देश का राजनीतिक मिजाज समझने वाले जानकार इसका जवाब ‘हां’ में देते हैं. प्रसिद्ध समाज शास्त्री और अब आम आदमी पार्टी के नेता प्रोफेसर आनंद कुमार कहते हैं, ‘केंद्र सरकारों द्वारा अपने लोगों को राज्यपाल बनाने की जो गलत परंपरा कांग्रेस पार्टी ने इंदिरा गांधी के दौर में शुरू की थी वह अब तक बदस्तूर जारी है. अपने मिजाज के लोगों को राज्यपाल बनाने के पीछे केंद्र सरकारों का सबसे बड़ा उद्देश्य यही रहा है कि इनके जरिए उन राज्यों में अपना एजेंडा आसानी से लागू करवाया जा सके जहां विरोधी पार्टी की सरकार है. यही वजह है कि भाजपा भी अब अपने लोगों को राज्यपाल बना कर उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और केरल जैसे राज्यों में भेजने की शुरुआत कर चुकी है. चिंताजनक बात यह है कि यह इन राज्यों के राज्यपालों का कार्यकाल बचा होने के बावजूद हो रहा है.’
1988 में सरकारिया आयोग ने राज्यपालों की नियुक्ति पर कुछ अहम सुझाव दिए थे. लेकिन न सरकार और न ही विपक्ष ने कभी इन पर कोई संजीदगी दिखाई
लेकिन क्या किसी राज्यपाल को उसका कार्यकाल पूरा होने से पहले हटाया जाना गलत है? संविधान के जानकार और लोकसभा के पूर्व महासचिव सुभाष कश्यप कहते हैं, ‘केंद्र सरकार की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा राज्यपालों की नियुक्ति की जाती है और इसी आधार पर राज्यपालों को उनके पद पर बनाए रखना और हटाना भी राष्ट्रपति के अधिकार क्षेत्र में आता है. लेकिन ऐसा कई बार हुआ है जब राज्यपालों को उनका कार्यकाल पूरा होने से पहले ही हटा दिया गया.’ अपनी बात को और सरल करते हुए वे कहते हैं, ‘संविधान में राज्यपाल को बदलने पर कोई रोक नहीं है, लेकिन ऐसा करने के पीछे उचित कारण होने चाहिए.’
2010 में उच्चतम न्यायालय भी ऐसा ही एक निर्णय सुना चुका है जो कश्यप की बातों को पुख्ता करता है. दरअसल 2004 में यूपीए द्वारा चार राज्यपालों को अचानक हटाए जाने के बाद बाद भाजपा नेता बीपी सिंघल उच्चतम न्यायालय में चले गए थे. उन्होंने सरकार के इस फैसले का विरोध करते हुए न्यायालय में दलील दी थी कि राज्यपालों को उनका कार्यकाल पूरा होने से पहले बे-वजह नहीं हटाया जाना चाहिए. जिसके बाद मई 2010 में अदालत ने आदेश दिया कि राज्यपाल केंद्र सरकार के कर्मचारी नहीं हैं और उन्हें बिना किसी ठोस वजह के नहीं हटाया जा सकता है. अपने आदेश में सर्वोच्च अदालत ने यह भी कहा कि राज्यपालों को हटाने के लिए सरकार को उचित कारण बताने होंगे.
ऐसे में एक और सवाल पैदा होता है कि क्या हटाए गए राज्यपालों को लेकर मोदी सरकार ने अभी तक इसका कोई वाजिब कारण बताया है. नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘यूपीए द्वारा नियुक्त किए गए और अब इस्तीफा दे चुके आठ राज्यपालों मे से कुछ ने शुरुआती वक्त में इस्तीफा नहीं देने के संकेत दिए थे तो इस पर गृह मंत्री का कहना था कि ‘अगर मैं उस जगह पर होता, तो इस्तीफा दे देता.’ इस बयान से ही साफ हो जाता है कि राज्यपालों के मसले पर यह सरकार भी उसी रास्ते पर चलने का मन बना चुकी है जिसका उसने किसी जमाने में जोरदार विरोध किया था.’ वे आगे कहती हैं, ‘यह स्थिति तब है जबकि राज्यपालों के पक्ष में 2010 का अदालती आदेश मौजूद है.’
