पार्टी में अव्यवस्था का क्या आलम है यह साक्षी महाराज के बयान से उपजे विवाद के समय भी पता चला. भाजपा नेता साक्षी महाराज द्वारा मदरसों पर दिए विवादित बयान के बाद पार्टी का एक धड़ा कुछ भी बोलने से बचता रहा. उसे लगता था कि इससे वे भाजपा के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने वाले जाल में फंस सकते हैं. वहीं मनीष तिवारी और राशिद अल्वी जैसे नेता भी थे जो साक्षी महाराज की उच्चतम स्वर में आलोचना करते दिखाई-सुनाई दिए. इस घटना के बाद ही पार्टी के संचार सेल प्रमुख अजय माकन ने ट्विट कर कहा कि पार्टी के प्रवक्ताओं को ही केवल पार्टी का दृष्टिकोण रखने का अधिकार है. माकन ने लगे हाथ पार्टी के प्रवक्ताओं की सूची भी जारी कर दी.
‘अगर जनार्दन दिवेदी को पता है कि प्रियंका काबिल हैं तो क्या प्रियंका की मां को नहीं पता कि उनके बेटे और बेटी में से काबिल कौन हैं. लेकिन उन्होंने राहुल जी को आगे बढ़ाने का निर्णय लिया’
माकन के इस कदम को पार्टी के एक धड़े ने मुंह बंद रखने की धमकी के तौर पर देखा. लेकिन जिन मनीष तिवारी और राशीद अल्वी के कारण यह किया गया था वे चुप होने वालों में नहीं थे. कुछ समय बाद ही तिवारी का बयान आ गया कि वे पार्टी के बहुत पुराने कार्यकर्ता हैं और उन्हें अपनी बात रखने से कोई नहीं रोक सकता.
बयानों के कारण पार्टी की फजीहत उस समय भी हुई जब जनार्दन द्विवेदी ने कहा कि 60-70 साल के कांग्रेसी नेताओं को सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लेना चाहिए. द्विवेदी के बयान को आनन फानन में पार्टी ने उनका निजी बयान बताकर राहत की सांस ली.
ऐसे उदाहरण पार्टी की उस दशा की तरफ ही इशारा करते हैं जहां नेतृत्व या तो नहीं है या फिर उसमें पहले वाली ताकत नहीं. एक भ्रम की स्थिति है. शीर्ष के कमजोर होने के कारण चीजें अधिक लोकतांत्रिक तो हो जाती हैं लेकिन उनके अराजक होने का खतरा बना रहता है.
संसद में और सड़क पर
संसद में और सड़क पर विपक्ष के रूप में कांग्रेस ने अभी तक अपनी भूमिका कुछ उसी तरह निभाई है जैसी हमारे अधिकांश बॉलीवुड कलाकार हॉलीवुड की फिल्मों में निभाते दिखते हैं. यानी उनका वहां होना न होना एक बराबर ही है.
चुनाव परिणामों ने जब पार्टी की झोली में कुल जमा 44 सीटें सौंपी उसी दिन से उसमें चर्चा शुरू हो गई कि सरकार तो गई ही नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी के भी लाले पड़ गए हैं. नेता प्रतिपक्ष के लिए 55 सीटों का होना जरूरी है. खैर पार्टी को जब पता चला कि अधिकार के तौर पर तो उसे नेता प्रतिपक्ष का पद मिलने से रहा सो उसने नैतिकता की दुहाई देनी शुरू कर दी. लेकिन भाजपा कांग्रेस के इस चक्कर में नहीं फंसी. पार्टी ने शुरू में ही अनौपचारिक तौर पर यह मैसेज दे दिया कि वह उस कांग्रेसी परंपरा को बनाए रखना चाहती हैं जिसमें संख्या कम होने पर विपक्ष को स्थान देने की गुंजाइश नहीं हुआ करती है.
