अकेले नहीं आते बाढ़ और अकाल

इंद्र का एक पुराना नाम, विशेषण है पुरंदर. पुरंदर यानी जो पुरों को, किलों को, शहरों को तोड़ देता है. इस नाम को रखा गया है तो इसका अर्थ यह भी है कि इंद्र के समय में भी शहर नियोजन में कमियां होती थीं. और ऐसे अव्यवस्थित शहरों को इंद्र अपनी वर्षा के प्रहार से ढहा देता था, बहा देता था.

दिल्ली, मुम्बई, चेन्नई, बंगलुरु, जयपुर, हैदराबाद जैसे पुराने, महंगे हो चले आधुनिक हो चले, सभी शहर बारी-बारी ऐसी बाढ़ की चपेट में आ रहे हैं, जैसी बाढ़ उन जगहों में पहले कभी नहीं आती थी.

हमारे देश की समुद्रतटीय रेखा बहुत बड़ी है. पश्चिम में गुजरात के कच्छ से लेकर नीचे कन्याकुमारी घूमते हुए यह रेखा बंगाल में सुंदरबन तक एक बड़ा भाग घूम लेती है. पश्चिमी तट पर बहुत कम, लेकिन पूर्वी तट पर अब समुद्री तूफानों की संख्या और उनकी मारक क्षमता भी बढ़ती जा रही है. अभी कुछ साल पहले ओडिशा और आंध्र प्रदेश में आए चक्रवात की पूर्व सूचना समय रहते मिल जाने से बचाव की तैयारियां बहुत अच्छी हो गई थीं और इस कारण बाकी नुकसान एक तरफ, कीमती जानें बच गईं. लेकिन उसी के कुछ ही दिनों बाद वहां आई बाढ़ में उससे भी ज्यादा नुकसान हो गया था.

हमारे पूर्वी तटों पर समुद्री तूफान आते हैं पर अब नुकसान करने की उनकी क्षमता बढ़ती ही जा रही है. इनके पीछे एक बड़ा कारण है हमारे कुल तटीय प्रदेशों में उन विशेष वनों का लगातार कटते जाना, जिनके कारण ऐसे तूफान तट पर टकराते समय विध्वंस की अपनी ताकत काफी कुछ खो देते थे.

समुद्र और धरती के मिलन बिंदु पर, हजारों वर्षों से एक उत्सव की तरह खड़े ये वन बहुत ही विशिष्ट स्वभाव लिए होते हैं. दिन में दो बार ये खारे पानी में डूबते हैं तो दो बार पीछे से आ रही नदी के मीठे पानी में. मैदान, पहाड़ो में लगे पेड़ों से, वनों से इनकी तुलना करना ठीक नहीं. वनस्पति का ऐसा दर्शन अन्य किसी स्थान पर संभव नहीं. यहां इन पेड़ों की, वनों की जड़ें भी ऊपर रहती है. अंधेरे में, मिट्टी के भीतर नहीं, प्रकाश में, मिट्टी के ऊपर. जड़ें, तना फिर शाखाएं, तीनों का दर्शन एक साथ करा देने वाला यह वृक्ष, उसका पूरा वन इतना सुंदर होता है कि इस प्रजाति का एक नाम हमारे देश में सुंदर, सुंदरी ही रख दिया गया था. उसी से बना है सुंदरबन.

लेकिन आज दुर्भाग्य से हमारा पढ़ा लिखा संसार, हमारे वैज्ञानिक कोई 13-14 प्रदेशों में फैले इस वन के, इस प्रजाति के अपने नाम एकदम से भूल गए हैं. जब भी इन वनों की चर्चा होती है, इन्हें अंग्रेजी नाम मैंग्रोव- से ही जाना जाता है. हमारे ध्यान में भी यह बात नहीं आ पाती कि देश में कम से कम इन प्रदेशों की भाषाओं में, बोलियों में तो इन वनों का नाम होगा, उसके गुणों की स्मृति होगी. प्रसंगवश यहां यह भी जान लें कि मैंग्रोव शब्द भी अंग्रेजी का नहीं है, उस भाषा में यह पुर्तगाली से आया है.

