यह मुहिम राजनीतिक-वैचारिक उपक्रम है. इसका प्रमाण यह है कि 2014 के लोकसभा चुनाव से पूर्व इसी जमात के अनेक साहित्यकारों ने अपील जारी की थी कि ‘फासीवादी’, ‘नस्लवादी’, और ‘सांप्रदायिक’ नरेंद्र मोदी को मतदान न करें. यह अपील 8 अप्रैल, 2014 के जनसत्ता अखबार में छपी थी. इसमें वाजपेयी और डबराल जैसे लोग भी थे, जिन्होंने पहले ही नरेंद्र मोदी और संघ की विचारधारा को फासीवादी मान लिया था. वे आज कलबुर्गी की हत्या की आड़ में किस वैचारिक स्वतंत्रता की बात कर रहे हैं. इन्हीं लोगों ने या इनकी धारा के लोगों ने इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल लगाने पर उनका गौरवगान किया था. तब जिन फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ ने सम्मान वापस किया था, इन्होंने उनकी आलोचना की थी. 1984 के दंगे उनकी नजर में आई-गई घटना बन गए. जब सिंगूर और नंदीग्राम में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी शासित पश्चिम बंगाल राज्य ने सर्वहारा और अल्पसंख्यकों पर बर्बर हिंसा की थी तब मार्क्सवादी चिंतक नोम चॉम्सकी ने अपील की थी कि मार्क्सवादी सरकार का विरोध न करें और इक्के-दुक्के (इतिहासकार सुमित सरकार और उपन्यासकार महाश्वेता देवी जैसे) लोगों को छोड़कर अधिकांश साहित्यकारों ने मौन-व्रत धारण कर लिया था. तब उन गरीब लोगों की हत्या पर इनकी कलम की स्याही सूख गई थी और संवेदना रेफ्रिजरेटर में बंद हो गई थी.
क्या यह महज संयोग है कि पुरस्कार लौटाने की मुहिम जिस व्यक्ति उदय प्रकाश ने शुरू की, वे 16 वर्षों तक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्णकालिक कार्यकर्ता रहे हैं और प्रगतिशील लेखक संघ से वर्षों तक जुड़े रहे हैं
सरकार के कुछ नीतिगत फैसलों से भी कुछ साहित्यकार प्रभावित हुए हैं. मोदी सरकार आने के बाद ऐसे अनेक लोग हैं जो कई कारणों से दुखी हैं, उनमें से एक वर्ग उन लोगों का है जो एनजीओ चलाता है. सरकार ने विदेशी धन देने वाली फोर्ड फाउंडेशन जैसी विदेशी संस्थाओं पर लगाम लगाने का काम किया है. इसका सीधा प्रभाव ऐसे अनेक एनजीओ पर पड़ा है जिनको कई लेखक चलाते हैं. इनमें से एक गणेश देवी हैं. इनकी संस्था को लगभग 12 करोड़ रुपये का डोनेशन मिला. मैं उनकी ईमानदारी पर सवाल नहीं कर रहा, न ही मैं उनके एनजीओ की गतिविधियों पर सवाल कर रहा हूं लेकिन उन्हें 2014-15 में फोर्ड फाउंडेशन से मिलने वाला धन पहले की तुलना में कम हो गया.
विचारधारा के स्तर पर मिल रही चुनौती से घबराए ये वामपंथी साहित्यकार इन दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं की आड़ में राजनीतिक मुहिम चला रहे हैं, जिनके साथ कुछ स्वतंत्र साहित्यकार भी शामिल हुए हैं. जो ऐसा ही है कि जौ के साथ घुन भी पीसा जाता है.
मैं इतिहास के एक उद्धरण के द्वारा अपनी बात समाप्त करना चाहता हूं. 1919 के भारत सरकार अधिनियम के तहत जब चुनाव हुआ और 1922 में पहली बार प्रांतों में कांग्रेस के लोग मंत्री बने, तब एक विकट स्थिति उत्पन्न हुई. औपनिवेशिक नौकरशाही को जिन मंत्रियों के साथ काम करना था उन्हें वे कल तक गुंडा कहते थे. (पुलिस और नौकरशाही में मौजूद लोग कांग्रेसियों को गुंडा कहते थे) नौकरशाही इन ‘गुंडों’ को सरकार में हजम करने को तैयार नहीं थी. ठीक वही स्थिति है. जिन लोगों को इनमें से अधिकांश लेखक सांप्रदायिक और फासीवादी कहते रहे हैं, उन्हें आज सत्ता में देखकर बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं. खैर, इस घटना से वैचारिक विमर्श का फलक बढ़ेगा और विमर्श पर प्रायोजित वामपंथी एकाधिकारवाद को और भी बड़ी चुनौती मिलेगी. इन साहित्यकारों के यह कार्य ताकत के तर्क का प्रदर्शन है न कि तर्क की ताकत का.
(लेखक भारत नीति प्रतिष्ठान के निदेशक और संघ से जुड़े विचारक हैं)