मटुकनाथ-जूली

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फोटो: विकास कुमार

सुर्खियों में बने रहने का चस्का जिसे लग जाए और फिर सुर्खियों में बनाए रखनेवाले एक-एक कर भाव देना छोड़ दें तो उस दौर की पीड़ा किस कदर सालती है, यह मटुकनाथ से बातचीत कर महसूस किया जा सकता है. 2006 में अचानक एक रोज अपनी शिष्या-प्रेमिका के साथ प्रेम प्रसंग का खुलासा होने और उसके एवज में सार्वजनिक तौर पर पहली और आधिकारिक पत्नी आभा चौधरी द्वारा मुंह में कालिख पोतकर पिटाई किए जाने के बाद सुर्खियों में आए प्रोफेसर मटुकनाथ-जूली की जोड़ी उसी पीड़ा के दौर में है. मटुकनाथ-जूली की दिनचर्या तक में दिलचस्पी रखनेवाला मीडिया अब इस मशहूर जोड़ी को साल में एक बार फरवरी में याद करने की कोशिश करता है, जब वेलेंटाइन डे करीब आता है. उसके बाद पूरे साल मटुकनाथ- जूली को खुद कोशिश कर अपने को मीडिया मंे बनाए रखना पड़ता है. लेकिन सुर्खियां बटोरते-बटोरते मटुकनाथ भी इस विधा में इतने उस्ताद हो चुके हैं कि मीडिया के न चाहते हुए भी अपने पीछे बावला होने को विवश कर ही देते हैं. कभी अपने निलंबन और बर्खास्तगी की वापसी के लिए धरने पर जाने के पहले रिक्शे पर जूली को बैठाकर खुद रिक्शा चलाते हुए निकलकर, कभी अपनी डायरीनुमा किताब ‘ मटुक जूली की डायरी’ की ब्रांडिंग कर, कभी भागलपुर के पास अपने गांव में प्रेम पाठशाला की नींव डालकर, उस स्कूल में जूली को केंद्रीय भूमिका में रखकर, स्कूल खुलने से पहले ही जूली को स्कूल की माता की उपाधि देकर, कभी पिंजर प्रेम प्रकासिया नाम से ब्लाॅग की शुरुआत कर, कभी जूली को कार गिफ्ट कर, कभी 2009 में चुनाव लड़ने के लिए नामांकन कर तो पिछले दिनों लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी से जुड़कर. और ऐसा कुछ भी करने के पहले मटुक प्रेस के कुछ लोगों को एसएमएस करना नहीं भूलते. खासकर छायाकारों को.

हम चाहते हैं कि हमसे कभी समाज, राजनीति, संस्कृति के विविध विषयों पर विचार लिए जाएं, लेकिन हमें उस योग्य नहीं समझा जाता

