2013 के आइने से 2014

इलस्टेशन: मनीषा यादव

क्या 2013 में आए नतीजे 2014 का ट्रेलर हो सकते हैं? एक प्रचलित धारणा है कि जनता विधानसभा और लोकसभा के चुनावों में अलग-अलग मानकों पर वोट देती है. अमूमन हारने वाली पार्टियों की इस धारणा में गंभीर आस्था होती है. पर क्या वास्तव में ऐसा है?

इस सवाल का जवाब भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए महत्वपूर्ण है. अगर ऐसा है तो 2014 के चुनावों में कांग्रेस फिर भी अपने लिए कुछ उम्मीद पाल सकती है वरना भाजपा के पास लूटने को पूरा आसमान पड़ा है.

वैसे कुछ हद तक इस सवाल का जवाब हमें थोड़ा अतीत में झांकने पर मिल जाता है. 2003 में इन्हीं चार राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए थे. उसके बाद 2004 में लोकसभा चुनाव हुए. इसी तरह 2008 में भी इन चारों राज्यों ने विधानसभा चुनाव देखा और छह महीने के भीतर ये लोकसभा के चुनाव में गए थे. दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा के चुनावी नतीजों के बरक्स  अगर हम लोकसभा के नतीजों को तौलें तो एक बात साफ तौर पर उभरती है कि इन राज्यों ने विधानसभा में जिस दल को समर्थन दिया था उसी समर्थन को उन्होंने लोकसभा के चुनावों में भी बनाए रखा. 2003 और 2008 में हुए दिल्ली विधानसभा के चुनावों में जनता ने कांग्रेस को बहुमत दिया था. और इनके ठीक छह महीने बाद हुए लोकसभा के चुनावों में कांग्रेस को पांच और सात सीटें मिली थी. राजस्थान में 2008 में कांग्रेस के अशोक गहलोत ने सरकार बनाई तो अगले साल लोकसभा चुनाव में यहां की 25 में से 20 सीटें पार्टी को मिलीं. 2003 में राजस्थान ने वसुंधरा राजे को बहुमत दिया था तो लोकसभा चुनाव में यहां से भाजपा को 21 सीटें मिली थीं. यही चलन मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ का भी है.  तो इस दलील पर यकीन करने की कोई खास वजह नहीं बनती कि जनता लोकसभा और विधानसभाओं में अलग-अलग मानकों पर वोट करती है. बल्कि अतीत का यह चलन देखें तो मौजूदा चार राज्यों में मिली बड़ी हार को देखते हुए लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस की दुर्गति होनी तय है.

इस दलील में इसलिए भी खास दम नहीं क्योंकि हाल के सालों में मुद्दों का भी राष्ट्रीयकरण हुआ है इसलिए जनता को दो अलग मानकों पर वोट करने की कोई वजह नहीं बची है. दशक-डेढ़ दशक पहले तक बिजली-सड़क-पानी जैसी बुनियादी समस्याएं चुनावों में छाई रहती थीं. पर आज या तो ये मुद्दे घिस चुके हैं या कुछ हद तक हल हो चुके हैं या फिर कुछ ऐसे मुद्दे पैदा हो गए हैं जो इन सब पर भारी पड़ रहे हैं. आज की तारीख में महंगाई और भ्रष्टाचार दो मुख्य मुद्दे हैं. ये दोनों ही मुद्दे राष्ट्रव्यापी हैं. द्रास-बटालिक से लेकर विवेकानंद रॉक तक जनता इन दोनों मुद्दों से एकसमान पीड़ित है.

जानकारों की मानें तो लोकसभा चुनावों के मद्देनजर इन नतीजों का भाजपा और कांग्रेस पर अलग-अलग असर होना है. कांग्रेस के लिए ये नतीजे चला-चली की बेला का इशारा कर रहे हैं. बुरे और आखिरी समय में अच्छे और शुरुआती दिनों के साथी उसका साथ छोड़ने की हड़बड़ी में आ सकते हैं. पहले शरद पवार और फिर करुणानिधि का रुख इसकी झलक देता है. शरद पवार ने कांग्रेस नेतृत्व और राहुल गांधी पर अब तक का सबसे तीखा हमला बोला है तो करुणानिधि ने लोकसभा चुनावों में कांग्रेस से गठबंधन न बनाने का ऐलान कर दिया है. दरअसल बाकी घटक दलों को लगने लगा है कि कांग्रेस डूबता हुआ जहाज है. यूपीए के साथियों के जाने की सूरत में कांग्रेस अकेली रह जाएगी.

