गुरबत में गूजर

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सभी तस्वीरें: प्रदीप सती

ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ 1857 में हुए पहले घोषित विद्रोह के तीन दशक से भी पहले वह लगभग 1820 के आसपास का दौर था. सहारनपुर और देहरादून के बीच स्थित घने जंगलों में कलवा नाम का एक खूंखार गूजर रहता था. उसका भय इतना ज्यादा था कि उस पूरे इलाके में तैनात अंग्रेज टुकड़ियां भी उससे बहुत खौफ खाती थीं. अंग्रेजों को अपना पक्का दुश्मन मानने वाला कलवा गूजर उन्हें अपनी जमीन से खदेड़ने का ऐलान भी कर चुका था. अन्य गूजरों को संगठित करके उसने कई बार अंग्रेज सिपाहियों पर धावा भी बोला. लेकिन अंग्रेजों की अपार ताकत अंतत: उस पर भारी पड़ी. अपने लगभग 200 साथियों के साथ वह मारा गया. उसके मारे जाने से अंग्रेज इतने खुश थे कि तब उन्होंने कलवा का सिर काट कर देहरादून की जेल के बाहर टांग दिया था.

लगभग 200 साल पहले का यह घटनाक्रम अंग्रेज लेखक जीआरसी विलियम्स की किताब मेम्वार ऑफ देहरादून में कुछ इसी तरह से दर्ज है. इस किताब के अंश बताते हैं कि अंग्रेजों से अपनी जमीन को बचाने के लिए कलवा और उसके साथियों ने कैसे अपनी जान की बाजी तक लगा दी थी. लेकिन तब शायद ही कलवा या उसके साथियों को इसका भान रहा होगा कि अंग्रेजी राज के खत्म हो जाने के बाद जो नया निजाम आएगा वह भी उनके समुदाय के प्रति उपेक्षा का ही भाव रखेगा. आज भी जंगलों में रह रहे वन गूजरों के साथ भले ही ‘सिर काट कर टांग देने’ जैसा बर्ताव न किया जा रहा हो, लेकिन इतने लंबे कालखंड के बाद भी उनके सिर पर एक अदद छत का मयस्सर न हो पाना उनके लिए किसी त्रासदी से कम नहीं है. उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश की सीमा से लगे राजाजी राष्ट्रीय उद्यान में आने वाले जंगलों में रह रहे ये वन गूजर आज भी उसी आदिम दौर में रहने को अभिशप्त हैं जब इंसान के पास जंगल में रहने के सिवा कोई दूसरा चारा ही नहीं होता था. शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसी बुनियादी जरूरतों से कोसों दूर ये गूजर हर उस सुविधा से वंचित हैं जिसे बेहतर जीवन स्तर की न्यूनतम शर्त कहा जा सकता है. इनकी जीवनचर्या आज भी घास पत्ती लाने और जानवरों को पालने तक ही सिमटी हुई है. घासफूस से बनी झोपड़ियों में रहते हुए इन पर एक तरफ जंगली जानवरों का खतरा हमेशा बना रहता है तो दूसरी तरफ कड़े वन कानूनों के चलते अक्सर वन विभाग का निशाना भी इन्हीं वन गूजरों की तरफ रहता है. दो साल पहले राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के सामने अपना दुखड़ा सुनाते हुए वन गूजरों ने अपनी दारुण दशा का जो वर्णन किया था उसको सुनकर आयोग के अध्यक्ष वजाहत हबीबुल्लाह की टिप्पणी थी कि, ‘आजादी के इतने सालों बाद भी इतने बड़े समुदाय को समाज की मुख्यधारा से विमुख करने का काम किसी भी सरकार के लिए लानत का विषय है.’