प्रोफेसर विवेक कुमार की मानें तो सत्ता का केंद्रीकरण करने की महत्वाकांक्षा के चलते ऐसा हो रहा है. यही वजह है कि राज्यपाल को केंद्र सरकारें ऐसे आदमी के रूप में देखने लगी हैं, जो राज्यों में उसके राजनीतिक उद्देश्यों को परवान चढ़ाने में सहायक सिद्ध हो सकता है. कई और जानकारों की मानें तो यह प्रवृति आगे चल कर और भी खतरनाक रूप में सामने आ सकती है.
तो फिर सवाल उठता है कि केंद्र और राज्यों के बीच समन्वयक की भूमिका निभाने के लिए बनाए गए राज्यपाल का काम यदि केंद्र सरकार के राजनीतिक एजेंडे की पूर्ति करना-भर रह गया है तो फिर इस पद की जरूरत ही क्या है? क्योंकि अब तक की इस कथा से इतना तो पूरी तरह साफ हो चुका है कि पिछले लंबे अर्से से चल रहा राज्यपाल के पद का राजनीतिकरण अब भी जारी है. इसके अलावा ऐसे मामलों की भी कोई कमी नहीं है जो बताते हैं कि राज्यपालों का कामकाज पाक-साफ नहीं रह गया है.
नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘अगर राज्यपालों का काम सिर्फ केंद्र के इशारों पर अमल करना रह गया है तो फिर इस संदर्भ में एक नई बहस की जरूरत है. क्योंकि राज्यपालों की इस भूमिका से न तो आम आदमी का भला हो सकता है और न ही राजनीति का. वैसे भी राज्यपालों की शानो-शौकत में बहुत ज्यादा पैसा खर्च होता है जिसकी भरपाई जनता की जेब से ही की जाती है.’ वरिष्ठ टेलीवीजन पत्रकार राजदीप सरदेसाई भी राज्यपाल पद की उपयोगिता को लेकर हाल ही में एक लेख के जरिए सवाल उठा चुके हैं. वे लिखते हैं, ‘सरकारी कार्यक्रमों में शिरकत करने, उद्घाटनों के फीते काटने और नीरस भाषण देने जैसे कामों में व्यस्त राज्यपालों की भूमिका सिद्धांतत: रस्मी ही है. ऐसे में कोई राज्यपाल देश के लोकतंत्र में सार्थक योगदान किस प्रकार देता है ? वह केवल त्रिशंकु विधानसभा होने की दशा में ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है जब जोड़-तोड़ से विश्वासमत हासिल किया जाता है. और यहां भी ज्यादातर बार उसकी भूमिका विवादास्पद ही होती है.’ 2013 में लोकसभा के अंदर भी राज्यपाल के पद को समाप्त करने संबंधी बातें उठ चुकी हैं. उस वक्त भारतीय जनता पार्टी के सांसद कीर्ति आजाद ने इस पद को औचित्यहीन बताते हुए इसे खत्म कर देने की मांग की थी. आजाद की इस मांग को कई दूसरे सांसदों ने भी तब समर्थन दिया था.