तटीय प्रदेशों से प्रारंभ करें तो पश्चिम में ऊपर गुजराती, कच्छी में इसे चैरव, फिर मराठी, कोंकणी में खारपुटी, तिवर, कन्नड में कांडला काडु, तमिल में सधुप्पू निल्लम काड्ड, तेलुगू में माडा आडवी, उड़िया में झाऊवन कहा जाता है. बांग्ला में तो सुंदरबन सबने सुना ही है. एक नाम मकडसिरा भी है और हिंदी प्रदेश में तो समुद्र के तट से दूर ही है. पर ऐसा नहीं होता कि जो चीज जिस समाज में नहीं है उस समाज की भाषा उसका नाम नहीं रखे. हिंदी में चमरंग वन कहते थे. पर अब यह नए शब्दकोषों से बाहर हो गया है.

शहरों, गांवों में छलनी की तरह छेद कर डाले हमने और मिट्टी की विशाल गुल्लक में पड़ी इस विशाल जलराशि को खींच निकाला. उसमें डाला कुछ नहीं

पर्यावरण को ठीक से जानने वाले बताते हैं कि आंध्र प्रदेश और ओडिशा में खासकर पारद्वीप वाले भाग में चमरंग वनों को विकास के नाम पर खूब उजाड़ा गया है. इसलिए पारद्वीप ऐसे ही एक चक्रवात में बुरी तरह से नष्ट हुआ था. फिर यह भी कहा गया था कि उसके लिए एक मजबूत दीवार बना दी जाएगी.

कुछ ठंडे देशों का अपवाद छोड़ दें तो पूरी दुनिया में धरती और समुद्र के मिलने की जगह पर प्रकृति ने सुरक्षा के ख्याल से ही यह हरी सुंदर दीवार, लंबे-चौड़े सुंदरवन खड़े किए थे. आज हम अपने लालच में इन्हें काटकर उनके बदले पांच गज चौड़ी सीमेंट कंक्रीट की दीवार खड़ी कर सुरक्षित रह जाएंगे- ऐसा सोचना कितनी बड़ी मूर्खता होगी- यह कड़वा सबक हमें समय न सिखाए तो ही ठीक होगा. चौथी की कक्षाओं में यह पढ़ा दिया जाता है कि पृथ्वी के कोई सत्तर प्रतिशत भाग में समुद्र है और धरती बस तीस प्रतिशत ही है. समुद्र के सामने हम नगण्य हैं. ये सुंदरबन, चमरंग वन हमारी गिनती बनी रहे, ऐसी सुरक्षा देते हैं.

दीवारें खड़ी करने से समुद्र पीछे हट जाएगा, तटबंद बना देने से बाढ़ रुक जाएगी, बाहर से अनाज मंगवाकर बांट देने से अकाल दूर हो जाएगा, बुरे विचारों की ऐसी बाढ़ से, अच्छे विचारों के ऐसे ही अकाल से हमारा यह जल संकट बढ़ा है.

राजेंद्र बाबू ने अपने समय में या कहें समय से ही पहले ही समाज का ध्यान ऐसी अनेक बातों की तरफ खींचा था. श्री गोखले से भेंट होने के बाद राजेंद्र बाबू कोई बावन बरस तक सार्वजनिक जीवन में रहे. उनका बचपन जिस गांव में बीता था, उस गांव में नदी नहीं थी, वे तैरना नहीं सीख पाए थे. लेकिन इस बावन बरस के एक लंबे दौर में उन्होंने अपने समाज को देश को अनेक बार डूबने से बचाया था. अंतिम बारह बरस वे देश के सर्वोच्च पद पर रहे. जब वह निर्णायक भूमिका पूरी हुई तो सन 1962 के मई महीने में वे एक दिन रेल में बैठे और दिल्ली से पटना के लिए रवाना हो गए थे. उसी सदाकत आश्रम के एक छोटे से घर में रहने के लिए, जहां से उन्होंने सार्वजनिक जीवन की अपनी लंबी यात्रा प्रारंभ की थी.

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  1. मन को झकझोर देने वाला वृतांत है, आज समाज को ऐसी ही अच्छी सोंच और प्रेरणा की बहुत जरूरत है.

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