इन गूजरों की मांग है कि सरकार जल्द से जल्द इन्हें भी उसी तरह कहीं स्थायी रूप से बसाए जैसे कि उसने राजाजी उद्यान के अंदर रहने वाले दूसरे गूजर परिवारों को बसाया है. इसके अलावा ये गूजर खुद के लिए अनुसूचित जाति का दर्जा भी चाहते हैं जैसा उनके समुदाय के लोगों को पड़ोसी राज्य हिमाचल और जम्मू-कश्मीर में मिला है. दरअसल इस उद्यान के अंदर रहने वाले 1300 से अधिक परिवारों को सरकार ने 1998 तक पुनर्वासित कर दिया था. लेकिन बाकी रह गए परिवारों के पुनर्वास की योजना को वह ‘कोल्ड स्टोर’ से बाहर ही नहीं निकाल पाई. इस बारे में सरकार का ताजा रवैया इतना गैरजिम्मेदाराना है कि उसे यह तक नहीं मालूम कि फिलवक्त इस पार्क के अंदर रह रहे वन गूजरों के परिवारों की ठीक-ठीक संख्या कितनी है. इस बारे में पूछे जाने पर उत्तराखंड के प्रमुख वन संरक्षक एसएस शर्मा का यही कहना था कि इन गूजरों के पुनर्वास को लेकर नए सिरे से योजना बनाई जा रही है. अलग-अलग अनुमानों के मुताबिक उत्तराखंड के अलग-अलग वनप्रभागों में इस समय 9000 के करीब गूजर रह रहे हैं.

शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसी बुनियादी जरूरतों से कोसों दूर ये गूजर हर उस सुविधा से वंचित हैं जिसे बेहतर जीवन स्तर की न्यूनतम शर्त कहा जा सकता है

इस सबके बीच 1998 तक पुनर्वासित हो चुके वनगूजर जहां धीरे-धीरे ही सही मुख्यधारा की ओर कुछ कदम बढ़ा चुके हैं, वहीं जंगलों में रहने को मजबूर इन गूजरों के हिस्से में अभी भी लंबा इंतजार ही है. वन गूजरों के हितों को लेकर काम करने वाली गैर सरकारी संस्था रूरल लिटिगेशन एंड एनटाइटलमेंट केंद्र (रूलक) के अध्यक्ष अवधेश कौशल कहते हैं, ‘इसे विसंगति ही कहा जाना चाहिए कि समाज की मुख्यधारा से बहुत पहले से ही कटे हुए ये गूजर परिवार अब अपनी ही बिरादरी वाले पुनर्वासित गूजरों से भी कई मायनों में पिछड़ चुके हैं. ऐसे में इनके पुनर्वास को लेकर की जा रही देरी इन्हें और भी पीछे धकेल देगी’ पुनर्वासित गूजरों की बस्तियों और जंगल में रहने वाले गूजरों के डेरों (झोपड़ी) का सूरतेहाल देखने पर साफ पता चलता है कि पुनर्वास हो जाने और पुनर्वास न हो पाने के चलते एक ही समुदाय के इन लोगों के जीवनस्तर के बीच एक ऐसी लकीर खिंच चुकी है जो लगातार लंबी होती जा रही है.

उत्तराखंड की राजधानी देहरादून से तकरीबन 25 किलोमीटर दूर मोहंड नामक एक जगह है. चारों तरफ से वनों से घिरा यह इलाका जिस राजाजी राष्ट्रीय उद्यान से सटा हुआ है उसी के भीतर वन गूजरों के परिवार कई पीढि़यों से रहते आए हैं. जंगल की तरफ आगे बढ़ने पर उनकी घासफूस की खूबसूरत झोपड़ियां एक-एक करके दिखने लगती हैं. लेकिन इन झोपड़ियों के पास पहुंचने के बाद जो दिखता है उससे इस खूबसूरती का सारा भ्रम एक ही झटके में बिखर जाता है. ऐसी ही एक झोपड़ी में टूटे-फूटे बर्तनों और इधर-उधर बिखरे सामानों के बीच बची-खुची रह गई थोड़ी सी जगह में कई सारे लोगों के रहने का इंतजाम किसी शरणार्थी शिविर सा लगता है. झोपड़ी के पिछली तरफ कुछ बच्चे खेल रहे हैं. तीन से लेकर लगभग 12 साल तक की उम्र वाले इन बच्चों के चेहरों पर पसरी हुई बेफिक्री कहीं से भी यह आभास नहीं करा रही कि अपने भविष्य को लेकर इनके मन में किसी तरह की कोई चिंता होगी.

