फिल्म पत्रकारिता : पैसा दो, प्रशंसा लो

phdeath2भारतीय सिनेमा बाजार पर अमेरिकी फिल्मों के बढ़ते वर्चस्व की समस्या का निदान निकालने हेतु अंग्रेजों ने 1927-28 में टी. रंगाचारियार की अध्यक्षता में एक सिनेमेटोग्राफ इंक्वायरी कमेटी गठित की. कमेटी का उद्देश्य अमेरिकी फिल्मों के बरक्स ब्रिटिश फिल्मों को बढ़ावा देने पर विचार करना था. इस कमेटी का महत्व इसी से समझा जा सकता है कि लगभग 90 साल बीतने के बाद भी कमेटी की बातें आज भी उतनी ही सच लगती हैं, जितनी 1927-28 में रही होंगी. ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं कि फिर एकबार भारतीय सिनेमा के सामने हॉलीवुड एक बड़ी चुनौती बन कर उभर रहा है, बल्कि इसलिए कि सिनेमा पत्रकारिता की भी जो स्थिति उस समय थी, वही कमोबेश आज भी है.

कमेटी ने उस समय भारतीय सिनेमा के प्रतिनिधि के रूप में दादा साहब फाल्के और हिमांशु राय से भी विचार विनिमय किए. भारतीय समाचार पत्र-पत्रिकाओं में अमेरिकी फिल्मों को तरजीह दिए जाने के सवाल पर हिमांशु राय ने स्पष्ट कहा था, ‘प्रत्येक समाचार पत्र को सीधे फिल्म की टंकित समीक्षा विदेशी निर्माताओं के माध्यम से उपलब्ध करा दी जाती है. समाचार पत्र उसे प्रकाशित करने को इसलिए बाध्य रहते हैं कि इससे उनके व्यवसायिक हित जुडे होते हैं.’ इसी कमेटी की एक गवाही में स्पष्ट कहा गया कि उस समय सिर्फ स्टेट्समैन एकमात्र अखबार था, जो समीक्षाओं में अपने विवेक से छेड़छाड़ करता था, बाकी अखबार ज्यों का त्यों छापते थे. स्टेट्समैन को सिनेमा के बड़े विज्ञापनों से हाथ धोकर इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ता था.

आज स्थितियां इस रूप में बदल गई हैं कि अब अखबारों पर फिल्म कंपनियों को दबाव बनाने की जरूरत नहीं पड़ती, बल्कि अखबारों ने अपने इंटरटेनमेंट पेज की परिकल्पना ही फिल्म कंपनियों को समर्पित कर दी है. कुछ अखबार तो घोषित रूप से अपने सिनेमा के पृष्ठ को ‘एडवर्टोरियल’ कहकर निकाल रहे हैं, तो कुछ लुके-छिपे विज्ञापनों के माध्यम से स्पेस के सौदे तय कर रहे हैं. वहां विज्ञापन नहीं, खबरों से लेकर सितारों के इंटरव्यू तक की कीमत तय है. तेल माफिया द्वारा मार दिए गए मंजूनाथ पर केंद्रित फिल्म बनाने वाले संदीप वर्मा ने एक बातचीत में काफी दर्द के साथ बताया कि किस तरह फिल्म के संवेदनशील विषय के प्रति भी वे ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ को ‘मंजूनाथ’ के लिए जगह देने को राजी नहीं कर सके थे, जबकि इस फिल्म के लिए उन्होंने अपनी सारी पूंजी लगा दी थी और बाद में आईआईएम, लखनऊ के मंजूनाथ के साथियों के सहयोग से वे फिल्म पूरी कर सके. उन्होंने स्पष्ट कहा था, ‘मंजूनाथ पर बनी फिल्म के लिए जगह खरीदना मंजूनाथ की स्मृति का अपमान होता, मैंने इंकार कर दिया.’

