा का विरोध करने की स्थित में नहीं था. क्योंकि उन्होंने देखा था कि कैसे भजनलाल जैसे कद्दावर नेता को मजबूरन पार्टी छोड़कर जाना पड़ा था.’ 2009 के विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद इस स्थिति में बदलाव हुआ. चुनाव में बहुमत नहीं मिलने के बाद उनसे नाराज चल रहे नेताओं का हौसला बढ़ता गया. इस तरह पहले जो बातें सतह के नीचे हुआ करती थीं, धीरे-धीरे सार्वजनिक होती चली गईं. आज स्थिति यह है कि कांग्रेस के प्रदेश नेताओं को अपनी सरकार और खासकर हुड्डा से जितनी शिकायतें हैं उतनी तो शायद अन्य राज्यों में विपक्ष को भी सत्तापक्ष से नहीं होंगी.

यह पार्टी के लिए एक बड़ा झटका इसलिए भी था कि भजनलाल के साथ ही गैर जाटों की एक बडी संख्या उससे छिटक कर बाहर हो गई थी

हुड्डा को घेर रहे इन नेताओं की दो प्रमुख शिकायतें रही हैं. पहली यह कि हुड्डा ने विकास के मामले में भेदभाव का बर्ताव किया. अपने पुत्र दीपेंद्र सिंह हुड्डा के संसदीय क्षेत्र रोहतक और उससे लगे क्षेत्रों को छोड़कर अपने नौ साल के कार्यकाल में हुड्डा ने किसी और क्षेत्र पर ध्यान ही नहीं दिया. पार्टी नेताओं का कहना है कि हुड्डा ने जानबूझकर उनके क्षेत्रों में काम नहीं कराया ताकि उन लोगों को क्षेत्र की जनता की नजरों में कमजोर दिखाया जा सके. हुड्डा का विरोध कर रहे नेताओं की दूसरी शिकायत यह है कि हुड्डा ने पूरी प्रदेश कांग्रेस पर अपना कब्जा जमा लिया है.

हुड्डा विरोध की मशाल जला रहे इन नेताओं में आज चौधरी बीरेंद्र  सिंह, कुमारी शैलजा,  राव इंद्रजीत सिंह, अवतार सिंह भड़ाना और राज्य सभा सांसद ईश्वर सिंह आदि प्रमुख हैं. चौधरी बीरेंद्र  सिंह कहते हैं, ‘कांग्रेस के अन्य नेताओं को हुड्डा ने न सिर्फ जानबूझकर कमजोर करने की कोशिश की बल्कि उन नेताओं के क्षेत्रों के साथ विकास के मामले में भेदभाव किया. ऐसे में लोगों का लोकसभा चुनाव हारना अचरज की बात नहीं है. जब आपकी पार्टी की प्रदेश में सरकार है और आप अपने इलाके में ही काम नहीं करा पा रहे हैं तो लोग आपको क्यों वोट देंगे.’

चुनाव से पहले भाजपा का दामन थामने वाले गुड़गांव से सांसद रॉव इंदरजीत सिंह भी जब तक कांग्रेस में रहे हुड्डा पर लगातार हमलावर थे. इंदरजीत का आरोप था कि हुड्डा ने विकास कार्यों को सिर्फ अपने गृहक्षेत्र रोहतक तक सीमित रखा. उन्होंने उस समय आरटीआई के माध्यम से मिली जानकारियां साझा करते हुए दावा किया था कि 2007 से 2012 के बीच हुड्डा सरकार द्वारा की गई घोषणाओं में से 60 फीसदी अकेले रोहतक, झज्जर और पानीपत के लिए की गई थीं.

पार्टी की एक और बड़ी नेता कुमारी शैलजा पिछले तीन सालों से लगातार अपने संसदीय क्षेत्र को विकास के मामले में नजरअंदाज करने का आरोप लगाती रही हैं. शैलजा का कहना है कि हुड्डा सरकार जान-बूझकर उनके संसदीय क्षेत्र अंबाला की अनदेखी करती आ रही है. फरीदाबाद से पार्टी के पूर्व लोकसभा सांसद अवतार सिंह भड़ाना प्रदेश की सरकारी नौकरियों में हुड्डा सरकार द्वारा एक खास समुदाय को तवज्जो देने का आरोप लगाते रहे हैं.

कमल जैन कहते हैं,‘इन नेताओं के आरोप बिलकुल सही थे. विकास के मामले में हुड्डा ने भेदभाव किया है इसमें कोई शक नहीं है. आप रोहतक जाइए. उसके बाद राज्य के बाकी क्षेत्रों को देख आइए. भेदभाव आपको साफ दिख जाएगा.’ चौधरी बीरेंद्र  सिंह कहते हैं, ‘गुड़गांव के विकास को आप हरियाणा का विकास नहीं मान सकते. मध्य हरियाणा के हिस्से जैसे जींद, हिसार समेत फतेहाबाद, कैथल, कुरुक्षेत्र, करनाल आदि इलाकों में तो विकास का कोई नामोनिशान तक नहीं है.’