लेकिन इस चिंता का आभास तब होता है जब 70 साल के अली खान चारपाई से उठ कर हमसे बातचीत करने लगते हैं. इन बच्चों की तरफ इशारा करके वे कहते हैं, ‘अपने बचपन के दिनों में मैं भी इसी तरह बेफिक्री से खेला कूदा करता था. तब मुझे भी नहीं मालूम था कि आने वाला कल कैसा होगा. लेकिन गुमनामी में पूरी जिंदगी जी लेने के बाद आज जब इन बच्चों का भविष्य सोचता हूं तो डर जाता हूं.’ बात आगे बढ़ाते हुए वे कहते हैं, ‘जागरूकता के अभाव मंे हम तो पढ़ाई लिखाई से वंचित रहे ही, और अब हमारी यह नई पीढ़ी भी शिक्षा के हक से पूरी तरह महरूम है. ऐसे में यह सोचकर ही दिमाग सुन्न हो जाता है कि इनका भविष्य क्या होगा.’ इन बच्चों के स्कूल नहीं जाने का कारण पूछे जाने पर उनका जवाब आता है, ‘स्कूल तो तब जाएंगे जब स्कूल नाम की कोई चीज होगी.’

दरअसल राजाजी राष्ट्रीय उद्यान के अंदर रहने वाले जितने भी गूजर परिवार हैं, उनके बच्चों के लिए एक भी सरकारी स्कूल इस इलाके में नहीं है. हालांकि स्वयंसेवी संस्था रूलक द्वारा मोहंड में जरूर एक जूनियर हाई स्कूल खोला गया है, लेकिन सभी गूजर परिवारों के लिए वहां तक पहुंच पाना संभव नहीं है. यही वजह है कि गूजरों की यह सबसे नई पीढ़ी भी अभी तक अनपढ़ ही है. इस स्कूल के प्रधानाचार्य नौशाद मोहम्मद कहते हैं, ‘वन गूजरों के जो परिवार राजाजी राष्ट्रीय उद्यान के बहुत अंदर स्थित डेरों में रहते हैं उनके बच्चों का स्कूल में पहुंच पाना तब तक असंभव है जब तक कि इन परिवारों को पार्क से बाहर नहीं बसाया जाता.’ इस इलाके के वन गूजरों के एक नेता इरशान कहते हैं, ‘अगर वक्त पर हमारा भी पुनर्वास कर दिया जाता तो हमारी यह नई पीढ़ी कुछ पढ़ लिख लेती, लेकिन मालिक जाने ऐसा कब हो सकेगा.’

हरिद्वार शहर से तकरीबन 15 किलोमीटर दूर पथरी नाम की एक जगह है. वन गूजरों के 512 परिवारों को पुनर्वास योजना के तहत यहीं बसाया गया है. इस इलाके में जाते ही वन गूजरों के रहन-सहन की एक दूसरी ही तस्वीर नजर आती है. जंगलों में बने वन गूजरों के घरों के मुकाबले अच्छी तरह व्यवस्थित और ठीक-ठाक सफाई वाले यहां के घरों में अलग-अलग कामकाज में व्यस्त पुरुष और महिलाओं को देख कर ऊर्जा से लबाबल एक हलचल इस पूरी बस्ती में साफ नजर आती है. गूजर बस्ती के शुरू होते ही प्राइमरी स्कूल और जूनियर हाईस्कूल की इमारतें दिखती हैं जिन पर ‘शिक्षार्थ आइए’ और ‘विद्या धनं सर्वधनम् प्रधानम्’ के नारे लिखे हुए हैं. यहां के प्रधान गुलाम मुस्तफा बताते हैं कि उनकी बस्ती के दो बच्चे इन स्कूलों से निकल कर इंजीनियरिंग का कोर्स कर रहे हैं. खुद मुस्तफा की दो बेटियां इन स्कूलों से पढ़ कर इसी बस्ती के स्कूलों में अध्यापक बन चुकी हैं. वे कहते हैं, ‘वन गूजरों को अब समझ में आने लगा है कि बेहतर जीवनस्तर के लिए शिक्षा की अहमियत कितनी है.’ इस बस्ती में वन गूजरों को बसाने के वक्त गूजरों के प्रत्येक परिवार को खेती के लिए अलग से दो-दो हेक्टेयर जमीन भी दी गई थी. इस जमीन में गन्ना और मक्का जैसी नकदी फसलें उगाकर ये गूजर अपनी आमदनी के स्रोतों में भी इजाफा कर चुके हैं. चिलचिलाती धूप के बावजूद अपने खेत में हल चला रहे 55 साल के गूजर इमरान कहते हैं, जंगलों में रहते तो सिर्फ दूध ही बेच रहे होते, लेकिन अब हमारे पास रोजगार के कई और विकल्प भी हैं.

