नाउम्मीद नहीं हैं यूनियन
बीते दो-तीन दशकों से पत्रकारों को सुरक्षा नहीं दे पाने की वजह से यूनियन ने अपनी प्रासंगिकता खो सी दी है लेकिन बीते कुछ सालों में पत्रकारों ने मीडिया संस्थानों या कंपनियों के लगातार बढ़ रहे शोषण के खिलाफ लड़ने के अलावा कोई और विकल्प बचा हुआ न देख यूनियन से नजदीकियां बढ़ाई है. एमजे. पांडेय ने बताया, ‘वे यूनियन के भविष्य को लेकर नाउम्मीद नहीं हुए हैं. यह सही है कि पत्रकारिता संस्थानों से पढ़कर निकले बच्चों को जर्नलिस्ट एक्ट और प्रेस एक्ट के बारे में ज्यादा पता नहीं है लेकिन वे अपने नागरिक और कर्मचारियों के अधिकारों को लेकर सजग हो रहे हैं और लड़ने के मूड में दिख रहे हैं. यह एक अच्छा संकेत है. आप इसे वेज बोर्ड की सिफारिशों को लागू करवाने के संदर्भ में देख सकते हैं.’ कभी पत्रकार रहे और अब वकालत कर रहे ब्रह्मानंद पांडेय ने जानकारी दी कि वे अलग-अलग मीडिया संस्थानों से केवल मजीठिया की मांग वाले लगभग एक हजार पत्रकारों की लड़ाई रहे हैं.
बदल रही है प्रेस क्लब की छवि
देश में प्रेस क्लब की छवि शाम को शराब पीने के अड्डे के तौर पर बन चुकी है. एक पत्रकार ने अपना अनुभव साझा करते हुए बताया, ‘मुझसे प्रेस क्लब के चुनाव के तीन-चार महीने पहले किसी ने क्लब की मेंबरशिप लेने के लिए कहा तो मैंने पूछा कि क्या करूंगा मेंबरशिप लेकर. उनका जबाव था कि शहर के केंद्र में किसी के साथ मिलने-जुलने और खाने-पीने की इससे सस्ती जगह और क्या हो सकती है?’ यह हाल दिल्ली स्थित प्रेस क्लब का है. लखनऊ, चंडीगढ़ और मुंबई की छवि भी इससे अलग नहीं है. प्रेस क्लबों में बैठने वाले पत्रकार भी मानते हैं कि यहां पत्रकार के नाम पर बहुत दलाल किस्म के लोग आते-जाते हैं. दलाल से उनका आशय मंत्री, नेताओं और चैनलों के मालिकों के पीआर करने से है. भला ऐसा क्यों न हो जब मुंबई प्रेस क्लब में हर साल एक कोर्स पीआर पत्रकारिता का आयोजन होता है. हालांकि प्रेस क्लब अपनी इस बदनुमा छवि से बाहर आने की कोशिश में जुटा हुआ है. पिछले कुछ सालों से यहां समय-समय पर अलग-अलग विषयों पर सेमिनार या बहसें होने लगी हैं. मानवाधिकार के हनन के सवाल पर भी यहां आयोजित होने वाली चर्चा-बहसों में शामिल किए जाने लगे हैं लेकिन अभी भी क्लब और यूनियन को मीलों का सफर करना बाकी है