ज़िन्दगी देने वालों को ही लावारिस छोड़ते लोग

कोरोना वायरस से बचाव बहुत ज़रूरी है। लेकिन इससे रिश्तों में फीकापन न आ जाए, इस बात का ध्यान सभी को रखना चाहिए। कुछ लोग इस बात का ध्यान इसलिए नहीं रख रहे हैं, क्योंकि उन्हें केवल अपने जीवन का मोह है, अपनी सुरक्षा की चिन्ता है। ऐसे लोगों में बड़ी संख्या उन लोगों की है, जो मृत्यु के भय से अपनों को भी छोडक़र भाग खड़े होते हैं। इस दौरान ऐसी कई तस्वीरें देखने को मिल रही हैं। कोरोना वायरस का लोगों में इतना भय फैल चुका है कि वे अपनों की मृत्यु के बाद उनका अन्तिम संस्कार तक नहीं कर रहे हैं।

नोएडा के सेक्टर-9 में रेस्टोरेंट चलाने वाले पंजाब के हरजीत सिंह उर्फ गोल्डी (बदला हुआ नाम) की हाल ही में अचानक हार्ट अटैक से मौत हो गयी। उनकी डॉक्टरी जाँच हुई, उन्हें कोरोना नहीं था। अस्पताल प्रशासन और उनके परिचितों और पुलिस की मदद से उनका पाॢथव शरीर उनके पंजाब स्थित घर पहुँचाया गया। मगर बेहद अफसोसजनक बात यह रही कि उनकी माँ, पत्नी और बच्चों ने उन्हें हाथ लगाना तो दूर, अन्तिम विदा देने का भी साहस नहीं किया। उनकी अन्तिम यात्रा में भी कोई नहीं गया, यहाँ तक कि उन्हें मुखाग्नि भी उनके चचेरे भाई ने पीपीई किट पहनकर दूर से ही दी। सोचिए, अगर पुलिस प्रशासन और एम्बुलेंस में तैनात स्वास्थ्यकर्मी उनके मृत शरीर को श्मशान घाट तक ले जाकर उसका अन्तिम संस्कार करने का आवश्यक काम नहीं करते, तो भला उनका क्या होता? आिखर कितना भी बुरा समय चल रहा हो; कितनी ही भयंकर महामारी का दौर क्यों न हो; कितना भी बचाव करने की हम सबको ज़रूरत क्यों न हो; मगर किसी मरे हुए इंसान के शव को यूँ ही सडऩे के लिए तो नहीं छोड़ा जा सकता। सवाल यह है कि वही घर वाले, जिन्हें इंसान कमाकर खिलाता है, उसके मरने के बाद लावारिस क्यों छोड़ रहे हैं। वही बच्चे, जिन्हें मरने वाले ने न केवल ज़िन्दगी दी, बल्कि उन्हें पालपोसकर बड़ा भी किया; कैसे अपने ही माता-पिता को मृत्यु के बाद लावारिस छोड़ सकते हैं? या कहें कि किस कठोर दिल से वे ऐसा कर पाते हैं? वह पत्नी या पति, जिसमें किसी की ज़िन्दगी एक-दूसरे के बिना चलती नहीं है; वह उस जीवनसाथी को मरने के बाद कैसे लावारिस छोड़ देता है? वह भी इस हद तक कि हाथ लगाना तो छोड़ो, उसका अन्तिम संस्कार करने तक को आगे नहीं बढ़ता।

जबसे कोरोना वायरस जैसी महामारी फैली है, भारत में ऐसे अनगिनत मामले सामने आ चुके हैं, जिनमें अपने ही लोगों ने मरने वालों का अन्तिम संस्कार तक करने से मना कर दिया है। ऐसे में मानवता और प्यार के पैरोकार कुछ लोग सामने आ रहे हैं। इनमें अधिकतर वे लोग हैं, जिनका मरने वाले से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं निकलता है। पर मानवता को सबसे बड़ा धर्म मानने वाले कुछ लोग ऐसे में सामने आये और लावारिस की तरह अपनों के शवों को छोडऩे वालों के लिए एक मिसाल कायम करते हुए शवों का अन्तिम संस्कार किया। देश भर में ऐसे मामलों को अगर गिनकर उन पर लिखने बैठ जाएँ, तो एक पूरी किताब लिखी जा सकती है। इसलिए केवल मानवता और इंसानों में प्यार की भावना को ज़िन्दा रखने के लिए कुछेक उदाहरण देखे जा सकते हैं।