जिनका पुनर्वास हुआ है उनकी जिंदगी थोड़ी बेहतर हुई है. खेती के लिए मिली जमीन और स्कूल जैसी सुविधाओं ने कुछ हद तक उनका जीवन बदला है

हालांकि गूजरों को बसाने का यह काम भी कई अनियमितताओं से भरा रहा है. पथरी में उनके लिए बनाये गए मकानों, शौचालयों और कैटल शैडों के निर्माण तक में भारी गड़बड़ियां उजागर हो चुकी हैं. पथरी में उन्हें बसाये जाने की बाबत गूजरों से किसी भी तरह की सहमति नहीं ली गई थी. इसके अलावा सुरक्षा की दृष्टि से कई बातों को नजरंदाज किए जाने की बातें भी सामने आई थीं. अवधेश कौशल कहते हैं, ‘तब इस जमीन के दलदली होने की बात भी हुई थी, लेकिन सरकार ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया.’ इसी जमीन पर 2006 में गूजरों के साथ ही उनके पशुओं के लिए अस्पताल बनाया गया था. बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो चुका यह अस्पताल इस जमीन के दलदली होने की पुष्टि कर चुका है. गुलाम मुस्तफा बताते हैं, ‘इस बिल्डिंग में बैठने के लिए कोई भी डॉक्टर तैयार नहीं हुआ क्योंकि सभी जानते थे कि यह कभी भी धंस सकती है.’ इसके अलावा पुनर्वास योजना के तहत गूजरों के लिए बनाए जाने वाले शौचालयों, तथा कैटल शैडों का भी अभी शत-प्रतिशत आवंटन होना बाकी है. इस सबसे बड़ी बात यह है कि इन गूजरों को पुनर्वासित किए जाने के इतने सालों के बाद भी जमीन पर इन्हें मालिकाना हक अभी तक नहीं दिया गया है. गुलाम मुस्तफा कहते हैं, ‘हमें आवंटित की गई जमीनों के पट्टे जब तक हमारे नाम नहीं किए जाते तब तक हमारे मन में कई तरह की शंकाएं बनी रहेंगी.’

लेकिन राजाजी उद्यान के जंगलों में रहने वाले गूजरों के मुकाबले देखा जाए तो इतनी सारी दिक्कतों के बाद भी यह बस्ती हर नजरिए से उनसे बीस है. इस बात को स्वीकार करते हुए यहां के कई लोग मानते हैं कि जंगल से बाहर आकर यहां बसना उनके जीवन की दशा और दिशा को बदलने वाला कदम रहा है.

गूजरों के जीवन स्तर की इन दो तस्वीरों का सूरतेहाल समझने के बाद इस बात की पड़ताल जरूरी हो जाती है कि आखिर ऐसी कौन-सी वजहें हैं कि पुनर्वास का लाभ सभी गूजरों के हिस्से में नहीं आ पाया. इस सवाल का जवाब समझने के लिए गूजरों के वनों में रहने से लेकर उन्हें वनों से बाहर बसाने तक के घटनाक्रम पर एक सरसरी नजर डालना जरूरी है.