विकास को लेकर भेदभाव और सुनवाई न होने का आरोप लगाते हुए पिछले कुछ समय में कई कांग्रेसी नेताओं ने पार्टी छोड़ दी है. पानीपत शहर के विधायक बलबीर शाहपाल उन शुरुआती लोगों में से हैं जिन्होंने हुड्डा पर अपने क्षेत्र के साथ भेदभाव का आरोप लगाते हुए पिछले साल के अंत में पार्टी छोड़ी थी. कुछ समय पहले ही पार्टी के पूर्व विधायक कुलबीर सिंह बेनिवाल भी कांग्रेस छोड़कर इंडियन नेशनल लोकदल में शामिल हो गए. इसी तरह हरियाणा कांग्रेस के प्रवक्ता रहे कर्मवीर सैनी ने भी मुख्यमंत्री पर कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करने, विकास में भेदभाव करने  का आरोप लगाते हुए पार्टी से अपने संबंध समाप्त करने की घोषणा कर दी. बेनिवाल कहते हैं, ‘मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने पार्टी के निष्ठावान नेताओं और कार्यकर्ताओं की उपेक्षा की है. कई सालों से मैं मुख्यमंत्री से आदमपुर क्षेत्र में विकास कार्यो की गुहार लगाता आ रहा था लेकिन कोई सुनवाई नहीं की गई. इसलिए मैंने पार्टी छोड़ दी.’

प्रदेश के वरिष्ठ नेता और बिजली मंत्री कैप्टन अजय यादव भी लंबे समय से हुड्डा से नाराज चल रहे हैं. हुड्डा द्वारा उन्हें जानबूझकर साइड-लाइन करने के आरोप लगाने वाले अजय यादव की नाराजगी का आलम यह है कि उन्होंने हाल ही में कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया था. वे मुख्यमंत्री पर आरोप लगाते हैं कि उनके कार्यकाल में दक्षिण हरियाणा (अजय यादव का प्रभाव क्षेत्र) की जानबूझकर उपेक्षा की गई. हालांकि चौबीस घंटे होते-होते उन्होंने इस्तीफा वापस ले लिया. अजय यादव की नाराजगी इस बात से भी थी कि हुड्डा की वजह से उनके बेटे रॉव चिरंजीव को गुड़गांव से लोकसभा चुनाव का टिकट नहीं मिल पाया.

पार्टी के एक नेता तहलका को बताते हैं कि अभी तो यह केवल नेताओं की लिस्ट हैं. पिछले एक साल में हजारों कार्यकर्ता पार्टी छोड़कर जा चुके हैं.

हुड्डा ने सीएम बनने के बाद ही सरकार से लेकर संगठन तक चारों तरफ अपना एकछत्र राज स्थापित करने की शुरूआत कर दी थी. पार्टी के एक नेता कहते हैं, ‘मुख्यमंत्री बनने के कुछ महीने बाद ही ये बात पानी की तरफ साफ हो चुकी थी कि प्रदेश में सरकार से लेकर संगठन तक अब वही होगा जो हुड्डा चाहते हैं.’ हुड्डा के ऊपर पार्टी पर एकाधिकार स्थापित करने का आरोप लगाने वाले नेताओं का मानना है कि 2007 में पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष बनाए गए फूलचंद मुलाना को उन्होंने एक रबर स्टैंप अध्यक्ष के रूप में तब्दील कर दिया. इसका नतीजा यह हुआ कि समय के साथ सरकार और पार्टी के बीच का अंतर खत्म हो गया. 2011 में हिसार लोकसभा उपचुनाव में पार्टी की करारी हार के बाद मुलाना ने इस्तीफा दे दिया था लेकिन उसके बाद भी वे लंबे समय तक प्रदेश अध्यक्ष के पद पर काबिज रहे. पार्टी के एक वरिष्ठ नेता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘जब आपका सीएम आपकी बात नहीं सुनता तो आप पार्टी के पास जाते हैं लेकिन यहां तो पार्टी अध्यक्ष भी सीएम के इशारों पर नाचता है.’  राज्य की राजनीति के जानकार और वरिष्ठ पत्रकार मुकेश भारद्वाज कहते हैं, ‘ मुलाना का पूरा कार्यव्यवहार हुड्डा की कठपुतली जैसा ही रहा.’