कांग्रेस के पिछले चार महीने से अधिक के कार्यकाल का 95 फीसदी हिस्सा रागदरबारी के लंगड़ की तरह धर्म की उस लड़ाई में चला गया जिसमें पार्टी नैतिकता के आधार पर सत्ता पक्ष से नेता प्रतिपक्ष का पद देने की मांग करती रही. ऐसे में भाजपा सरकार बिना किसी खास विपक्षी ब्रेकर के टॉप गियर में ही चलती रही. कांग्रेस के साथ यहां दोहरा संकट था. पहला यह कि उसे नेता प्रतिपक्ष के पद के लिए गिड़गिड़ाना पड़ रहा था. दूसरा भाजपा उसे विपक्ष के रूप में भी स्वीकार नहीं कर रही थी. वह विपक्षी दलों में एआईएडीएमके, बीजू जनता दल और तृणमुल कांग्रेस जैसे दल यहां तक कि सपा तक को संबोधित करती नजर आती थी, लेकिन कांग्रेस कांग्रेस की अनदेखी कर रही थी.
कांग्रेस के लिए इससे भी ज्यादा शर्मनाक बात यह थी कि उसके जैसे ही विपक्ष में बैठी हुई पार्टियां भी उससे दूर भाग रही थीं. टीएमसी और एआईएडीएमके जैसी पार्टियों ने स्पीकर से विनती की कि सदन में सीटों का निर्धारण होते समय उन्हें कांग्रेस के साथ बैठने के लिए सीटें नहीं दी जाएं. ये पार्टियां कांग्रेस के साथ कहीं से जुड़ती हुई नहीं दिखना चाहती थीं. यहां तक कि लोकसभा की जिस उपसभापति की कुर्सी पर बैठने के अरमान कांग्रेस संजो रही थी उस पर पानी फेरते हुए भाजपा ने वह भी जयललिता की पार्टी एआईएडीएमके को दे दी.
इस तरह से भाजपा ने तो सदन में कांग्रेस को हाशिए पर फेंका ही अन्य विपक्षी दलों ने भी उसे अछूत मानकर उससे दूरी बनाए रखने में ही भलाई समझी. इसका उदाहरण उस समय भी दिखा जब मोदी के प्रिंसिपल सेक्रेट्री नृपेंद्र मिश्रा की अध्यादेश के माध्यम से हुई नियुक्ति पर संसदीय मोहर लगाने का समय आया. कांग्रेस सभी विपक्षी दलों से इसकी खिलाफत करने की साझा रणनीति बनाती रही. लेकिन तृणमूल और सपा-बसपा जैसी पार्टियों ने – जिन्होंने लोकसभा में इसका विरोध किया था – यूटर्न मारते हुए राज्यसभा में अध्यादेश समर्थन कर दिया.
जिन एक-दो मौकों पर कांग्रेस लोकसभा में थोड़ा सक्रिय दिखी उनमें से एक था मल्लिकार्जुन खड़गे का वह संबोधन जिसमें उन्होंने कांग्रेस को सौ कौरवों के सामने पांच पांडवों के समान बताया था. इसके अलावा राहुल भी जब सांप्रदायिक हिंसा पर चर्चा की मांग को लेकर लोकसभा के वेल में उतरे तो सदन के बाहर चर्चा का माहौल गर्म हो गया. लेकिन जब इसपर सदन में चर्चा हुई तो उन्होंने उस चर्चा में हिस्सा नहीं लिया. इन गिने-चुने अवसरों के अलावा कांग्रेस सदन में वही कर रही थी, जो करते हुए कैमरे ने राहुल गांधी को पकड़ा था. यानी वह सो रही थी.
पार्टी का बचाव करते हुए रीता कहती हैं, ‘देखिए विरोध के लिए अभी बहुत जल्दी है. हम सरकार के कामों पर नजर बनाए हुए हैं. जहां जरूरी होगा वहां जरूर हम विरोध करेंगे. हम पूरी तरह सक्रिय हैं.’
रीता भले सक्रियता की बात करें लेकिन सदन के बाहर सड़क पर भी कांग्रेस मोदी सरकार को किसी मुद्दे पर न तो सही से घेरते हुई दिखी और न ही दिल्ली दरबार पहली बार परिचित हो रहे नरेंद्र मोदी को अपने 10 साल के प्रशासनिक अनुभव के आधार पर कोई सलाह ही दे पाई. जो थोड़ा-बहुत उसने कुछ किया भी तो ऐसा था मानों किसी ने कनपटी पर बंदूक रखवाकर कराया हो. उल्टा, वह अपनी हरकतों से हास्य का संचार जरूर करती नजर आई.