अपने घुमंतू स्वभाव के लिए जाने जाने वाले वन गूजर कई पीढ़ियों से जंगलों में ही रहते आए हैं. जानवरों को पालना और दूध बेचकर अपनी जरूरत की बाकी चीजों का इंतजाम करना लंबे समय से इनकी जीवनचर्या रही है. कहा जाता है कि चारागाहों की तलाश में यहां से वहां भटकते कई गूजर परिवार सहारनपुर से लेकर देहरादून और रामनगर तक फैले जंगलों में भी पहुंच गए. अब यह इलाका जिम कार्बेट और राजाजी राष्ट्रीय उद्यान के नाम से जाना जाता है. गर्मियों के मौसम में पानी और चारे की किल्लत को देखते हुए ये वन गूजर उत्तराखंड (तब उत्तर प्रदेश) तथा हिमाचल प्रदेश के पहाड़ी इलाकों की तरफ चले जाते थे. कुछ वक्त वहां बिताने के बाद फिर से वापस इन्हीं जंगलों में रह कर ये अपना जीवन यापन करते थे. अंग्रेजी राज से आजादी के बाद तक भी कई सालों तक यह क्रम ऐसे ही चलता रहा. इस बीच देश और दुनिया में तरक्की की नई-नई इबारतें लिखी जा रही थीं. लेकिन इस सबसे बेपरवाह वन गूजर अपनी ही दुनिया में मस्त थे. तब तक न तो सरकारों ने कभी इनको मुख्यधारा में लाने के लिए कोई प्रयास किया और न ही खुद गूजरों ने ही इस दिशा में कोई दिलचस्पी दिखाई. 73 साल के वन गूजर मोहम्मद यूसुफ कहते हैं, ‘हमें तब जंगलों में ही सारा जहान नजर आता था. इसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि एक तो हम अनपढ़ थे और दूसरा कोई भी यह बताने वाला नहीं था जंगलों से बाहर की दुनिया इससे बेहतर है.’

गूजरों के पुनर्वास का काम भी कई अनियमितताओं से भरा रहा है. मकानों,और कैटल शैडों के निर्माण में भारी गड़बड़ियां उजागर हो चुकी हैं

इस बीच पर्यावरण संरक्षण को लेकर दुनियाभर में जागरूकता जोर पकड़ रही थी. भारत सरकार भी वनों को संरक्षित करने के कार्यक्रम बनाने लगी. तब यह विचार प्रमुखता से सामने आया कि वनों की सुरक्षा के लिए आबादी को जंगलों से बाहर किया जाना सबसे जरूरी है. यह 70 के दशक के शुरुआती दौर की बात है. तब पहली बार विस्थापन के नजरिए से सरकार का ध्यान वन गूजरों की तरफ गया. उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा गूजरों के विस्थापन के लिए बनाई गई कार्य योजना में इस सबका जिक्र किया गया है. इस दस्तावेज के मुताबिक वन गूजरों को सुनियोजित तरीके से बसाने का पहला प्रयास 1975 में किया गया था. इसके लिए गूजरों को जंगलों के बीच ही इस तरह से जमीन आवंटित किए जाने का विचार रखा गया, जिससे कि जंगल भी संरक्षित रह सकें और गूजरों को भी ज्यादा परेशानी न उठानी पड़े. लेकिन यह प्रयास सफल नहीं हो सका. इसके बाद 1979 में गूजरों को जंगल से बाहर बसाने की पहल की गई. इस बार प्रत्येक गूजर परिवार को मकान बनाने के लिए 500 वर्ग मीटर तथा खेती के लिए एक हैक्टेयर जमीन देने का प्रावधान रखा गया. लेकिन इस पर गूजर सहमत नहीं हुए. उनका कहना था कि इतनी कम जमीन में न तो उनके जानवरों के लिए चारा होगा और न ही वे अपना पुश्तैनी काम छोड़ कर कोई दूसरा काम कर सकते हैं. पथरी रेंज में पुनर्वासित किए गए गूजरों में से एक शमशेर कहते हैं, ‘इतनी कम जमीन से अपना और अपने जानवरों का गुजारा कैसे किया जा सकता था? इसके अलावा गूजरों को कोई दूसरा काम भी नहीं आता था. इसलिए हमारे बड़े बुजुर्गों ने एक स्वर में इस प्रस्ताव का विरोध कर दिया.’ इसके दो साल बाद 1981 में गढ़वाल मंडल के गूजर परिवारों को जंगल से दूर बसाने की योजना बनाई गई. इसके लिए 50 हेक्टेयर जमीन की जरूरत थी. लेकिन तब सरकार इतनी जमीन नहीं ढूंढ़ पाई और यह मामला भी ठंडे बस्ते में चला गया.

