बेपटरी रेल

जब भी झारखंड और रेल का जिक्र आता है तो यह विडंबना सबसे पहले दिमाग पर दस्तक देती है कि आनुपातिक तौर पर रेल विभाग को सर्वाधिक राजस्व दिलाने के बावजूद झारखंड में रेल सुविधाएं सबसे प्रतिकूल स्थिति में हैं. आंकड़ों के मुताबिक रेल मंत्रालय को होने वाली कुल राजस्व प्राप्ति में 40 प्रतिशत हिस्सा झारखंड से आता है जबकि इस राज्य में उन अधूरी रेल परियोजनाओं की भी पूरी फेहरिस्त है जिनकी घोषणा हुए एक दशक से ज्यादा वक्त बीत गया है.

आजादी के छह दशक बाद भी रेलवे झारखंड में सवारियों की सुविधाओं पर माल ढुलाई को तरजीह देता नजर आता है. हम चाईबासा में रहने वाले प्रो. अशोक सेन की बातों को याद करते हैं जिन्होंने कहा था, ‘अगर आपको पूरे झारखंड में रेल का हाल जानना हो तो सिर्फ हमारे इलाके से जान सकती हैं. चाईबासा कोल्हान का एक प्रमुख स्थान है. यहां से जमशेदपुर के बीच अंग्रेजों के जमाने में भी एक ही सवारी गाड़ी चलती थी, विगत वर्ष तक भी एक ही चलती रही. बहुत आंदोलन के बाद एक और गाड़ी का ठहराव हुआ है. अंग्रेजों ने इसे मालगाड़ी के लिए बनाया था, अब के शासक भी इंसानों की बजाय माल को ही ज्यादा तरजीह देते हैं.’ प्रो. अशोक सेन की बातों को अगर पूरे झारखंड के संदर्भ में देखें तो भी स्थितियां कुछ वैसी ही दिखती हैं. सवारी गाड़ियों का टोटा और मालगाड़ियों की भरमार. झारखंड की रेल लाइन उन इलाकों से ही गुजरती हुई ज्यादा दिखेगी जहां से माल की ढुलाई ज्यादा होनी है. वहीं जिन इलाकों में नागरिक सेवाओं के लिए रेलवे की सेवा बहाल होनी है, वह पिछले कई सालों से या तो अधर में लटकी हुई है या जिन योजनाओं के सपने दिखाए भी गए हैं, अधिकांश कछुआ गति से चल रही हैं.

झारखंड में रांची-कोडरमा रेल लाइन सबसे चर्चित है. पिछले 12 साल से यह अधूरी पड़ी है. जब यह योजना बनी थी, तब इसमें 491.19 करोड़ रु. की लागत आने की बात थी, जो अब बढ़कर 1,099.20 करोड़ रु. तक जा पहुंची है लेकिन काम 75 प्रतिशत ही पूरा हो सका है. जब बिहार-झारखंड एक हुआ करते थे, तब दक्षिण बिहार यानी अब के झारखंड के लिए कई योजनाओं का खाका तैयार हुआ था, जिनके निर्माण की गति करीब एक दशक पीछे है. हालांकि जब झारखंड का निर्माण हुआ तो यह उम्मीद जगी कि अब तक बिहार के कई रेलमंत्रियों के सत्ता में रहने के बावजूद बिहार का जो हिस्सा रेलवे सुविधाओं से वंचित रहा है, उसके लिए कुछ काम होगा. इस उम्मीद को राज्य बनने के दो साल बाद ही फरवरी, 2002 में पंख भी लगे, जब रेल मंत्रालय और झारखंड सरकार के बीच 545 किलोमीटर लंबी छह रेल परियोजनाओं के लिए समझौते पर हस्ताक्षर हुए. समझौते के अनुसार इन परियोजनाओं को फरवरी, 2007 तक पूरा कर लिया जाना था लेकिन ऐसा नहीं हुआ. फिर यह तय हुआ कि किसी भी तरह मार्च, 2012 तक इसे पूरा कर लिया जाए लेकिन दो साल का अतिरिक्त समय लेने के बाद किसी तरह एक-दो परियोजनाओं पर रेल का परिचालन शुरू हो सका.