फिलहाल मटुकनाथ पटना में अपने नए घर में शिफ्ट होने के बाद उसे व्यवस्थित करने और सजाने-संवारने में व्यस्त हैं. इसी व्यस्तता में हम उनसे बातचीत करते हैं. बातचीत करने से पहले वे बातचीत के संदर्भों पर खूब बात कर लेते हैं. कहते हैं, ‘बुरा नहीं मानिएगा, ऐसा मैं जानबूझकर कर रहा हूं, नहीं तो पिछले कुछ सालों से देश के अलग-अलग हिस्से से सिर्फ मजावादी सवालों के साथ ही हमारे पास फोन आते रहे हैं. हम प्रेम की काउंसलिंग करना चाहते थे, लेकिन लोगों ने तो इसको मजाक में ही ले लिया और जब जी में आए, उलूल-जुलूल सवालों के साथ फोन कर परेशान करने लगे.’ मटुकनाथ से हम पूछते हैं कि काउंसलिंग वाली बात तो समझ में आ गई कि वह फेल-सी हो गई, उस प्रेम पाठशाला का क्या हुआ जिसकी नींव आपने अपने पैतृक गांव जयरामपुर में जूली के साथ मिलकर रखी थी और जिसमें दस लाख रुपये के करीब खर्च भी कर दिए थे. मटुक कहते हैं, ‘गांववालों का सहयोग मिला है, हम उसे करेंगे, लेकिन अभी उसे भी स्थगित कर दिए हैं. रिटायरमेंट के बाद करेंगे.’ रिटायर कब हो रहे हैं, हमारा सवाल होता है. जवाब होता है, ‘अगले चार साल में. उसके पहले अपने काॅलेज में हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष बनेंगे, जल्द ही.’  ‘आप रिटायर होंगे तो जूली की पीएचडी पूरी हो गई? वेे बताते हैं, ‘सब हो ही गया है. हम ही तो गाइड हैं. बस, अगले माह तक किसी दिन साइन कर देंगे, जूली पीएचडी वाली हो जाएंगी. फिलहाल जूनियर रिसर्च फेलो तो हैं ही.’ जूली की बात चलते ही मटुकनाथ जूली के रिसर्च पेपर को विस्तार से समझाने लगते हैं. कहते हैं, ‘मीरा की अध्ययन परंपरा में ओशो का योगदान. इसी विषय पर जूली पीएचडी कर रही हैं. अद्भुत विषय है यह और शानदार थीसिस भी.’ मटुकनाथ विस्तार से यह बातें बता रहे होते हैं बिना इस बात की परवाह किए कि फिर वे एक नये किस्म की सुर्खियां ही बटोरनेवाले हैं. जब वे खुद रिटायर होने के करीब होंगे तब संभवतः जूली नौकरी करेंगी. तब स्थिति बड़ी विचित्र होगी. क्योंकि अभी तक तो यही देखा गया है और माना जाता रहा है कि सुर्खियों में आने के बाद से मटुकनाथ जूली को कहीं किसी सार्वजनिक जगहों पर अकेले जाने नहीं देते. लोग कहते हैं कि फोन पर भी किसी से बातचीत नहीं करने देते. सारा मोर्चा खुद ही संभालते हैं. लेकिन मटुक जब खुद रिटायर होकर घर बैठ जाएंगे और जूली नौकरी करने के लिए तैयार होंगी तब भी क्या मटुकनाथ रोजाना जूली को लेकर काॅलेज में जाएंगे और वहीं परछाईं की तरह मौजूद रहेंगे? या फिर नौकरी करने से ही मना करेंगे? इस सवाल का जवाब भी हम तुरंत दूसरे तरीके से मटुक से मांगते हैं. पूछते हैं कि पीएचडी के बाद जूली प्रोफेसर ही बनेंगी न? वे कहते हैं, ‘हां कहती तो हैं कि अध्यापन के पेशे में ही जाना है…!

निकट भविष्य में अपने विभाग में अध्यक्ष बनने की उम्मीदों से भरे और उस सपने के संग रह रहे मटुकनाथ के पास फिलहाल खुशी और मुश्किल, दोनों की वजहें मौजूद हैं. जूली के संग प्रेम प्रसंग की वजह से 15 जुलाई, 2006 को उन्हें निलंबन का सामना करना पड़ा था. 20 जुलाई, 2009 को बर्खास्तगी झेलनी पड़ी थी. अब इन सबसे उन्हें मुक्ति मिल गई है. वे फिर से नौकरी में लौट आए हैं. बकाया पैसे का भुगतान भी विश्वविद्यालय से हो गया है जिससे एक कार जूली के लिए खरीद चुके हैं. यही वजह है कि वे खुश हैं. लेकिन दूसरे किस्म की मुश्किलें भी सामने हैं. उनकी पहली पत्नी आभा चौधरी, जो अब वकालत भी करती हैं और अपने बेटे अनुराग के नाम पर अनुराग फाउंडेशन भी चलाती हैं, लगातार उनसे अदालती लड़ाई लड़ रही हैं. कोर्ट ने मटुकनाथ को आदेश दिया है कि आभा को वे हर माह 15 हजार रुपये दें. मटुकनाथ कहते हैं, ‘मामला अदालत में है. हमने तो आभा को पटना में बना-बनाया घर ही छोड़ दिया है, जिससे 40 हजार के करीब किराया आता है. उनके पास गाड़ी है, बंगला है, एसी है, घर में सारे आधुनिक उपकरण हैं, बेटा स्वीडन में नौकरी कर ही रहा है तो फिर हम अब क्यों पैसे देंगे?’ मटुकनाथ साथ में यह भी बताते हैं कि 2006 की घटना के बाद से उनका अपने बेटे से कभी किसी किस्म का कोई संपर्क या संवाद नहीं हुआ.