इस बीच राजाजी राष्ट्रीय उद्यान की घोषणा हो जाने से देहरादून तथा सहारनपुर के बीच स्थित जंगल का बड़ा हिस्सा इसमें शामिल हो चुका था, लिहाजा इस परिधि में आने वाले गूजरों को उद्यान से बाहर करना अपरिहार्य हो गया. इसके लिए 1885 में प्रमुख वन सचिव उत्तरप्रदेश की अध्यक्षता में एक बैठक हुई, जिसमें निर्णय किया गया कि इन गूजरों के पुनर्वास के लिए योजना बनाई जाए. इसके बाद सरकार ने हरिद्वार जिले की पथरी रेंज में 512 गूजर परिवारों को बसाने का फैसला किया. इस योजना के तहत प्रत्येक परिवार के लिए दो कमरे, रसोई, नहाने का कमरा, शौचालय, स्टोर रूम तथा जानवरों को बांधने के लिए कैटल शेड बनाने का प्रावधान रखा गया. इस बीच शुरुआती आनाकानी के बाद कुछ गूजर परिवारों ने जंगल छोड़ कर पथरी में पुनर्वासित होने की दिलचस्पी दिखा दी. पिछले दो बार से इस बस्ती के प्रधान चुने जा रहे गुलाम मुस्तफा का परिवार भी इनमें से एक था. वे कहते हैं, ‘जिंदगी भर जंगलों में रहने के बाद हमें इतना समझ में आ चुका था कि अब भी अगर जंगल से बाहर नहीं आ पाए तो आने वाली पीढियों की बर्बादी तय है.’ वे बताते हैं कि देखा-देखी में दूसरे गूजर परिवार भी धीरे-धीरे जंगल छोड़ने लगे. इस बीच धीरे-धीरे गूजर परिवारों की संख्या 512 से कहीं ज्यादा हो गई. 1998 में की गई गणना के बाद केवल राजाजी उद्यान की परिधि में आने वाले गूजर परिवारों की संख्या ही 1390 तक पहुंच गई. लिहाजा इन परिवारों को भी बसाये जाने का काम शुरू हो गया. इन परिवारों को बसाये जाने के लिए पथरी में और जमीन नहीं थी इसलिए 613 परिवारों को पथरी की तर्ज पर ही हरिद्वार जिले में स्थित एक दूसरे स्थान गेंडीखत्ता में बसा दिया गया. इस तरह गूजरों के 1125 परिवारों का पुनर्वास इन दो जगहों पर कर दिया गया.

लेकिन 1998 के बाद गूजरों के पुनर्वास कार्यक्रम पर मानो ब्रेक-सा लग गया जबकि इस बीच राजाजी राष्ट्रीय उद्यान में रहने वाले वन गूजरों की संख्या में भारी बढ़ोतरी हो चुकी थी. पथरी और गैंडीखत्ता में बसाये गए वन गूजरों के बाद भी गूजरों का एक बड़ा तबका विस्थापन की परिधि से बाहर रह गया. इसकी एक बड़ी वजह यही थी कि इन दो जगहों पर उन्हीं वन गूजरों का विस्थापन किया गया, जिनकी गणना 1998 में की गई थी. जबकि सरकार की तरफ से अंतिम गणना 2009 में की गई. इस गणना के बाद अकेले हरिद्वार के चीला वन प्रभाग में ही 228 गूजर परिवार ऐसे थे जिनका विस्थापन नहीं हो सका था. इसके अलावा दूसरे वनप्रभागों में भी गूजर परिवारों की अच्छी खासी संख्या मौजूद थी. लेकिन 1998 में हुए पुनर्वास कार्यक्रम के बाद सरकार ने अपना यह अभियान रोक दिया और जंगलों में रहने वाले गूजरों के परिवार लगातार उपेक्षित होने लगे.