आज प्रदेश के नेताओं को अपनी सरकार और खासकर हुड्डा से जितनी शिकायतें हैं उतनी तो शायद अन्य राज्यों में विपक्ष को भी सत्तापक्ष से नहीं होंगी

मुलाना के बाद अशोक तंवर को पार्टी ने हरियाणा का अध्यक्ष बनाया लेकिन मुख्यमंत्री का रबर स्टैंप होने की छवि को तंवर भी नहीं तोड़ पाए. लोकसभा चुनाव हारने के बाद उन्होंने सभी कमेटियों को भंग कर दिया और नए सिरे से कमेटी के गठन की बात की. कमेटियों का गठन शुरु हुआ तो उस पर भी सवाल उठने लगे हैं. तंवर पर ये आरोप लग रहे हैं कि चुन-चुन कर उन्होंने हुड्डा समर्थकों को जिला कमेटियों में शामिल किया है. हुड्डा के विरोधी किसी नेता के समर्थकों को उन कमेटियों में जगह नहीं दी गई है. पार्टी के नेता यह आरोप भी लगाते हैं कि कमेटियों का पुनर्गठन विधानसभा चुनाव से पहले पूरे संगठन में हुड्डा के समर्थकों को भरने के लिए किया गया है ताकि टिकट देने के समय राय लेने की नौबत आए तो वहां हुड्डा समर्थक ही मौजूद रहें.

कुछ नेता हुड्डा पर इस बात का भी आरोप लगाते हैं कि उन्होंने जानबूझकर बीते लोकसभा चुनावों में पार्टी के लोकसभा प्रत्याशियों को हरवाया. हार के कारणों की समीक्षा के लिए बनाई गई एंटनी समिति के समक्ष अपनी बात रखते हुए फरीदाबाद से चुनाव हार चुके अवतार सिंह भड़ाना का कहना था कि मुख्यमंत्री और उनके करीबी लोगों ने पार्टी उम्मीदवारों को हराने के लिए भाजपा उम्मीदवारों का साथ दिया. उनका कहना था कि हुड्डा को केवल अपने बेटे दीपेंद्र सिंह हुड्डा के रोहतक से जीतने से मतलब था. भड़ाना कहते हैं, ‘मैंने समिति को लिखित में सबूत दिये और कहा कि हुड्डा विधानसभा चुनावों में भी यही काम कर सकते हैं.’ यह कहानी बस भड़ाना की नहीं है. बल्कि हारने वाले अधिकांश सांसदों ने पैनल के समक्ष अपनी हार के लिए हुड्डा को ही जिम्मेवार ठहराया.

हुड्डा सरकार में स्वास्थ्य मंत्री किरण चौधरी भी अपने परिजनों के हारने के बाद मुख्यमंत्री पर हमलावर हैं. किरण की बेटी श्रुति चौधरी ने भिवानी महेंद्रगढ़ से चुनाव लड़ा और तीसरे स्थान पर रहीं. किरण का आरोप है कि हुड्डा ने उनकी बेटी को जिताने के लिए कोई प्रयास नहीं किया.

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जो पिछले लोकसभा चुनाव में पार्टी छोड़कर भाजपा के टिकट पर लड़े और जीते

  • कांग्रेस के वरिष्ठ नेता इंद्रजीत कांग्रेस के टिकट पर 2009 में संसद पहुंचे थे. हुड्डा का विरोध करते हुए लोकसभा चुनाव से पहले पार्टी छोड़ दी और भाजपा में शामिल हो गए. 2014 का लोकसभा चुनाव भाजपा से लड़ा और जीता
  • लोकसभा चुनाव से एक महीने पहले तक हुड्डा सरकार में मुख्य संसदीय सचिव (सीपीएस) रहे धर्मवीर सिंह कांग्रेस पार्टी से त्यागपत्र देकर भाजपा से जुड़ गए. भिवानी महेंद्रगढ़ सीट से चुनाव लड़े और जीत दर्ज की
  • लोकसभा चुनाव से साल भर पहले भाजपा से जुड़ने वाले पूर्व कांग्रेसी रमेश कौशिक सोनीपत से चुनाव लड़े और जीतने में सफल रहे

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पार्टी के वरिष्ठ नेता और राज्यसभा सांसद ईश्वर सिंह हुड्डा सरकार में दलितों पर लगातार बढ़ रहे अत्याचार का प्रश्न भी उठाते हैं. वे कहते हैं, ‘हुड्डा के कार्यकाल में दलितों पर अत्याचार लगातार बढ़ा है और प्रदेश सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी.’ इस मुद्दे को लेकर राज्य में कई दलित सम्मेलन कर चुके ईश्वर कहते हैं, ‘हरियाणा के बगल में ही पंजाब है, आप बताइए पिछली बार आपने कब सुना था कि दमन के कारण पूरा का पूरा गांव पलायन कर गया ?’