उदाहरण के लिए. प्रधानमंत्री मोदी जब जापान यात्रा पर गए थे उसी समय राहुल गांधी अमेठी गए हुए थे. वहां लंबे समय से जनता बिजली कटौती से त्रस्त थी. सो सांसद महोदय को देखा तो अपना रोष व्यक्त करने लगी. जनता का गुस्सा देख राहुल ने मामला मोदी के सिर मढ़ने की ठानी. मीडिया से कहा कि आप देख रहे हैं देश की जनता कैसे बिजली कटौती से जूझ रही है लेकिन मोदी जी जापान में जाकर ड्रम बजा रहे हैं. जनता ने राहुल के बयान पर क्या सोचा यह तो पता नहीं लेकिन सोशल मीडिया पर लोग उनके इस बयान पर मनोरंजन करते जरूर दिखे.
जो राहुल गांधी पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का चेहरा थे और जिनके ऊपर भाजपा को घेरने की प्राथमिक जिम्मेवारी थी, वे पिछले सवा-सौ दिन ईद का चांद बने रहे. राहुल से 20 साल ज्यादा उम्र वाले मोदी ने जहां चुनावों में उनसे ज्यादा रैलियां की, ज्यादा दूरी कवर की और प्रधानमंत्री बनने के बाद भी वे छुट्टी पर जाते नहीं दिखे वहीं राहुल पिछले चार महीने में अधिकांश समय छुट्टी पर ही रहे. औपचारिक रुप से उनके बारे में मीडिया क्या बताएगा जब उनकी पार्टी के नेताओं को ही पता नहीं रहता कि वे देश में हैं भी कि नहीं. पूरी पार्टी को शर्मिंदा करने वाला वह वाकया लोगों के जहन में ताजा होगा जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के विदाई भोज से राहुल गायब थे. पार्टी के एक नेता कहते हैं, ‘ शर्मनाक उनका गायब रहना नहीं था बल्कि ये था कि पार्टी के लोगों को पता ही नहीं था कि वे कहां हैं.’
पिछले चार महीनों में न तो राहुल ने कोई प्रेस कॉंफ्रेंस की और न ही सरकार के किसी कदम की मजबूत आलोचना. यहां भी मोर्चा संभालने का काम सोनिया गांधी ने ही किया. वे ही भाजपा की सांप्रदायिकता से जनता को आगाह करती नजर आईं. स्थिति को ऐसे समझा जा सकता है कि मोदी सरकार द्वारा श्रम कानूनों में बदलाव की खबरों पर सबसे अधिक मुखर विरोध संघ के संगठन भारतीय मजदूर संघ की ओर से सामने आया. कांग्रेस यहां भी मुंह में ही बोलती दिखाई दी.
मोदी सरकार के सौ दिन पूरे होने पर कांग्रेस ने एक रचनात्मक कदम उठाते हुए दर्जन भर सरकारी मंत्रालयों के शैडो ट्विटर अकाउंट जरूर बनाए. यहां विशेषज्ञों की सेवा लेते हुए वह इन मंत्रालयों की कथित नाकामियां सामने लाती दिखी. लेकिन कांग्रेस के इस प्रयास को जनता ने कितनी गंभीरता से लिया ये उन ट्विटर अकाउंटों के फॉलोवरों की संख्या देखकर पता चलता है. किसी के 22 फॉलोवर हैं तो किसी के 24 या 64.
राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई कहते हैं, ‘पिछले चार महीनों में कांग्रेस हर मोर्चे पर फेल ही दिखाई दी है. पूरी पार्टी में हताशा का भाव है. न उसमें कहीं कोई जिम्मेदारी उठाता दिख रहा है और न ही जल्द इसमें बदलाव की ही सूरत दिख रही है.’