‘ हमें आवंटित की गई जमीनों के पट्टे जब तक हमारे नाम नहीं किए जाते तब तक हमारे मन में कई तरह की शंकाएं बनी रहेंगी ‘ 

इस बीच कड़े वन कानून जंगल में रहने वाले वन गूजरों को मुश्किलों को लगातार बढ़ाते जा रहे थे. साथ ही शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसी चिंताएं भी गूजरों के लिए मुश्किलों का पहाड़ बनाने में लगी हुई थीं. इस सबके बीच रूलक संस्था ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष वजाहत हबीबुल्लाह को पत्र लिख कर उन्हें गूजरों की समस्या बताई. इसके बाद 16 मार्च, 2012 को देहरादून में आयोजित एक सम्मेलन में शिरकत करते हुए राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष हबीबुल्लाह वन गूजरों से रूबरू हुए. उन्होंने गूजरों से उद्यान में ही रहने या फिर पुनर्वास किए जाने की स्थिति में उनकी राय मांगी, जिस पर सभी वन गूजरों ने एक स्वर में जंगलों से बाहर आने की इच्छा जताते हुए अपने लिए उचित पुनर्वास की मांग की.

अवधेश कौशल कहते हैं, ‘जिन गूजरों का पुनर्वास हो चुका है उनके जीवन स्तर में आए परिवर्तन से सीख लेते हुए इन गूजरों को भी समझ में आने लगा था कि जंगलों से बाहर आकर ही उनकी भावी पीढि़यां समाज की मुख्यधारा में शामिल हो सकती हैं.’ गूजरों की राय जान लेने के बाद हबीबुल्लाह ने तीन अप्रैल 2012 को उत्तराखंड सरकार को एक पत्र लिखा. पत्र में उन्होंने सरकार से इन गूजरों का फौरन पुनर्वास करने और इनको अनुसूचित जाति का दर्जा दिए जाने पर विचार करने की बात लिखी. इस पत्र की एक प्रतिलिपि भारत सरकार के जनजातीय कार्य एवं पंचायती राज मंत्रालय को भी भेजी गई थी जिसके बाद इस मंत्रालय ने भी उत्तराखंड सरकार से उचित कदम उठाने को कहा. इस पत्र के मिलने के लगभग एक साल बाद मई, 2013 में उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री विजयय बहुगुणा ने वनगूजरों के पुनर्वास के लिए एक उच्च स्तरीय कमेटी बनाने की बात कही. मुख्य सचिव की अध्यक्षता में बनने वाली इस कमेटी को दो महीने में एक रिपोर्ट बनाने को कहा गया. इस रिपोर्ट में गूजरों के पुनर्वास समेत उन्हें विकास की मुख्यधारा में लाए जाने समेत कई जरूरी पहलुओं को शामिल किया जाना था. इससे अलावा वन गूजरों को अनुसूचित जाति का दर्जा दिए जाने पर उचित फैसला लेने की बात भी मुख्यमंत्री ने कही. लेकिन इसके बाद एक लंबा दौर यूं ही बीत गया. सरकार के बयानों और आश्वासनों से थक चुके गूजरों ने इसके बाद भी सरकार पर दबाव बनाना जारी रखा. इस बारे में चीला रेंज के गूजर नेता इरशाद बताते हैं, ‘विभिन्न संगठनों एवं मंचों के जरिए हम लगातार सरकार पर दबाव बनाते रहे और अपनी मांग को लेकर अडिग बने रहे.’

इस बीच अल्पसंख्यक आयोग तथा केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय भी गूजरों के विस्थापन को लेकर चल रही हीलाहवाली पर चिंता जता चुका था. इसके बाद सरकार ने नवंबर, 2013 में राजाजी राष्ट्रीय उद्यान में रह रहे वन गूजरों के 228 परिवारों के पुनर्वास को मंजूरी देते हुए एक शासनादेश जारी कर दिया. इस शासनादेश में इन परिवारों को हरिद्वार वन प्रभाग स्थित खानपुर रेंज के शाहमंसूर आरक्षित वन में बसाए जाने की बात कही गई. उस वक्त के अपर सचिव वन एवं पर्यावरण मनोज चंद्रन का कहना था कि इन गूजरों को एक माह में प्लॉट आवंटित कर फोटोयुक्त लैमिनेटड पहचान पत्र व कब्जा प्रमाण पत्र मुहैया करा दिया जाएगा. इस शासनादेश के बाद वनगूजरों के साथ ही पर्यावरण संरक्षण की दिशा में काम कर रहे लोगों की उम्मीदों को एक बार फिर से पंख लग गए.