वास्तव में मुंबई की मुख्यधारा की फिल्म पत्रकारिता सीधे-सीधे खरीद-फरोख्त पर चल रही है. नई फिल्म की रिलीज के पहले निर्माता की सफलता इसी से मानी जाती है कि वह कितने पत्रकारों को खरीद सका, कितने अखबारों को उपकृत कर सका. उपकृत होने में विज्ञापनों के साथ अब एक नया तुर्रा जुड़ गया है प्रमोशनल इवेंट का. फिल्म स्टार से अब उम्मीद की जाती है कि वे जिस भी शहर में जाएं, वहां के अखबार के दफ्तर में भी पहुंचें, फोटो खिंचाएं और अखबार का महत्व स्पष्ट करें. यह वैसा ही है जैसे सितारे फीस लेकर शादियों में उपस्थित होकर परिवार वालों से निकटता का अभिनय करते हैं. अब अखबार उपकृत हो गए तो चाहे अनचाहे इन पत्रकारों को वही लिखना होता है, जो कलाकार या फिल्मकार लिखवाना चाहते हैं. आश्चर्य नहीं कि आज पीआरओ और मुंबई के फिल्म पत्रकारों में फर्क करना मुश्किल हो गया है. फिल्म की रिलीज के पहले ही अखबारों में आधे-आधे पृष्ठ और पत्रिकाओं में कवर स्टोरी आने लगती है तो स्पष्ट लगता है कि प्रायोजन की हद कहां तक पहुंची है. याद कर सकते हैं किस तरह देश के एक बड़े साप्ताहिक में ऋतिक रोशन पर कवर स्टोरी उनकी पहली फिल्म रिलीज होने के पहले ही छप गई थी. कुछ ही समय पहले जब उसी पत्रिका में भोजपुरी फिल्म स्टार निरहुआ पर तीन पृष्ठों का आलेख छपा तो साफ लग रहा था कि न तो लेखक ने और न ही संपादक ने कभी निरहुआ की कोई फिल्म देखी है. वास्तव में अखबारों में किस फिल्म को कितनी जगह दी जानी है, यह फिल्म से तय नहीं होता, बल्कि दिए गए विज्ञापन के आकार या प्रायोजन की रकम से तय होता है. यहां तक कि सितारों और निर्देशकों के साक्षात्कार के आकार भी कहीं न कहीं आज ऐसे ही तय हो रहे हैं. क्या आप याद कर सकते हैं कि बीते वर्षों में किसी भी सितारे के अभिनय पर कोई समीक्षात्मक टिप्पणी पढ़ी हो? अमिताभ बच्चन से लेकर रणवीर सिंह तक आप सिर्फ और सिर्फ जयकारे ही देख सकते हैं.

हिंदी की सिनेमा पत्रकारिता का यह एक आश्चर्यजनक पहलू है कि इस गति को प्राप्त पत्रकारिता की शुरुआत काफी गरिमापूर्ण तरीके से हुई थी. महादेवी वर्मा, वृंदावन लाल वर्मा, प्रेमचंद, सेठ गोविंद दास, ऋषभ चरण जैन, सत्यकाम विद्यालंकार, जैनेंद्र कुमार, अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध, डॉ.नगेंद्र जैसे श्रेष्ठतम विद्वानों, साहित्यकारों ने सिनेमा पत्रकारिता को अपने सार्थक हस्तक्षेप से समृद्ध करने की कोशिश की. ऋषभ चरण जैन ने तो 1933 में ही ‘चित्रपट’ नाम से पत्रिका निकाली थी, जिसके संपादन में गोपाल सिंह नेपाली, नरोत्तम नागर, संपत लाल पुरोहित जैसे साहित्य और कला जगत की प्रतिष्ठित हस्तियों का सहयोग रहा. बावजूद इसके यह कहने में संकोच नहीं किया जा सकता कि अपेक्षाकृत इस नई कलाविधा के प्रति साहित्यकारों का रुख सद्भावपूर्ण कम, दुराग्रह भरा अधिक था. उन्होंने इस नई कलाविधा को समझने की जरूरत ही नहीं समझी. सिनेमा के प्रति साहित्यकारों के दुराग्रहपूर्ण रवैये ने विचार जगत और सिनेमा के मध्य वांछित पुल को सिरे ही नहीं चढ़ने दिया. सिनेमा पर बात करने के लिए एक नई कसौटी गढ़ने के बजाय परंपरागत कसौटी पर कसकर सिनेमा को वे लगातार खारिज करते रहे और सिनेमा पर बात करने के लिए नासमझों के लिए गुंजाइश बनती गई. ऐसे में बीच-बीच में अरविंद कुमार के संपादन में निकलने वाली ‘माधुरी’, अज्ञेय और फिर रघुवीर सहाय के संपादन में निकलने वाली ‘दिनमान’ ने अवश्य बर्फ पिघलाने की कोशिश की और सिनेमा पर लिखने के लिए कुंवर नारायण, प्रयाग शुक्ल, विजय मोहन सिंह, मंगलेश डबराल, विष्णु खरे, त्रिपुरारी शरण जैसे सक्षम लेखकों का समूह तैयार किया. बाद के दिनों में मध्य प्रदेश फिल्म विकास निगम की सिनेमा पर केंद्रित पत्रिका ‘पटकथा’ भी आई, लेकिन वह इतनी दुरूह थी कि अप्रासंगिक होकर कुल जमा 14 अंकों के बाद ही बंद हो गई.

