बरसात की एक रात !

बरसात की उमस भरी गर्मियों का मौसम था. रात के लगभग साढ़े आठ बज रहे थे. टैक्सी स्टैंड पर बर्डपुर के लिए शायद ही कोई सवारी गाड़ी मिलती. लेकिन प्रधान जी लौट रहे थे, तो मैंने उनसे कहा कि वे मुझे और चिनकू को भी साथ में लेते चलें. प्रधान जी ने कहा ठीक है, बर्डपुर तक चलिए, लेकिन आगे कैसे जाएंगे? चूंकि मेरी पत्नी की तबीयत खराब थी, इसलिए मैं प्रधान जी के साथ बर्डपुर के लिए चल पड़ा.

हम बर्डपुर पहुंचे तो रात के साढ़े नौ बज चुके थे. प्रधान जी ने हमें अपने बड़े से व्यावसायिक कॉम्पलेक्स के सामने मोटर साईकिल से उतारते हुए कहा- नौकर ने सिर्फ मेरे हिस्से का खाना बनाया होगा, वरना आप लोगों को भी खिलाकर भेजता, मोटर साईकिल में तेल भी कम है, वरना ले जाने देता. मौसम काफी खराब हो रहा है, अब आप लोग निकल लीजिए. बड़े मकान और छोटे दिल वाले प्रधान जी के सर्द रवैये से दुखी, मैं और चिनकू तेज कदमों से गांव के लिए चल पड़े.

थोड़ा आगे जूनियर हाई स्कूल के सामने पहुंचते ही टार्च की तेज रोशनी मेरे चेहरे पर पड़ी. साथ ही किसी ने कड़क कर पूछा- कौन है, रुक जाओ, नहीं तो अच्छा नहीं होगा! एक शख़्स लड़खड़ाता हुआ मेरे पास पहुंचा. टार्च की रोशनी में हम दोनों ने एक-दूसरे को देखा. शराब के नशे में मस्त वह मेरे परिचित ‘बुलई’ बैटरीवाले थे.

पूरी बात सुनकर बुलई हाथ जोड़कर कहने लगे, गुरु जी गरीब जरूर हूं, लेकिन मेरा दिल नहीं गरीब है. आप मेरे घर चलकर रुकें, सवेरे जाइएगा. तबतक मेरी नज़र पीछे खड़ी उनकी साईकिल पर पड़ चुकी थी. मैंने घर जाने के लिए साईकिल मांगी. बुलई काफी भावुक हो चुके थे, बोले साईकिल जरूर दूंगा, लेकिन पहले आपको कुछ खिला दूं. जिद पर अड़े बुलई ने स्कूल गेट के सामने की दुकान में सो रहे अंडेवाले को जगाया और आमलेट बनवाकर देने के बाद ही हमें साईकिल दी. साथ ही अपनी टार्च भी दी. मैंने घर पहुंच कर सारी कहानी बयान की तो मेरी अम्मा के मुंह से यही शब्द निकले थे- कर भला तो हो भला!

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