उत्तराखंड में वन गूजरों की एक बड़ी आबादी आज भी जंगलों में रहती है और दुग्ध बेचकर अपना गुजारा करती है.

लेकिन इस सबके बाद भी गूजरों के पुनर्वास का मुद्दा वहीं रह गया. इस दिशा में चल रही कार्रवाई का सबसे ताजा सूरते हाल तो सरकार की मंशा पर कई तरह के सवाल खड़ा करता नजर आता है. बात इसी साल 22 मार्च की है. मुख्य सचिव की अध्यक्षता में वन विभाग के अधिकारियों की एक प्रमुख बैठक हुई. इस बैठक का एकमात्र उद्देश्य राजाजी राष्ट्रीय उद्यान में बचे रह गए वन गूजरों के परिवारों के पुनर्वास को लेकर निर्णय करना था. लेकिन इस बैठक से निकले नतीजे की जानकारी तो दूर की बात है, यह तक पता नहीं लग सका कि बैठक में किन बातों पर चर्चा की गई.

2013 में उत्तराखंड सरकार ने राजाजी नेशनल पार्क में रह रहे वन गूजरों के 228 परिवारों के पुनर्वास के लिए शासनादेश भी जारी किया, लेकिन गाड़ी फिर अटक गई

इस बारे में सूचना के अधिकार के तहत किए गए एक आवेदन के जवाब में वन विभाग ने जो बताया वह तो हैरान करने वाला है. पीपल फॉर एनिमल संस्था की कार्यकर्ता गौरी मौलेखी द्वारा मांगी गई इस सूचना पर वन एवं पर्यावरण अनुभाग के साथ ही वन विभाग ने अपने जवाब में कहा कि वन गूजरों को लेकर हुई बैठक का कार्यवृत्त मुख्य सचिव कार्यालय तथा वन विभाग के स्तर से तैयार किया जाना था, लेकिन दोनों ही स्तर पर इस दिशा में कोई कार्रवाई नहीं की गई. इस जवाब का सीधा मतलब यह था कि विभाग ने वन गूजरों के पुनर्वास को लेकर उस बैठक में कुछ भी नहीं किया. वन विभाग के इस जवाब से प्रदेश के राज्य सूचना आयोग ने भी खासी नाराजगी जताई थी. गौरी मौलेखी द्वारा आयोग का दरवाजा खटखटाए जाने के बाद इस मामले की सुनवाई कर रहे सूचना आयुक्त प्रभात डबराल ने कड़ी टिप्पणी करते हुए इसे ‘स्वस्थ प्रशासन के लिहाज से बेहद निराशजनक’ माना.

बहरहाल राजाजी राष्ट्रीय पार्क में रह रहे वन गूजरों के पुनर्वास का मामला पूरी तरह से सरकारी उदासीनता की भेंट चढा हुआ है. यह भी तय है कि अगले कुछ दिनों में भी सरकार का जोर पंचायत चुनावों और विधानसभा के उपचुनावों की तरफ ही लगा रहेगा. इस बीच तहलका द्वारा पूछे जाने पर वन विभाग के उच्च अधिकारी फिर से एक नई योजना बनाने की बात कर चुके हैं. वन विभाग के इस जवाब का आशय यही है कि फिलहाल इन वन गूजरों को जंगलों में ही रहना होगा. बेशक कई लोग इसे वन गूजरों की नियति कह सकते हैं लेकिन मोहंड के पास स्थित जंगल में रहने वाले 78 साल के बुजुर्ग वन गूजर मोहम्मद आलम के शब्दों में कहें तो यह मसला नियति का नहीं बल्कि नीयत का है.