तीन दिन वहां रहकर वापस लौटे तो फिर दिन भर के लिए गोविन्द नगर वाले घर में रुके थे, वहीं से शाम को सुरेश मामा हमें नानी के घर छोड़ने ले जाने वाले थे. मुझे याद है उस दिन सुबह सुरेश मामा कहीं बाजार चले गए थे, वहां से लौटकर आए तो उनके हाथ में जूते का एक डिब्बा था. उन्होंने जूते का डिब्बा खोला और मुझे आवाज दी. मैं उनके पास गया तो कहने लगे, जरा ये जूते पहनकर दिखाओ. अपन बड़े खुश, पहन लिए, एकदम फिट आ गए. मामा कहने लगे, जरा चलकर दिखाओ, ठीक हैं? मैंने वह भी किया, उनके सामने दो चक्कर लगाए, कहा, मामाजी एकदम नाप के हैं. बात सुनकर मामा कहने लगे, अब उतार दो, रख देते हैं. मामा ने उनको जमाकर डिब्बे में रख दिया.
जूते उतारकर मामा को देने के बाद मैं कल्पनाओं में डूब गया. मन ही मन सोच रहा था कि शाम को मामा जब नानी के यहां हमें पहुंचाने जाएंगे तो ये जूते मेरे साथ होंगे. शाम होते-होते एक बार मैं फिर सुरेश मामा के पास पहुंचा और बोला, मामा, मामा जूते एक बार फिर पहनकर देख लें? मामा कहने लगे, हां-हां क्यों नहीं, पहनो. मैंने जूते फिर पहने, चले-फिरे दो चक्कर, खुश हो गए, फिर उतारकर डिब्बे में रख दिए. शाम हुई. मामा ने हमसे कहा, तैयार हो जाओ, तुम्हें नानी के यहां पहुंचा आते हैं. मैं तैयार हो गया. कामनाएं बलवती होने लगीं. मामा भी तैयार हुए और अपनी सायकिल बाहर निकाली. मैं अपना छोटा सा बैग लेकर बाहर आ गया. मामा ने कहा, आगे बैठ जाओ, मैं सीट के आगे डण्डे पर बैठ गया. मामा चल पड़े. मैं सोचता रहा, मामा जूते शायद भूल गये देना. रास्ते भर चुपचाप रहे, आखिर में जब नहीं रहा गया तो पूछ लिया, मामा जी वो जूते जो दिन में पहने थे. इतने में मामा बोले अरे, सुनील वो टीटू भैया के लिए खरीदे थे. तुम्हारे जितना ही तो है वो, इसीलिए तुम्हें पहिनाकर नपवाया था.
यह बात सुनकर मैं मायूस हो गया. नानी के घर तक पहुंचाने वाला सफर थमे उत्साह और किंचित उदासी से भरा रहा. वह घटना कभी भूल नहीं पाया. आज उसे अलग ढंग से याद करता हूं, बचपन में जिज्ञासा, लालच और आकर्षण के अपने मनोविज्ञान होते हैं, सोचा हुआ पूरा भी होता है तो कई बार ऐसे तजुर्बे उदास भी कर जाते हैं. लेकिन आज जब उस बात को याद करता हूं तो उसमें एक नया आयाम जुड़ जाता है, बचपन की उदासी की जगह आज हंसी ने ले लिया है.
(लेखक फिल्म आलोचक हैं और भोपाल में रहते हैं.)