ज़िंदगी की दौड़ में हारे मिल्खा सिंह

स्मृति शेष : भारतीय एथलेटिक्स का अनोखा चितेरा  

वह स्प्रिंटर थे लेकिन ज़िंदगी उन्होंने लम्बी दौड़ के धावक की तरह जी। ट्रैक पर जब वे दौड़ते थे तो लगता था कोई इंसान उड़ रहा है। लिहाजा उनका नाम ही ‘उड़न सिख’ पड़ गया। ट्रैक से बाहर ज़िंदादिल मिल्खा सिंह एक बेहद संवेदनशील इंसान भी थे। शायद इसलिए अस्पताल के बिस्तर पर दो दिन पहले जब उन्होंने पत्नी निर्मल के स्वास्थ्य की फ़िक्र में घरवालों से आग्रह किया कि निम्मी से उनकी बात करवाई जाए तो घरवाले ऐसा नहीं कर सके थे। करते भी कैसे, मिल्खा की जीवनसाथी तो 13 जून को ही किसी दूसरी दुनिया में चली गयी थीं और मिल्खा को यह जानकार शॉक न लगे, उनसे खबर  छिपाकर रखी गयी थी। परिजनों की लगातार खामोशी से मिल्खा समझ गए उनकी निम्मी जा चुकी है। इसके बाद वो ज्यादा घंटे नहीं जी पाए। मिल्खा सिंह लम्बी यात्रा पर निकल गए हैं, लेकिन भारतीय एथलेटिक्स के ट्रैक पर उनके विजयी पदचिन्ह अमिट रहेंगे।

शाम 5 बजे मिल्खा सिंह (91) उसी मिट्टी में विलीन हो जाएंगे, जिस मिट्टी पर कभी नंगे पाँव दौड़ते हुए उन्होंने इतनी तेजी पकड़ी कि वे फ्लाईंग सिख बन गए। किसी भारतीय के ओलंपिक में स्वर्ण जीतने की उनकी इच्छा भले अधूरी रह गयी, शायद फिर कभी कोई मिल्खा सिंह इसे पूरा कर दे। पद्मश्री मिल्खा सिंह का जलवा ही था कि उनपर फिल्म भी बनी। जीवट से भरे मिल्खा से महीने भर लड़कर कोरोना को तो मात दे दी थी और वे नेगेटिव भी हो गए थे, लेकिन इस उम्र में शरीर की कमजोरी के बावजूद वे जीवन की जंग लड़ते रहे। शायद पत्नी निर्मल जीवित रहतीं तो मिल्खा पुरानी हिम्मत के साथ फिर हमारे सामने होते।

पद्मश्री मिल्खा सिंह का शुक्रवार देर रात पीजीआई, चंडीगढ़ में जब निधन हुआ तब वे काफी कमजोर दिख रहे थे। इसी बुधवार को उनकी कोरोना रिपोर्ट निगेटिव आई थी। शुक्रवार दोपहर अचानक उनकी तबीयत बिगड़ी। बुखार भी हुआ और ऑक्सीजन लेवल भी धोखा देने लगा। पीजीआई के वरिष्ठ डॉक्टरों की टीम लगातार इस दिग्गज पर नजर बनाये थी। लेकिन देर रात 11.40 बजे अंतिम सांस लेते हुए मिल्खा भारतीय एथलेटिक्स में एक बड़ा शून्य छोड़ गए।

मिल्खा सिंह के साथ उनकी पत्नी निर्मल कौर ( जिन्हें मिल्खा निम्मी कहते थे) कोरोना संक्रमित हो गईं थीं। उन्हें गंभीर हालत में मोहाली के निजी अस्पताल में दाखिल कराया गया था, जहाँ 13 जून की शाम वो चल बसीं थीं। निर्मल भारतीय बॉलीबाल टीम की कप्तान रही थीं और जीवट में मिल्खा सिंह से कहीं कम न थीं। लेकिन होनी को शायद यही मंजूर था।

पत्नी की मौत को परिजनों ने मिल्खा सिंह से छिपाकर रखा था। इस डर से कि कहीं उन्हें शॉक न लगे। पत्नी से मिल्खा का लगाव सभी जानते थे। सोचा था, मिल्खा पूर्ण स्वस्थ हो जायेंगे तो तब उन्हें जीवनसाथी के जाने की बुरी खबर देंगे। परिजनों के मुताबिक दो दिन से मिल्खा पत्नी निम्मी से फोन पर बात करवाने की जिद्द कर रहे थे। साथ ही यह भी कह रहे थे कि निम्मी उनके सपने में आकर कह रही हैं कि वे अब इस दुनिया में नहीं। परिजनों की खामोशी और नम आँखों से शायद मिल्खा समझ गए थे कि उनकी निम्मी से कोई अनहोनी हो गयी है। इसके बाद वे ज्यादा घंटे नहीं जी पाए।