इनमें से एक तो देवघर से दुमका रेल लाइन है, जिस पर 12 जुलाई, 2011 से रेल परिचालन शुरू हुआ और दूसरी मंदारहिल-दुमका-रामपुरहाट परियोजना है, जिसके एक हिस्से मंदारहिल से हंसडीहा के बीच 24 दिसंबर, 2012 को रेल परिचालन शुरू हो सका है. अब यदि नमूने के तौर पर देवघर-दुमका रेलवे लाइन के शुरू हो जाने में आए खर्च का आकलन करें तो इसे 178.24 करोड़ रु. में पूरा कर लिया जाना था लेकिन पांच वर्षों का विलंब हुआ तो इस पर 249.45 करोड़ रु. खर्च करने पड़े. यह तो सिर्फ एक योजना में खर्च की बढ़ोतरी की बात है, जाहिर है जिन शेष परियोजनाओं में देरी हुई है, उनमें भी अब खर्च की राशि काफी बढ़ गई है. शेष परियोजनाओं को आरंभिक समझौते के अनुसार 1,997.00 करोड़ रु में पूरा हो जाना था, जिसकी लागत बढ़कर अब 3,771.00 करोड़ रु पहुंच चुकी है. विलंब की वजह पूछने पर आधिकारिक तौर पर कोई कुछ नहीं कहता.

रेल परियोजनाओं में विलंब होने से झारखंड वासियों को जो नुकसान हो रहा है वह तो हो ही रहा है, राज्य को भी जोरदार चपत लग रही है क्योंकि जिन परियोजनाओं का काम झारखंड में चल रहा है, उनमें समझौते के अनुसार राज्य सरकार को आधी राशि देनी है. पहले जब समझौते पर हस्ताक्षर हुए तो केंद्र और राज्य सरकार के अंशदान का हिस्सा क्रमश: 66.66 और 33.33 तय हुआ था, जिसे बाद में आधा-आधा कर दिया गया. रेल की बदहाली के बारे में राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा कहते हैं, ‘हालिया रेल बजट से ही समझा जा सकता है कि राज्य को रेलवे कितनी तवज्जो दे रहा है. रेल बजट में 67 एक्सप्रेस और 26 नए पैसेंजर ट्रेनों को चलाने की घोषणा हुई, इनमें से एक भी झारखंड से होकर नहीं गुजरने वाली है.’ झारखंड में प्रतिपक्ष के नेता और वरिष्ठ कांग्रेसी राजेंद्र सिंह की दलील थोड़ी अजीब है. वे कहते हैं, ‘पिछले 16 सालों से कांग्रेस का कोई रेल मंत्री बना ही नहीं. अब कांग्रेसी रेल मंत्री बने हैं तो स्थिति सुधरेगी.’ नेता इस मसले पर अपनी पार्टी का बचाव करते हैं, दूसरे को दोष देते हैं लेकिन वे झारखंड में रेल की स्थिति कैसे सुधरे और कैसे परियोजनाएं सही समय पर पूरी हों, इसकी बात नहीं करते.

झारखंड में रेल परियोजनाओं में विलंब होने से बढ़ती असुविधाएं तथा लोगों की उम्मीदों पर लगता ग्रहण एक पक्ष तो है ही, लेकिन बढ़ती परियोजना लागत के कारण राज्य को लगने वाली चपत भी एक समस्या है. संथाल परगना में मंदारहिल-दुमका-रामपुरहाट परियोजना 130 किलोमीटर की परियोजना है. इसे 1995 में मंजूरी मिली थी. शुरुआती लागत 184 करोड़ रुपये तय हुई थी जो वर्तमान में 675 करोड़ रुपये हो चुकी है. स्थिति यह है कि इतने वर्षों बाद लगभग 75 किलोमीटर काम ही पूरा हो सका है. इसी तरह एक रेल लाइन झारखंड के लोहरदगा से टोरी के बीच का है, जिसके बीच की दूरी 44 किलोमीटर है. इस परियोजना को भी 2007 में ही मंजूरी मिली थी. तब इसे 216 करोड़ रु. में पूरा किया जाना था जबकि अब लागत का खाका 347 करोड़ रु. का हो गया है और निर्माण कार्य की बात करें तो विगत माह तक 14-15 किलोमीटर काम ही पूरा होने की बात बताई गई थी.