मोदी सरकार द्वारा श्रम कानूनों में बदलाव की खबरों पर सबसे अधिक मुखर विरोध संघ के संगठन भारतीय मजदूर संघ की ओर से सामने आया. कांग्रेस यहां भी मुंह में ही बोलती दिखाई दी
एक तरफ जहां मोदी सरकार की रचनात्मक आलोचना से पार्टी चूकती दिखाई दी वहीं उसके नेता समय-समय पर मोदी सरकार की प्रशंसा करके पार्टी की फजीहत भी कराते रहे. मोदी सरकार के शपथ लेने के एक महीने के भीतर ही तिरुअनंतपुरम से सांसद शशि थरूर ने मोदी की तारीफ करके पूरी पार्टी को सकते में डाल दिया. थरूर ने अपने एक लेख में लिखा ‘ बहुमत मिलने के बाद मोदी और बीजेपी के जिस रवैये का विरोधी दलों को अंदेशा था वह गलत साबित हुआ है. बीजेपी ने पुराने तरीकों को त्याग कर सभी को चौंका दिया है. मोदी के सकारात्मक रवैये के साथ सभी को साथ लेकर चलने की कोशिश की हम प्रशंसा करते हैं और इस बदलाव की अनदेखी करना गलत होगा.’ थरूर के इस लेख के सामने आते ही कांग्रेस में हड़कंप मच गया. किसी को उम्मीद नहीं थी कि उनकी अपनी पार्टी का नेता एक महीने में ही मोदी सरकार को इस तरह का प्रशंसा पत्र भेंट करेगा. कांग्रेस थरूर की प्रशंसा से कितना बौखलाई थी यह मणिशंकर अय्यर के बयान से साबित हो जाता है. अय्यर ने थरूर की आलोचना करते हुए कहा कि उनके इस बयान के बाद लोकसभा में पार्टी की संख्या 44 से 43 हो गई है.
कुछ दिनों बाद ही थरूर ने एक बार फिर हंगामा तब मचाया जब मोदी सरकार में मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी से मुलाकात के बाद उन्होंने ट्वीट किया. थरूर ने लिखा कि भारत की शैक्षणिक चुनौतियों पर ईरानी के साथ अच्छी चर्चा हुई. मैं समर्पित और मिलनसार मंत्री की सराहना करता हूं. मानव संसाधान विकास मंत्रालय के लिए शुभकामनाएं.’ थरूर के इस ट्वीट के बाद फिर से कांग्रेस के कई नेता सफाई देते और मांगते दिखाई दिए.
अभी कुछ समय पहले ही कांग्रेस तब अवाक रह गई जब दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का ठीक उस समय एक बयान आया जब बीजेपी जोड़-तोड़ करके दिल्ली में अपनी सरकार बनाना चाहती थी, शीला का कहना था, ‘लोकतंत्र में चुनी हुई सरकारें हमेशा अच्छी होती हैं क्योंकि वे लोगों का प्रतिनिधित्व करती हैं. और अगर बीजेपी सरकार बना सकती है तो यह दिल्ली के लिए अच्छा है.’ शीला के इस बयान से पहले तो पूरी पार्टी सकते में आ गई. फिर अपनी चिढ़ को छुपाते हुए पार्टी नेताओं ने कहा कि ये शीला जी के अपने विचार हैं. शीला द्वारा कांग्रेस को दिए इस जख्म पर भाजपा ने यह कहकर नमक रगड़ा कि शीला जी वरिष्ठ राजनेता हैं अगर कुछ कह रही हैं तो इसका मतलब है.
कांग्रेस को शीला दीक्षित से मिले जख्म अभी हरे ही थे कि दिग्विजय सिंह ने उस पर एक और हमला कर दिया. हाल ही में कश्मीर में आई बाढ़ और उससे मची त्रासदी को लेकर कांग्रेस मोदी सरकार पर हमलावर थी. तर्क वही पारंपरिक थे कि सरकार सो रही थी. लोगों को राहत नहीं मिल रही है. सरकार त्रासदी को लेकर गंभीर नहीं है आदि आदि. लेकिन कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह पार्टी लाइन को छोड़कर किसी और पटरी पर ही दौड़ने लगे. दिग्विजय ने कश्मीर बाढ़ में मोदी सरकार के कार्यों की न सिर्फ प्रशंसा की बल्कि मोदी के पीओके में राहत पहुंचाने की पेशकश की भी खूब तारीफ की. इसके अलावा जिस जन-धन योजना को कांग्रेस अपनी पिछली सरकार का आइडिया बता रही थी उसके लिए दिग्विजय सिंह ने मोदी सरकार की सार्वजनिक रूप से प्रशंसा की.
