हाथ किसके साथ?

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अगले साल होने वाले आम चुनाव को ध्यान में रखते हुए बिहार में कांग्रेस के सामने तीन रास्ते हैं. या तो वह जनता दल (यूनाइटेड) के साथ गठबंधन करे या फिर लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के साथ. तीसरा रास्ता है अपने बूते पर चुनाव लड़ना. हालांकि राज्य में पार्टी के नेता राजद और लोजपा के साथ गठबंधन के इच्छुक हैं, लेकिन जिस तरह पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी ‘पार्टी का संगठन तैयार करने’ पर जोर दे रहे हैं उससे लगता है कि केंद्रीय नेतृत्व अकेले चुनाव लड़ने को प्राथमिकता देगा.

2009 के लोकसभा चुनाव के दौरान बिहार में कांग्रेस को अकेले मैदान में उतरने को मजबूर होना पड़ा था और उसे मुंह की खानी पड़ी थी. पार्टी को 40 लोकसभा सीटों में से महज दो पर जीत हासिल हुई. इससे पहले वर्ष 2004 में कांग्रेस, राजद और लोजपा के गठबंधन को 29 सीटें मिली थीं. उन चुनावों में झारखंड में भी यह गठजोड़ 14 में से आठ सीटें हासिल करने में कामयाब रहा था. जबकि 2009 में अकेले लड़ने वाली कांग्रेस एक सीट पर सिमट गई थी.

अब जबकि आगामी आम चुनाव को एक साल से भी कम वक्त बचा है कांग्रेस बिहार और झारखंड की कुल 54 सीटों पर अपना प्रदर्शन सुधारने के तौर-तरीके तलाश रही है. जदयू के भाजपा नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) से बाहर निकल जाने के बाद अब वहां कांग्रेस के पास कई विकल्प हैं. पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व बिहार में पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से लगातार चर्चा करके चुनावपूर्व गठबंधन की संभावनाएं तलाश रहा है.
जिन तीन विकल्पों का जिक्र अब तक हुआ है फिलहाल तो उनमें से किसी पर भी कोई फैसला नहीं हुआ है.

पहला विकल्प है जदयू के साथ गठबंधन. बिहार में जदयू-भाजपा गठबंधन टूटने के बाद हुए विश्वासमत के दौरान कांग्रेस ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का समर्थन किया था. बिहार के मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बीच जो सार्वजनिक बयानबाजी हुई उसमें से भी सौहार्द छलक रहा था.  इसके बावजूद पार्टी के अनेक नेता जदयू के साथ चुनावपूर्व गठबंधन को लेकर हिचकिचा रहे हैं. उन्हें लगता है कि नीतीश कुमार पर भरोसा नहीं किया जा सकता. दरअसल अपने गठन के बाद से ही जदयू की राजनीति पूरी तरह कांग्रेस विरोधी रही है. कांग्रेस के नेताओं को डर है कि जदयू के साथ समझौता करके भले ही बड़ी संख्या में सीटें हासिल हो जाएं लेकिन यह गठबंधन लंबा नहीं चलेगा.

कांग्रेस के समक्ष दूसरा विकल्प है लालू प्रसाद यादव के राजद और रामविलास पासवान की लोजपा के साथ गठबंधन. ये दोनों दल लंबे समय तक कांग्रेस के साझेदार रहे हैं और कांग्रेस के साथ उनका कोई विवाद कभी सार्वजनिक नहीं हुआ. कई बार जब सोनिया गांधी विपक्ष के निशाने पर थीं तो लालू प्रसाद यादव ने जमकर उनका बचाव भी किया. बिहार कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं का मानना है कि राजद-लोजपा के साथ गठबंधन पार्टी के लिए लाभदायक साबित हो सकता है. लेकिन इसमें सबसे बड़ी बाधा बहुचर्चित चारा घोटाले में आने वाला फैसला हो सकता है.

इस मामले की सीबीआई जांच में अपना नाम आने के बाद ही लालू को 1997 में बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी थी. रांची स्थित सीबीआई अदालत इस मामले में 15 जुलाई को सजा सुनाने वाली थी. लेकिन खबर लिखे जाने तक सर्वोच्च न्यायालय ने अदालत के फैसले पर रोक लगा दी है. शीर्ष अदालत के सामने अपनी अर्जी में लालू ने कहा था कि इस मामले में सीबीआई अदालत के न्यायाधीश बिहार सरकार के एक मंत्री के रिश्तेदार हैं और उन्हें आशंका है कि वे पक्षपात कर सकते हैं. अदालत ने सीबीआई से 23 जुलाई तक जवाब मांगा है. अब देखना यह है कि सीबीआई अपने जवाब में क्या कहती है.

अगर उसे फैसला सुनाने की हरी झंडी मिल गई और लालू दोषी ठहराए गए तो गठबंधन की संभावनाएं धूमिल हो जाएंगी. कम से कम दो साल की सजा हुई तो लालू वैसे ही चुनाव नहीं लड़ सकेंगे. और सजा की अवधि कम भी हुई तो भी दोषी ठहराया जाना ही उनकी पार्टी के लिए एक बड़ा झटका होगा. ऐसे में कांग्रेस राजद से गठबंधन में हिचकिचाएगी. हालांकि, झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा की अगुवाई में बनी नई सरकार में कांग्रेस और राजद साथ-साथ हैं. लेकिन वहां भी शुरुआत में काफी असमंजस की स्थिति रही. एक बार तो यह भी लगने लगा था कि राजद अलग-थलग पड़ जाएगी.

अब आता है तीसरा विकल्प यानी अकेले अपने बूते पर चुनाव लड़ना. कांग्रेस ने बिहार में 2010 का विधानसभा चुनाव अकेले लड़ा था और उसने गठबंधन के बजाय ‘सांगठनिक ढांचा दोबारा तैयार करने’ पर जोर दिया था. लेकिन उसे 243 सीटों में से महज चार पर जीत हासिल हुई. उस वक्त भी राजद और लोजपा दोनों गठबंधन के इच्छुक थे लेकिन कांग्रेस ने अकेले ही चुनाव लड़ने का फैसला किया था.

2014 के आम चुनावों में भी कांग्रेस आलाकमान केंद्र में राजद और जदयू दोनों का समर्थन पाने का इच्छुक नजर आती है. ऐसे में संभव है वह चुनाव के पहले दोनों में से किसी से गठबंधन न करे. पार्टी के अंदरूनी सूत्र ‘उत्तर प्रदेश मॉडल’ की ओर संकेत कर रहे हैं जहां समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी धुर विरोधी होने के बावजूद केंद्र में संप्रग सरकार को समर्थन दे रही हैं. कांग्रेस लोकसभा के दो बचे सत्रों के दौरान जदयू से बेहतर ताल्लुकात रखना चाहती है ताकि विभिन्न लंबित विधेयकों को आसानी से पारित किया जा सके.