मौजूदा अच्छे दिनों का परिदृश्य तो और भी भयानक है जिसमें भारतीयता को उसके विचार वैविध्य से मिलने वाली ऊर्जा से वंचित कर कुंठित, हिंसक और मनमाने हिंदू रंग में रंगने की कोशिश की जा रही है, इस मूर्खतापूर्ण आत्मविश्वास के साथ जैसे चार्वाक, लोकायत, सांख्य, बौद्ध, जैन, कबीर, दलितों, आदिवासियों के दर्शन, आचार-विचार और धार्मिकताओं का कभी अस्तित्व ही नहीं रहा. पुराणों की टीकाओं, स्मृतियों के पैरोकारों को सत्ताधारी होने के गुमान के साथ अब काॅरपोरेट का पैसा भी मिल गया है. वे नासमझ और अपनी हीनता के कारण गुस्से से भरे लोगों को उकसाकर हिंसा का पाटा चलाकर मैदान बराबर कर देना चाहते हैं.
एक तरफ यह आलम है तो दूसरी ओर हिन्दी में कलबुर्गी की हत्या के विरोध में साहित्य अकादमी सम्मान लौटाने वाले लेखक उदय प्रकाश से हिसाब-किताब बराबर करने की भी पैंतरेबाजी चल रही है. जो इस क्षुद्रता में लगे हैं, उदय को सुधरने का मौका भी नहीं देना चाहते या फिर उन्हें व्यक्तिगत कुंठाओं को उलीचने की स्वतंत्रता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से भी अधिक प्यारी है. यही झंझावाती समय हिन्दी और दूसरी भाषाओं में सच्चे लेखकों के निर्माण का भी है. बहरहाल एक लेखक की जिंदगी तो कलबुर्गी जैसी ही होनी चाहिए, आसान पहुंच वाले चारागाहों में फैले भेड़ों की तरह झुंड में मैं-मैं करते हुए जीना भी कोई जीना है.