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ये होता तो क्या होता

अगर नोटा नहीं होता तो

राइट टू रिजेक्ट के अधिकार को कानूनी मान्यता मिलने के बाद इन चुनावों में पहली बार मतदाताओं ने नोटा का बटन दबाया था. छत्तीसगढ़ में तो नोटा का प्रदर्शन यह रहा कि प्रदेश की कुल 90 में से 35 सीटों पर भाजपा, कांग्रेस और बसपा के बाद सबसे अधिक वोट नोटा को ही पड़े. इनमें से चार सीटें ऐसी थी जहां हार-जीत के अंतर से अधिक वोट नोटा के पक्ष में गए. इन चारों सीटों पर कांग्रेस की हार हुई. ऐसे में कहा जा सकता है कि अगर नोटा का विकल्प नहीं होता तो यहां कांग्रेस पार्टी सत्ता के और करीब पहुंच सकती थी. राजस्थान में कुल 11 सीटों में नोटा को पड़े वोट हार-जीत के अंतर से कहीं अधिक रहे. दिल्ली की आरके पुरम की सीट भी नोटा के न होने की स्थिति में आम आदमी पार्टी के हिस्से जा सकती थी.

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यूपीए के एक दूरस्थ सहयोगी हैं मुलायम सिंह यादव. दूरस्थ इसलिए क्योंकि वे सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे हैं. वे सरकार को सीधे तो निशाने पर नहीं ले रहे हैं लेकिन कांग्रेस को नीचा दिखाने के लिए उन्होंने एक दूसरा रास्ता अख्तियार किया है.  उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के दिग्गज नेता प्रमोद तिवारी को उन्होंने कांग्रेस से अलग कर राज्यसभा भेज दिया है. तिवारी नौ बार से लगातार विधानसभा पहुंचते रहे थे और कांग्रेस का सबसे विश्वस्त चेहरा थे. यह चोट बहुत भारी है क्योंकि उत्तर प्रदेश गांधी परिवार का गृहराज्य है. इस घटना से अनुमान लगाया जा सकता है कि आने वाले समय में कांग्रेस पार्टी के भीतर उछाड़-पछाड़ की घटनाएं तेज हो सकती हैं.

कांग्रेस पार्टी के साथ मौजूद सरकार के भीतर यह चिंता पहले से ही घर कर गई थी कि यदि चार राज्यों में से एक भी उनके हाथ नहीं लगता है तो इसका असर लोकसभा चुनावों के साथ-साथ मौजूदा संसद सत्र पर भी पड़ेगा. वह दुस्वप्न सच साबित हुआ है. विपक्ष ने अपना रुख हमलावर कर दिया है. इसका दुष्प्रभाव इस सत्र में पास होने वाले उन तमाम महत्वपूर्ण बिलों पर पड़ेगा जिन्हें पास करवा कर कांग्रेस अपनी लुटी-पिटी इज्जत बचाने की कोशिश कर सकती थी. इनमें सबसे ऊपर तो लोकपाल बिल ही है जिसे अब सरकार अपनी प्राथमिकता में बता रही है. लेकिन सत्र के एजेंडे में यह अभी भी शामिल नहीं है. इसके अलावा सरकार की सूची में दंगा निरोधक बिल, व्हिसिल ब्लोअर बिल के अलावा अति महत्वपूर्ण तेलंगाना बिल भी हंै.

कांग्रेस के विपरीत भाजपा पर इन नतीजों का बड़ा खुशनुमा असर है. पार्टी और कैडर में ऐन लोकसभा चुनावों से पहले जरूरी जोश भर गया है. उसे ‘मोदी दांव’ 2014 तक आगे बढ़ाने की ऊर्जा मिल गई है. साथ ही इन नतीजों ने पुराने छिटके हुए साथियों को साथ लाने का एक लालच भी पैदा कर दिया है. इनमें से कुछ चुनाव से पहले आ सकते हैं और कुछ बाद में. नतीजों ने यह तो बता ही दिया है कि देश में कांग्रेस के खिलाफ भावना प्रबल है. लेकिन यह आंधी भाजपा समर्थक नहीं है. इसलिए अगर हम इन नतीजों को भाजपा और लोकसभा के संदर्भ में देखना चाहते हैं तो इन्हें दो हिस्सों में बांटकर देखना होगा- उत्तर भारत और दक्षिण भारत. चार राज्यों ने इस बात को स्थापित कर दिया है कि उत्तर भारत में भाजपा की स्थिति मजबूत हुई है. फिलहाल कांग्रेस उत्तर में हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और झारखंड जैसे छोटे राज्यों में सीमित है. लेकिन यहां भी कांग्रेस के पक्ष में जनमत बहुत कमजोर है और लोकसभा चुनाव में मौजूदा चार राज्यों के नतीजों का असर पड़ना तय है. काफी हद तक यह असर भाजपा के पक्ष में हो सकता है क्योंकि इन राज्यों में भाजपा और कांग्रेस ही दो मुख्य पार्टियां हैं. बिहार में भाजपा मुख्य विपक्षी पार्टी है. उत्तर में भाजपा की सबसे बड़ी चिंता उत्तर प्रदेश है जहां 80 लोकसभा सीटों में से उसके पास सिर्फ नौ सीटें हैं. राजनीतिक पंडितों की मानंे तो भाजपा इस आंकड़े को सुधारेगी. उत्तर प्रदेश के जरिए मोदी प्रभाव की भी बड़ी परीक्षा होगी.

