कद से बड़ी कोशिश

सविता की इस बात को टीम की दूसरी सदस्य ममता आगे बढ़ाती हैं. वह कहती हैं, ‘इस तरह की खबर हम ही दिखा सकते हैं. बड़े-बड़े चैनल्स को बड़े-बड़े मुद्दे चाहिए. वह इन मुद्दों पर रिपोर्टिंग नहीं करते हैं.’ इस तरह बातों-बातों में ममता यह अहसास करा जाती हैं कि कथित बड़े चैनल केवल शहरों तक सीमित हो गए हैं. वे चुनाव या किसी बड़ी आपदा के वक्त ही गांव पहुंचते हैं.

इनकी दिखाई खबरों का असर भी हुआ है. ममता कहती हैं, ‘किसान क्रेडिट कार्ड देने के लिए किसानों से पैसे लिए जा रहे थे. हमने खबर बनाई और दिखाई. बैंक मैनेजर से सवाल किया. हमारी खबर की वजह से इलाके के किसानों को मुफ्त में किसान क्रेडिट कार्ड मिले. पास के स्कूल में कमरों का निर्माण घटिया किस्म की ईंटों से किया जा रहा था. हमने उसकी रिपोर्टिंग की और इस वजह से ईंटों की पूरी खेप वापस भेजी गई. जब हमारी वजह से कुछ अच्छा होता है, किसी को उसका हक मिलता है, तो हम सब को बहुत खुशी होती है और इस खुशी के लिए हम और अधिक मेहनत करना चाहते हैं.’

इस टीम की खबरों से जितना असर हुआ, वो तो है ही, असल बदलाव तो इनके बाहर निकलने और सवाल करने से हुआ है. पूरे इलाके में बेटियों के प्रति सोच में बदलाव आया है. लड़कियों को पढ़ाने और लायक बनाने की कोशिश हो रही है. इस बारे में संतोष बताते हैं, ‘यह इलाका नक्सल-प्रभावित रहा है. शाम होते ही इस इलाके में आना-जाना बंद हो जाता था. लड़कियों का पढ़ना-लिखना तो दूर की बात थी. आज स्थिति ऐसी नहीं है. आज लड़कियां पढ़ रही हैं.’ दरअसल पहली बार इलाके के लोगों को यह दिख रहा है कि उनकी बिटिया बैंक मैनेजर से लेकर बीडीओ तक से सवाल कर रही है. उन्हें यह भी दिख रहा है कि इनके सवाल करने से उनकी जिंदगी की दुश्वारियां थोड़ी कम ही हुई हैं.

किसी स्टोरी को शूट करने जाने से पहले या शूट करके आने के बाद लड़कियां आपस में चर्चा करती हैं. एक पुराने और छांवदार बरगद के पेड़ के नीचे जमनेवाली बैठकी को 'अप्पन समाचार' की सम्पादकीय मीटिंग भी मान सकते हैं. फील्ड में काम करके आने या काम करने जाने से पहले लडकियां आपस में काफी चर्चा करती हैं। इसी चर्चा से स्टोरी तय होती है..फोटोः विकास कुमार
किसी स्टोरी को शूट करने जाने से पहले या शूट करके आने के बाद लड़कियां आपस में चर्चा करती हैं. एक पुराने और छांवदार बरगद के पेड़ के नीचे जमनेवाली बैठकी को ‘अप्पन समाचार’ की सम्पादकीय मीटिंग भी मान सकते हैं. फील्ड में काम करके आने या काम करने जाने से पहले लडकियां आपस में काफी चर्चा करती हैं। इसी चर्चा से स्टोरी तय होती है..
फोटोः विकास कुमार

लेकिन यह कोशिश आसान नहीं रही है. खबरों की खोज में निकलनेवाली लड़कियों और संतोष के सामने इस दौरान कई तरह की दिक्कतें भी आईं, लेकिन इनके बुलंद हौसलों के सामने दिक्कतें छोटी पड़ गईं. संतोष कहते हैं, ‘संसाधनों के मामले में हम शुरू से कमजोर हैं. इस वजह से थोड़ी दिक्कत आती है, लेकिन इस कमी की वजह से यह प्रयास थमेगा नहीं.’

अभी कुछ ही समय पहले की बात है. अमेरिका के एक स्वयंसेवी संस्थान ने टीम से संपर्क किया. उन्होंने कहा कि वे ‘अप्पन समाचार’ को सहयोग देना चाह रहे हैं. संतोष बताते हैं, ‘हमने उनका स्वागत किया. लड़कियां भी खुश थीं, लेकिन जब वे लोग आए तो पता चला कि इस सहयोग के बहाने वे हमारी पूरी मेहनत को हथियाना चाह रहे हैं. हमने लड़कियों के सामने पूरा प्रस्ताव रख दिया और कहा कि वे चुनाव कर लें. लड़कियों और ग्रामीणों ने एक सिरे से उस प्रस्ताव को खारिज कर दिया. हम सहयोग जरूर चाह रहे हैं, लेकिन कोई हमारी कीमत लगाए, यह हमें कतई मंजूर नहीं है.’

स्टोरी एडिट करने के लिए लड़कियों को अपने गांव से करीब-करीब 40 किमी दूर मुजफ्फरपुर शहर में आना पड़ता है. यहां एक वीडियो स्टूडियो ह,ै जिसे राजेश चलाते हैं. राजेश ने इस टीम को अपने यहां स्टोरी एडिट करने की छुट दे रखी है. राजेश का मानना है कि यह बिलकुल ही अलग तरह का काम है सो वो टीम की जितना हो सके मदद करते रहना चाहते हैं.फोटोः विकास कुमार
स्टोरी एडिट करने के लिए लड़कियों को अपने गांव से करीब-करीब 40 किमी दूर मुजफ्फरपुर शहर में आना पड़ता है. यहां एक वीडियो स्टूडियो ह,ै जिसे राजेश चलाते हैं. राजेश ने इस टीम को अपने यहां स्टोरी एडिट करने की छुट दे रखी है. राजेश का मानना है कि यह बिलकुल ही अलग तरह का काम है सो वो टीम की जितना हो सके मदद करते रहना चाहते हैं.
फोटोः विकास कुमार

3 COMMENTS

  1. वाह! बहुत खूब. शाबाश लड़कियों एवं संतोष सारंग. अच्छी पहल. जारी रहे.
    –सनोज कुमार, हाजीपुर (बिहार)

  2. इस टीम की खबरों से जितना असर हुआ, वो तो है ही, असल बदलाव तो इनके बाहर निकलने और सवाल करने से हुआ है. पूरे इलाके में बेटियों के प्रति सोच में बदलाव आया है. लड़कियों को पढ़ाने और लायक बनाने की कोशिश हो रही हैं

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