फजीहत कराने के इस क्रम में कमलनाथ भी पीछे नहीं रहे. विनोद राय के इंटरव्यू से 2जी मामले में एक बार फिर शुरू हुई चर्चा के बीच कमलनाथ का बयान आया कि कैसे उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को चिट्ठी लिखकर 2जी आवंटन के बारे में चेताया था. कमलनाथ ने कहा, ‘मैंने उस वक्त प्रधानमंत्री को लेटर लिखकर 2जी आवंटन को लेकर आगाह किया था. यह लेटर सरकारी फाइलों में है’. अपने ही पूर्व प्रधानमंत्री के बारे में पार्टी के ही वरिष्ठ नेता की टिप्प्णी से कांग्रेस एक बार और शर्मसार हुई.
करीब 125 दिनों के इसी कालखंड में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व मंत्री जयराम रमेश मोदी को भारत का रिचर्ड निक्सन बताते नजर आए. एक साक्षात्कार में जयराम ने मोदी की तारीफ करते हुए कहा, ‘ मोदी में भारत के रिचर्ड निक्सन के तौर पर उभरने की पूरी क्षमता है. जिस तरह से निक्सन ने चीन को अमेरिका के लिए खोला, उसी तरह से मोदी में क्षमता है और वह चीन और पाकिस्तान से डील करते समय निक्सन जैसा बन सकते हैं. इन देशों से डील करने में जो आज़ादी मोदी के पास है वह मनमोहन सिंह के पास नहीं थी.’
हाल ही में मोदी के अमेरिका यात्रा पर उनके दिए भाषणों पर भी कांग्रेसी नेता विभाजित दिखे. एक धड़ा जहां मोदी के भाषणों की सार्वजनिक तौर पर तारीफ करता दिखा वहीं पार्टी का दूसरा वर्ग आलोचना कर रहा था. इस तरह से एक तरफ जहां कांग्रेस का एक धड़ा मोदी और उनकी सरकार की समय समय पर पिछले 125 दिनों में प्रशंसा करता दिखा वहीं पार्टी के दूसरे नेता दूसरे सुर में बात करते दिखाई दिए. इसे कांग्रेस समर्थक परिवक्वता और पार्टी में लोकतंत्र का उदाहरण बता सकते हैं. लेकिन दिक्कत यह है कि ऐसा मानने का कोई कारण नहीं दिखता.
आने वाले समय में कांग्रेस किस दिशा में आगे बढ़ेगी या उसने पिछली हार से कितना सीखा है इसका पता उस एंटनी कमेटी रिपोर्ट से भी चलता है जिसको लोकसभा चुनाव में हार के कारणों को पता लगाने की जिम्मेदारी दी गई थी. कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि चुनाव में हार के लिए पार्टी का नेतृत्व अर्थात राहुल गांधी और सोनिया गांधी किसी तरह से जिम्मेदार नहीं हैं. नेतृत्व से कोई गलती नहीं हुई. अपनी रिपोर्ट में एंटनी ने नेतृत्व के अलावा पूरी कायनात को कांग्रेस की हार का जिम्मेवार ठहरा दिया. ऐसे आत्मनिरीक्षण के दम पर पार्टी का कल आज से कितना बेहतर होगा आने वाला समय ही बताएगा.
अगर जनार्दन दिवेदी को पता है कि प्रियंका काबिल हैं तो क्या प्रियंका की मां को नहीं पता कि उनके बेटे और बेटी में से काबिल कौन हैं. लेकिन उन्होंने राहुल जी को आगे बढ़ाने का निर्णय लिया….’पार्टी के रूप में कांग्रेस के 16 मई के बाद से आज तक के सफर पर नज़र डालें तो पता चलता है कि कैसे लोकसभा चुनावों में उसकी हार ने उसके भीतर पहले से पल रहे गुस्से को जुबान दे दी. कैसे चुनाव में पार्टी की हुई बुरी हार से उसके नेताओं को पार्टी लाइन के इतर कुछ और कहने की हिम्मत मिल गई. सबसे पहले पार्टी के पूर्व सांसद मिलिंद देवड़ा ने पार्टी की हार के लिए दबी जुबान में राहुल को जिम्मेवार ठहराया. देवड़ा ने यह कहते हुए राहुल पर हमला बोला कि सलाहकारों से गलत सलाह लेने वाला व्यक्ति भी उतना ही जिम्मेवार है जितना गलत सलाह देकर चुनाव हरवाने वाले सलाहकार.
अति सुंदर लेख। लेखक बधाई के पात्र है।