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विचित्र किंतु सत्य

कांग्रेस की हार तो तय थी लेकिन इतनी बुरी तरह !

महंगाई पर केंद्र सरकार की लगातार हो रही किरकिरी के अलावा राज्यों के स्थानीय मुद्दों को देखते हुए कांग्रेस पार्टी की हार को लेकर पहले से ही प्रबल संभावनाएं बन रही थीं. लेकिन दिल्ली और राजस्थान में पार्टी की इस कदर दुर्गति का शायद ही किसी को अंदाजा रहा होगा. दिल्ली में 41 विधायकों वाली कांग्रेस आठ पर सिमट गई. राजस्थान में भी भाजपा की 162 के मुकाबले वह 21 सीटों पर सिमट कर रह गई. इस तरह उसके खाते में सबसे बुरी हार का अनचाहा रिकॉर्ड दर्ज हो गया. पिछली बार कांग्रेस के राजस्थान में 96 विधायक थे. यहां परांपरागत वोट माने जाने वाले मुस्लिम मतदाता ने भी उसे झटका दिया. उसके सभी 16 मुस्लिम उम्मीदवार बुरी तरह हार गए.

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दूसरी तरफ दक्षिण भारत में कर्नाटक को छोड़कर भाजपा कहीं भी मजबूत नहीं रही है. लेकिन मौजूदा समीकरणों में उसके समर्थन के लिए स्थितियां सबसे माकूल हैं. भाजपा को इस जीत से दो बड़े फायदे हुए हैं. पहला यह कि सूत्रों के मुताबिक अब तक एनडीए में एक पार्टी के तौर पर घुसपैठ की फिराक में लगे कर्नाटक के घाघ नेता बीएस येदियुरप्पा अपनी पार्टी कर्नाटक जनता पक्ष के भाजपा में विलय के लिए तैयार हंै. जानकार मानते हैं कि इससे कर्नाटक की 29 में से 10-15 तक सीटें आने भाजपा को मिल सकती हैं. उसके लिए यह बड़ी उपलब्धि होगी क्योंकि हाल ही के विधानसभा चुनाव में वह अपना सब कुछ गंवा चुकी है. मोदी से नजदीकियों के बावजूद अब तक भाजपा से जुड़ने को लेकर संशय में रही तमिलनाडु की मुख्यमंत्री और अन्नाद्रमुक नेता जयललिता का संशय भी काफी हद तक इन नतीजों से दूर हो सकता है. आंध्र प्रदेश पिछले चुनाव तक कांग्रेस को सबसे ज्यादा सुकून देता था. लेकिन तेलंगाना के प्रति कांग्रेस की अधकचरी नीति ने उस सुकून को खत्म कर दिया है. यहां अब कांग्रेस, टीडीपी के अलावा, वाईएसआर कांग्रेस, टीआरएस और भाजपा भी दावेदार हैं. भाजपा यहां खुद भले ही कमजोर हो लेकिन उसे लोकसभा में एक दो सहचर मिल जाएंगे.

इनके अलावा कुछ ऐसे भी राज्य हैं जहां कांग्रेस और भाजपा के ऊपर क्षेत्रीय क्षत्रपों की भूमिका ज्यादा बड़ी है. इनमें उड़ीसा, बंगाल और जम्मू कश्मीर आदि आते हैं. देश में कांग्रेस के खिलाफ आंधी मानकर चलें तो कहा जा सकता है कि आगामी लोकसभा चुनावों में इलाकाई लंबरदारों के सामने मुख्य चनौती भाजपा होगी न कि कांग्रेस.

मौजूदा विधानसभा के नतीजों से लेकर आगमी लोकसभा के चुनावों को अगर 100 मीटर की दौड़ के रूप में देखें तो हम कह सकते हैं कि भाजपा ने 20 मीटर की दूरी तय कर ली है जबकि कांग्रेस अभी स्टार्टिंग प्वाइंट पर ही खड़ी है. छह महीनों में कांग्रेस इस अंतराल को कैसे पाटेगी, पाट भी पाएगी या नहीं और भाजपा इस जोश को मई 2014 तक बिना कोई गलती किए बनाए रख सकेगी या नहीं, ये सब ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब कुछ ही महीनों में इतिहास का हिस्सा बन जाएंगे.

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