पश्चिम बंगाल के मालदा ज़िले के एक गाँव में एक हिन्दू की मौत के बाद उसके शव को काँधा देने के लिए हिन्दू पड़ोसी ही आगे नहीं आये। ऐसे में गाँव के कुछ मुस्लिम लोग शव को काँधा देने आगे आये। इस घटना में सुखद और हृदय को तसल्ली देने वाली बात यह है कि शव को काँधा देने आगे आये मुस्लिमों ने न केवल हिन्दू रीति में बोले जाने वाले ‘राम नाम सत्य है’, ‘बोल हरि, हरि बोल’ बोलते रहे, बल्कि 15 किलोमीटर दूर श्मशान तक जाकर अन्तिम संस्कार में पूरे दिल से शामिल हुए। इसी तरह मुम्बई के बांद्रा में एक हिन्दू बुजुर्ग प्रेमचंद बुद्धलाल की मृत्यु पर उसके शव को काँधा देने के लिए जब पड़ोसी आगे नहीं आये और रिश्तेदार लॉकडाउन के चलते नहीं पहुँच सके, तो बुजुर्ग के मुस्लिम पड़ोसी अन्तिम संस्कार में शामिल हुए। यहाँ भी मुस्लिम युवकों ने ‘राम नाम सत्य है’ का लगातार उद्घोष किया।

कानपुर की घटना में भी मुस्लिम युवकों ने ऐसी ही मिसाल पेश की। यहाँ के नरोना रोड पर कौशल प्रसाद अकेले रहते थे। उनकी पत्नी की बहुत पहले ही मौत हो चुकी थी। कौशल प्रसाद की एक बेटी है, जो अपनी ससुराल सीतापुर में रहती है। लॉकडाउन के दौरान कौशल प्रसाद की मौत हो गयी। बेटी को खबर की गयी, पर वह मजबूरी में नहीं पहुँच सकी। कई हिन्दू पड़ोसी कौशल प्रसाद के शव को हाथ लगाना नहीं चाहते थे। ऐसे में कुछ हिन्दू और कुछ मुस्लिम पड़ोसियों ने मिलकर शव का अन्तिम संस्कार किया। इस घटना में भी मुस्लिमों ने न केवल शव को काँधा दिया, बल्कि ‘राम नाम सत्य है’ का लगातार उद्घोष किया। ऐसा ही नज़ारा मध्य प्रदेश स्थित भोपाल के टीलाजमालपुरा इलाके में देखने को मिला। यहाँ अप्रैल में किसी अन्य बीमारी की वजह से एक हिन्दू महिला की मौत हो गयी थी। मौत के बाद महिला के परिजन तक उसके अन्तिम संस्कार को आगे नहीं आये, तब इलाके के मुस्लिम युवाओं ने शव के अन्तिम संस्कार का इंतज़ाम किया और छोला विश्राघाट के श्मशान घाट ले जाकर शव का अन्तिम संस्कार किया। इस घटना की एक फोटो मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ के ट्वीटर पर अपलोड हुई थी, जिसके बाद यह घटना काफी चॢचत हुई।

उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ ज़िले के लालगंज इलाके में भी इसी तरह की एक घटना सामने आयी। यहाँ स्थित दाँदूपुर पड़ान गाँव में एक अकेले व्यक्ति, जो परिवार न होने के चलते साधु हो गये थे; की मौत हो गयी। कोरोना के डर से बहुत से हिन्दू साधु के शव को हाथ लगाने से डरते रहे। यहाँ तक कि साधु के रिश्तेदार भी उनके शव को हाथ लगाने को तैयार नहीं हुए। ऐसे में गाँव के मुस्लिम युवकों ने साधु की अन्तिम यात्रा निकाली। साधु की मौत के बाद मुस्लिम युवकों द्वारा उनके अन्तिम संस्कार कीदूर-दूर तक चर्चा हो रही है। मध्य प्रदेश के भोपाल में ही एक ऐसा मामला भी सामने आया, जिसमें बुजुर्ग की मौत के बाद उसके परिजनों ने शव लेने तक से मना कर दिया। यह घटना भी पंजाब वाली घटना की तरह ही हृदय विदारक है। इस घटना में तो बुजुर्ग को कोरोना था; लेकिन दूर से ही सही, परिजनों को अन्तिम संस्कार तो करना चाहिए था। मगर ऐसा नहीं हुआ। इस बुजुर्ग को सरकारी अस्पताल से ही सीधे श्मशान घाट ले जाया गया और वहाँ के तहसीलदार ने मुखाग्नि दी। परिवार के सभी लोग गैरों की तरह काफी दूर खड़े होकर शव को जलते देखते रहे, पर हाथ लगाने नहीं आये। मगर तहसीलदार ने बिना कुछ कहे, अपनी जान जोखिम में डालकर शव का अन्तिम संस्कार किया। इतना ही नहीं, हिन्दू धर्म में शव दाह के तीसरे दिन मृतक की अस्थियाँ बीनी जाती हैं, जिन्हें एक कलश में बन्द करके गंगा में प्रवाहित करने का रिवाज़ है। बुजुर्ग के परिवार वालों ने वह भी नहीं किया।

मौत का इतना डर? कि अपने ही लोग कोरोना के चलते, दूसरी बीमारियों से या सामान्य मौत के बाद भी शव को हाथ लगाने से भी कतरा रहे हैं! वह भी तब, जब मरने वाले अपने थे! सोचिए, कि जिन्होंने पैदा किया। पालन-पोषण किया। जिन्होंने हर सुख-दु:ख में साथ दिया। कमाकर खिलाया। उन्हीं लोगों को मरने के बाद अपने ही लोग अन्तिम विदा तक नहीं कर रहे हैं। क्या यह ठीक है? क्या इससे इंसानियत, अपनापन, प्यार, एक-दूसरे के लिए मेहनत करने का ज•बा, मोह, परिवार बढ़ाने की परम्परा, संस्कार, संस्कृति, पारिवारिक एकता और विश्वास आदि खत्म नहीं हो रहे? जब अपने ही लोग मरने के समय इस तरह छोडऩे लगेंगे, तो कौन किसके लिए अपने जीवन के सुख त्यागकर मेहनत करेगा? कभी सोचा है कि अगर कोई भी किसी के मरने पर हाथ तक नहीं लगायेगा, तो मरने वालों के शव सडऩे लगेंगे और जो बीमारी आज महामारी बनी हुई है, वह और भी भयंकर रूप धारण करके और तेज़ी से फैलती चली जाएगी। यही नहीं अन्य कई बीमारियाँ भी बुरी तरह बढ़ती चली जाएँगी, जिन्हें रोकना मुश्किल हो जाएगा।

इन घटनाओं का दूसरा पहलू यह है कि एक तरफ तो कुछ लोग हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे को, जिसे हम गंगा-जमुनी तहज़ीब कहते हैं; खत्म करने पर तुले हैं। वहीं दूसरी ओर उसे अभी भी बहुत लोग हैं, जो बचा रहे हैं। इस देश का न तो कोई एक धर्म है, न कोई एक संस्कार है और न इस देश में कोई एक जाति है। ऐसे में इस देश की एकता को सँभाले रखना आसान काम नहीं है। इसलिए यहाँ कहा जाता है कि मानवता सबसे बड़ा धर्म है। कुछ लोग इसी मानवता के धर्म को बचाते रहे हैं और सदा बचाते रहेंगे।