हालांकि राजनीतिक मामलों की एक अन्य जानकार मनीषा प्रियम राज्यपाल पद को खत्म करने की हिमायती नहीं हैं. अपने एक लेख में वे तर्क देती हैं कि, ‘किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की नौबत आने पर तत्काल राज्यपाल की नियुक्ति नहीं की जा सकती. इसके अलावा राज्य के हालात की जानकारी भी राज्यपाल ही राष्ट्रपति को मुहैया कराते हैं, जिसके आधार पर राष्ट्रपति शासन का फैसला लिया जाता है.’ वे आगे लिखती हैं, ‘देखा जाय तो उतना विवाद राज्यपालों की नियुक्ति या हटाए जाने को लेकर नहीं है, जितना कि उनके द्वारा किये जाने वाले राजनीतिक हस्तक्षेप को लेकर देखने में आता है. ऐसे में जरूरत इस बात की है कि राज्यपालों द्वारा राजनीतिक हस्तक्षेप को रोकने के उपाय ढूंढे जाएं.’
ऐसा नहीं है कि इस तरह के उपाय ढूंढे नहीं गए. केंद्र तथा राज्यों के संबंधों में शक्ति-संतुलन की समीक्षा करने के उद्देश्य से 1983 में केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत न्यायाधीश, जस्टिस राजिंदर सिंह सरकारिया की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया था. सरकारिया आयोग ने 1988 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी. रिपोर्ट में आयोग ने राज्यपालों की नियुक्ति के संबंध में सरकार को कुछ महत्वपूर्ण सुझाव दिए थे. इनमें तीन महत्वपूर्ण बातें थीं. पहला सुझाव यह था कि, राजनीति में सक्रिय लोगों को राज्यपाल नहीं बनाया जाना चाहिए. दूसरा महत्वपूर्ण सुझाव यह था कि राज्यपालों का चयन केंद्र सरकार की बजाय एक ऐसी समिति द्वारा किया जाना चाहिए जिसमें प्रधानमंत्री के अलावा लोकसभा अध्यक्ष, उपराष्ट्रपति और संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री बतौर सदस्य शामिल हों. इसके अलावा आयोग ने यह भी राय दी थी कि, राज्यपाल का पद छोड़ने के बाद ऐसे व्यक्ति को किसी भी लाभ वाले पद पर नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए.
लेकिन इन तीनों ही सुझावों को लेकर न तो कभी सरकार ने संजीदगी दिखाई और न ही विपक्षी दलों ने इसको लेकर कोई मजबूत पैरवी की. इन तीनों सुझावों के उलट देखा जाए तो राज्यपाल पद पर सक्रिय राजनीति में रहने वाले लोगों की नियुक्तियां लगातार जारी हैं. राज्यपाल को चुनने के लिए कोई भी समिति नहीं बनाई गई है और आखिरी बात यह कि इस पद से रिटायर होने के बाद कई लोग सक्रिय राजनीति में वापस आ कर केंद्रीय मंत्री तक बन चुके हैं. पिछली यूपीए सरकार में गृह मंत्री रहे सुशील कुमार शिंदे और विदेश मंत्री रहे एसएम कृष्णा इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण हैं. हाल ही में महाराष्ट्र के राज्यपाल पद से इस्तीफा देने के बाद के शंकरनारायण भी सक्रिय राजनीति में वापसी की बात कर चुके हैं.
बहरहाल इतना साफ है कि राज्यपाल पद को लेकर उभरी मौजूदा विसंगतियों के समाधान में ही इस संवैधानिक पद की सार्थकता निहित है. तमाम सवालों के बीच राज्यपाल पद की खूबियों और खामियों की पहचान एक बड़ा मुद्दा है और चुनौती भी. जानकारों की मानें तो इस पद के औचित्य को लेकर उठने वाले तरह-तरह के सवालों का जवाब ढूंढना इसलिए भी जरूरी है ताकि यह पता लग सके कि वर्तमान में केंद्र के रहमोकरम पर चलने वाली राज्यपाल रूपी यह संवैधानिक संस्था क्या वाकई में केंद्र और राज्य के बीच सेतु की भूमिका निभाने वाली बन सकती है, जैसा कि संविधान निर्माताओं ने इसके बारे में चाहा था. अगर नहीं तो इसका विकल्प क्या है?