इसी तरह एक रेल लाइन देवघर-सुलतानगंज के बीच की है. देवघर-सुलतानगंज के बीच का संबंध गहरा है. सावन के महीने में कांवरिए सुलतानगंज से जल लेते हैं, देवघर में शिवमंदिर में चढ़ाते हैं. लाखों लोगों का आना-जाना होता है. इन दोनों स्थानों के बीच रेल लाइन की मंजूरी 2000 में ही मिली थी. लगभग 114 किलोमीटर की दूरी है और जब इस योजना को मंजूरी मिली थी, तब 138 करोड़ रु. लागत की बात थी, अब यह लागत बढ़कर 469 करोड़ रु. तक पहुंच चुकी है लेकिन भूमि के पेंच में अभी यह तय नहीं कि काम कब तक पूरी तरह शुरू होगा और सपना कब हकीकत में बदलेगा.

कुछ ऐसा ही हाल कोडरमा से जुड़ने वाले तीन रेल परियोजनाओं का भी है. कोडरमा से तिलैया के बीच की परियोजना मात्र 64.76 किमी की है. इसकी मंजूरी 2002 में ही मिली हुई है. मंजूरी के समय इस योजना में 418 करोड़ रुपया लागत आने की बात थी, अब यह लागत 479 करोड़ रुपया तक पहुंच चुकी है. तीन नई परियोजनाओं पर भी काम चल रहा है. इसके तहत क्रमश: हंसडीहा-गोड्डा, साहेबगंज-पीरपैंती और साहेबगंज-तीनपहाड़ के बीच रेलवे का दोहरीकरण करना है.

राज्य के नागरिक भी इस गुणाभाग को अच्छी तरह समझते हैं. जिले हंटरगंज के रहने वाले बबलू कहते हैं, ‘राजधानी रांची में ही देखिए न कि इतने सालों में भी वहां से कहां-कहां के लिए ट्रेनें चलती हैं. क्या वहां से ट्रेन के जरिए देश के प्रमुख शहरों में भी सीधे जाना संभव है.’ बबलू की बातें गलत नहीं हैं. झारखंड रेल यात्री संघ के मानद सचिव प्रेम कटारूका कहते हैं, ‘रेल परियोजनाओं में विलंब के लिए केंद्र और राज्य एक-दूसरे को दोष दे सकते हैं लेकिन जो राज्य विभाग को सबसे ज्यादा राजस्व देता है, वहां के नागरिकों का भी रेल सुविधाओं पर कोई हक तो बनता है लेकिन झारखंड की ओर तो रेल मंत्रालय कभी ध्यान ही नहीं देता.’

जहां तक रेलवे के कुल राजस्व में झारखंड के 40 प्रतिशत योगदान की बात है तो उसका हवाला कई संदर्भों से लिया गया है. झारखंड में ट्रेनों का संचालन पूर्व रेलवे, पूर्व मध्य रेलवे और दक्षिण पूर्व रेलवे के अंतर्गत होता है, जिनमें से किसी का जोनल ऑफिस यहां नहीं है. हटिया रेल डिवीजन, रांची के मंडल रेल प्रबंधक गजानन मलय्या कहते हैं, ‘हमारा डिवीजन औसतन 35 करोड़ रुपये प्रति माह राजस्व देता है.’ धनबाद रेल मंडल के वाणिज्यक कर महाप्रबंधक दयानंद कहते हैं कि हमारे मंडल से औसतन प्रति वर्ष करीब 6000 करोड़ रुपये राजस्व दिया जाता है. वैसे धनबाद रेल मंडल के बारे में जानकारी यह है कि इसे देश के 60 रेल मंडलों में दूसरे नंबर का राजस्व मंडल माना जाता है. इस मामले में केवल बिलासपुर मंडल इससे आगे है.

यह हाल तब है जब बिहार के नेताओं का रेलमंत्री बनने का इतिहास रहा है. बिहार के नेताओं की पहली पसंद रेल मंत्रालय रहती है. हालिया वर्षों में ही बिहार के कोटे से जॉर्ज फर्नांडिस, लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान और नीतीश कुमार रेलमंत्री रहे हैं. लंदन से प्रकाशित होने वाले अखबार ‘द इलस्ट्रेटेड लंदन न्यूज’ की कुछ पुरानी कतरनें बताती हैं कि संथालों ने क्षेत्र में रेल लाइन बिछाए जाने का विरोध किया था. इसके लिए जंग भी हुई थी. शायद संथाली तभी जान गए होंगे कि रेल के जरिए माल की ढुलाई तो दिन-रात होगी लेकिन ट्रेनें उनके लिए नहीं चलेंगी. आज भी झारखंड के कई हिस्से में लोगों की ऐसी ही धारणा है. यह धारणा शायद गलत भी नहीं है.