पश्चिम में सिनेमा के साथ ही सिनेमा पर गंभीर विमर्श की शुरुआत हो गई थी. यह शुरुआत बाहर से नहीं, सिनेमा से जुडे लोगों की पहल से ही हुई थी. सत्यजीत रे कहते थे,‘फिल्म पर लिखने वाले, फिल्मकार और दर्शकों के बीच सेतु का निर्माण करते हैं और यही उनका अहम दायित्व भी है.’ हिंदी साहित्य में जितनी ही शिद्दत से इस ‘सेतु’ की अनिवार्यता आज भी समझी जाती है, हिंदी सिनेमा के लिए यह उतनी ही त्याज्य रही है. जैसे-जैसे सिनेमा को लोकप्रियता मिलती गई, अपने संप्रेषणीयता के अहम में मगन सिनेमा को अपने और दर्शकों के बीच किसी भी सेतु की जरूरत का एहसास खत्म होता चला गया. भारत में भी आरंभिक दौर में दादा साहब फाल्के ने ‘नवयुग’ में कुछेक टिप्पणियां लिखीं, लेकिन बाद में उनके लिए भी कैमरे महत्वपूर्ण हो गए. बांग्ला में सत्यजीत रे और ऋत्विक घटक जैसे फिल्मकारों ने लगातार सिनेमा पर लिखकर एक वृहत्तर समुदाय बनाने की सफल कोशिश की लेकिन हिंदी में किसी भी फिल्मकार ने अपने लेखन से विचार जगत को करीब लाने की कोशिश नहीं की. इसके विपरीत अधिकांश फिल्मकार अपनी बौद्धिक छवि बनाने में संकोच करते दिखे. यहां करण जौहर और डेविड धवन की तो बात ही अलग है, यह श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, प्रकाश झा, महेश भट्ट सरीखे नया सिनेमा, समांतर सिनेमा और कला सिनेमा के एक-एक कर ढहते स्तंभों में भी देखा जा सकता है.

प्रकाश झा ने ‘राजनीति’ की सफलता के बाद कहा था, ‘दामुल के बारे में आज मैं सोच भी नहीं सकता, ऐसी फिल्में क्यों बनाऊंगा जिसे दर्शक देखना ही नहीं चाहे.’ प्रकाश झा के बयानों को देखकर यही लगता है कि ‘दामुल’ बनाकर उन्होंने एक ‘गलती’ की थी. यह कुछ ऐसा ही है कि निर्मल वर्मा कहने लगते मैं ‘चीड़ों पर चांदनी’ नहीं लिखूंगा क्योंकि अब पाठक पढ़ना ही नहीं चाहते, मैं भी गुलशन नंदा और प्रेम वाजपेयी की तरह ‘पिघलता आसमान’ और ‘बरसते नैन’ ही लिखूंगा क्योंकि पाठक यही पढ़ना चाहते हैं.