निकट भविष्य में अपने विभाग में अध्यक्ष बनने की उम्मीदों से भरे और उस सपने के संग रह रहे मटुकनाथ के पास फिलहाल खुशी और मुश्किल, दोनों की वजहें मौजूद हैं

मटुकनाथ की मुश्किलें इतनी भर नहीं हैं. सरकार ने तो फिर भी उन्हें वापस नौकरी में रख लिया है और वरिष्ठता के आधार पर वे विभागाध्यक्ष भी बन सकते हैं, लेकिन काॅलेज में प्राध्यापक और प्राध्यापकों के इशारे पर बच्चे अब भी मजावादी रवैया बनाए रखते हैं. मटुकनाथ कहते हैं ‘जो बच्चे पढ़ने आते हैं, मेरे प्रति उनका नजरिया या रवैया तभी तक उस तरह का रहता है, जब तक वे हमसे मिलते नहीं. जैसे ही मिलते हैं एक बार, हमारे मुरीद हो जाते हैं. और रही बात अध्यापकों-प्राध्यापकों की तो उनकी बात ही नहीं करना चाहता. 80 प्रतिशत प्राध्यापक कोई चिंतक-विचारक तो होते नहीं. बस दिन काटते हैं. हवा कर रुख देखकर अपनी चाल बदलते रहते हैं.’ मटुकनाथ साथी प्रोफेसरों को निशाने पर लेते हैं. साथी प्रोफेसर मटुकनाथ को. साथी प्रोफेसरों का बस यही कहना है कि मटुकनाथ को गंभीरता से कैसे लिया जा सकता है?

मटुकनाथ के संदर्भ में ऐसे सवाल ही उनकी पीड़ा को अथाह विस्तार देते हैं. वे पटना की सड़कों पर गुजरते हैं तो उन्हें अब भी लोग आकर्षण के भाव से देखते हैं. एक ऐसा भाव जो मजे से ही ज्यादा भरा होता है. हुल्ले-ले-ले टाइप अंदाज में. दूसरी ओर जूली क्या चाहती हैं, यह संभवतः मटुक के सिवाय कोई ज्यादा नहीं जानता. मटुक चाहते हैं कि उन्हें सिर्फ मजावादी तत्व न मानकर गंभीरता से लिया जाए. कहते हैं, ‘मैंने 2009 में चुनाव के लिए नामांकन भरा. नामांकन रद्द हो गया, लेकिन कभी किसी ने मेरी राजनीतिक रुचि को गंभीरता से नहीं लिया. इस बार भी एक संभावना देखकर गोपाल राय और प्रोफेसर आनंद कुमार से बातचीत कर आम आदमी पार्टी की सदस्यता ली, लेकिन इस बार भी मेरी राजनीतिक रुचि को गंभीरता से नहीं लिया गया. हम चाहते हैं कि हमसे कभी समाज, राजनीति, संस्कृति के विविध विषयों पर विचार लिए जाएं, लेकिन हमें उस योग्य नहीं समझा जाता. सिर्फ सनसनी भरी बातों के लिए हमसे बातचीतकी जाती है. और अब तो सिर्फ वेलेंटाइन डे आने पर हमको याद किया जाता है.’

जिस मीडिया ने मटुकनाथ-जूली को रातोरात सुर्खियों में लाकर चर्चित चेहरे में शामिल कर दिया था, उसी मीडिया से आज मटुकनाथ को दर्जन भर शिकायतें हैं. मटुक से हम पूछते हैं, ‘मीडिया तो ऐसे ही होता है. आप चिंतक-विचारक टाइप अपनी बातों को रखने के लिए क्या दूसरे माध्यमों का सहारा लेंगे? वे बताते हैं, ‘जब तक बर्खास्त था, तब तक तो ब्लाॅग पर भी लिखा करता था. अब तो वहां भी समय नहीं देता. दस मिनट एफबी पर जाता हूं. अब तो सारा ध्यान विभागाध्यक्ष बनने के बाद एक माॅडल के तौर पर हिंदी विभाग को स्थापित करने को लेकर है.’

मटुक  अपनी बातों में यह दावा करना नहीं भूलते, ‘हम विभागाध्यक्ष बनेंगे तो आकर देखिएगा विभाग. सुबह से शाम तक गहमागहमी रहेगी. रोज कक्षाएं चलेंगी. स्मार्ट क्लास चलेगा. लाइब्रेरी दुरुस्त करेंगे.’ और प्रेम की कुछ छाप दिखाई देगी विभाग में? इसपर उनका जवाब होता है, ‘प्रेम तो जीवन का मूल है ही. उससे ही तो समाज का निर्माण होता है. एक विध्वंसात्मक प्रेम होता है, दूसरा रचनात्मक. हम रचनात्मक पाठ पढ़ाएंगे…’