हिंदी फिल्मकारों ने बेहतर सिनेमा को लोकप्रिय बनाने की दिशा में या फिर सिनेमा को कला परिदृश्य के केंद्र में लाने के लिए स्वयं तो कोई कोशिश नहीं ही की, हिंदी में सिनेमा पर गंभीर पत्रकारिता की परंपरा को हतोत्साहित करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी. आमतौर पर किसी भी कला विधा के समालोचक और पत्रकार अलग होते हैं. दोनों के कार्य भी, दोनों के महत्व भी. एक का महत्व अभिष्ट कला विधा में घट रही दैनंदिनी घटनाओं की सूचना पाठकों तक पहुंचाना है तो दूसरे का उस कला विधा का विश्लेषण कर पाठकों को उसके अधिकाधिक रसास्वादन के लिए तैयार करने का, लेकिन भारतीय सिनेमा शायद ऐसी एकमात्र कला विधा होगी जहां फिल्म समीक्षक और फिल्म पत्रकार में फर्क नहीं किया जाता. जो भी फिल्मों पर लिख रहे हैं सभी फिल्म क्रिटिक मान लिए गए, चाहे वे शूटिंग रिपोर्ट या फिल्म के जनसंपर्क अधिकारियों के द्वारा उपलब्ध सामग्रियों के आधार पर आने वाली फिल्मों की कथा ही क्यों ना प्रस्तुत कर रहे हों. आश्चर्य नहीं कि ‘बजरंगी भाईजान’ की समीक्षा में फिल्म पर बातें कम होती हैं, कबीर खान पर बात कम होती हैं, सलमान के व्यक्तित्व और उनके ‘बीइंग ह्यूमन’ होने की चर्चा अधिक होती है. ये बिरादरी चूंकि फिल्म को प्रमोट करने में सक्षम थी इसलिए फिल्मकारों ने इन्हें ही हाथोंहाथ लिया. कई पत्रकारों को बड़े-बड़े सितारे सार्वजनिक रूप से अपना घनिष्ठ मित्र जाहिर कर गौरवांवित होते थे और गौरवांवित करते थे. यह गंभीर पत्रकारों की पांत कमजोर करने का यह दोहरा षडयंत्र था. आम जनता की नजर में पत्रकारों का रुतबा बढ़ाने का और खास पत्रकार की नजर में अपना रुतबा बनाने का. इसका प्रतिदान देने में पत्रकार भी संकोच नहीं करते. यह कभी उनके लिए लंबा विचारोत्तेजक इंटरव्यू बनाकर दिया जाता तो कभी उन्हें ‘न भूतो न भविष्यति’ अभिनेता के रूप में स्थापित करते हुए प्रोफाइल लिखकर. क्या आश्चर्य नहीं कि हरेक साल आपस में हजारों प्रायोजित अवार्ड बांट लेने वाले हिंदी सिनेमा को सम्मानित करने के लिए कभी पत्रकारों की याद नहीं आती. कमाल है कि क्रिटिक्स अवार्ड की श्रेणी तो बनाई जाती है, क्रिटिक्स के लिए कोई श्रेणी नहीं होती. वास्तव में जिस भाषा में सिनेमा का विस्तार एक कलाविधा के रूप में नहीं, बल्कि व्यवसाय के रूप में किए जाने की संभावना तलाशी जा रही हो, उसके लिए बौद्धिक जगत से दूरी शायद अनिवार्यता भी है.

आज इस स्थिति को लेकर संतोष व्यक्त किया जा सकता है कि हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाओं का सिनेमा को लेकर पूर्वाग्रह थोड़ा ढीला पड़ा है. ‘पहल’, ‘बहुवचन’, ‘पाखी’ से लेकर ‘वागर्थ’ तक में भी सिनेमा पर सामग्रियां दी जा रही हैं लेकिन निश्चित रूप से व्यवसाय के दबाव में गले तक डूबी हिंदी की सिनेमा पत्रकारिता के लिए यह नाकाफी है. इसलिए आश्चर्य नहीं कि हिंदी में सिनेमा पत्रकारिता की जो एक मुकम्मल तस्वीर उभरती है, वह निहायत ही अबौद्धिक और गैर जिम्मेदार है. वास्तव में हिंदी की फिल्म पत्रकारिता अब कलम नहीं, कैमरे के सहारे चल रही है. फिल्म के पन्नों से छपे हुए शब्द धीरे-धीरे बेदखल हो रहे हैं. उनका स्थान बड़ी-बड़ी तस्वीरें ले रही हैं. फिल्म समीक्षा से अधिक स्थान शूटिंग रिपोर्ट को दियाजा जा रहा है. एक वरिष्ठ फिल्म पत्रकार ने बताया, ‘हम जैसे गंभीर बात करने की कोशिश करने वाले लोग अप्रसांगिक होते जा रहे हैं. आज के लड़के एसएमएस से इंटरव्यू कर लेते हैं. कलाकार भी खुश कि पत्रकार से मिलकर समय जाया नहीं करना पड़ा, पत्रकार भी खुश कि घर बैठे नौकरी हो गई.’ वे बताते हैं कि अपने अखबार के आठ इंटरटेनमेंट पृष्ठों में अपने 800 शब्द के कॉलम को बचाने के लिए किस तरह संघर्ष करना पड़ता है.

तय है कि आज भले ही दर्शकों और सिनेमा दोनों को पत्रकारिता की इस स्थिति से फीलगुड हो रहा हो, अंतिम खामियाजा भुगतना सिनेमा को ही पड़ेगा. प्रजातंत्र के इस चौथे स्तंभ का कमजोर पड़ना हमारे समाज के लिए घातक है, उसी तरह फिल्म पत्रकारिता भी कमजोर पड़ती गई तो हिंदी फिल्मों के लिए रास्ते और भी कठिन होते जाएंगे. क्या हॉलीवुड फिल्मों की नई धमक में हिंदी सिनेमा यह आहट नहीं सुन पा रहा है?

(लेखक वरिष्ठ फिल्म पत्रकार हैं)