मिल्खा सिंह  की जिम्मेवारी भी बखूबी निभाई। उनके इकलौते बेटे जीव मिल्खा सिंह अंतरराष्ट्रीय गोल्फर हैं जबकि बेटियां भी अपने जीवन में खुश हैं। मिल्खा सिंह का जाना एक युग का अंत है। उनके भारतीय एथलेटिक्स के पटल पर छा जाने के बाद अनगिनत युवाओं ने मिल्खा को आदर्श मानकर उन जैसा एथलीट बनने की कल्पना की। देश के दर्जनों प्रमुख लोगों और करोड़ों आम लोगों ने मिल्खा के निधन का शोक मनाते हुए उन्हें श्रद्धांजलि दी है।

मिल्खा की उपलब्धियां भी गौर करने लायक हैं। साल 2010 की राष्ट्रमंडल खेलों तक मिल्खा सिंह के बाद कोई भारतीय एथलीट ऐसा नहीं था, जिसने इन खेलों में स्वर्ण पदक जीता हो। साल 1958 और 1962 के एशियाई खेलों में भी मिल्खा ने 400 मीटर स्प्रिंट में स्वर्ण पदक जीते।  लेकिन भारतीय एथलेटिक्स के इतिहास में जिस एक पल ने मिल्खा सिंह को शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचा दिया, वह 1950 के ओलम्पिक स्प्रिंट का फाइनल था। वे एक सेकंड के सौवें हिस्से से कांस्य पदक से चूक गए, लेकिन 400 मीटर में 45.73 सेकंड का उनका ये गजब रेकॉर्ड देश में 40 साल तक और कोई नहीं तोड़ पाया।

शायद बहुत कम लोगों को पता होगा कि मिल्खा सिंह ने 1968 में जाकर पहली बार जीवन कोई मूवी देखी थी। इससे पहले मिल्खा कई बार ओलम्पिक, एशियाई खेलों और राष्ट्रमंडल खेलों में विदेश जा चुके थे। यह दिलचस्प संयोग ही है कि इन्हें मिल्खा सिंह पर फरहान अख्तर ने ‘भाग मिल्खा भाग’ बनाई जिसे देखकर नई पीढ़ी को उनकी ज़िंदगी के कुछ अनछुए पहलूओं की जानकारी मिली।

दुनिया भर में अपने एथ्लेटिसिज्म का लोहा मनवाने वाले मिल्खा सिंह भारतीय सेना में तीन बार कोशिश करके भी सफल नहीं हो पाए थे। चौथी बार जाकर वे सेना के लिए चुने गए और यहीं से उनके जीवन ने पलटी मारी और वे भारतीय खेल जगत का नूर बने। सेना ने उनकी प्रतिभा को देखते हुए उनकी खेलों में भागीदारी सुनिश्चित की।

शोहरत के तमाम आयाम देखने वाले मिल्खा को जब 2001 में जाकर अर्जुन अवार्ड की घोषणा हुई तो नाराज मिल्खा ने इसे विनम्रतापूर्वक स्वीकार करने से मना कर दिया और कहा कि यह बहुत देरी से आया है, 40 साल के बाद। उनकी नाराजगी की बजह थी कि 1961 में अर्जुन पुरस्कार शुरू होने के बावजूद उनका नाम कभी अर्जुन पुरूस्कार के लिए नहीं भेजा गया जबकि वे उस समय अपनी उपलब्धियों के बूते इसके सबसे बड़े दावेदार थे।

मिल्खा सिंह की एक ऑटोबायोग्राफी भी है – द रेस ऑफ माई लाइफ। इसे उन्होंने 2013 में अपनी पुत्री सोनिया के साथ मिलकर लिखा और प्रकाशित किया था। यहाँ एक और दिलचस्प बात है। फिल्म निदेशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने जब उनपर मूवी बनाने की घोषणा की तो बड़े दिल वाले मिल्खा सिंह ने अपनी ऑटोबायोग्राफी मेहरा को महज एक रूपये की टोकन कीमत पर दे (बेच) दिया था। एयर और बात मिल्खा अपने जीवन में जीते तमाम मैडल और ट्राफियां स्पोर्ट्स म्यूजियम पटियाला को दे चुके हैं ताकि यह धरोहर नई पीढ़ियों को प्रेरणा दे सके।

बहुत काम लोगों को जानकारी होगी कि मिल्खा सिंह को उड़न सिख (फ्लाईंग सिख) का नाम पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल अयूब खान ने दिया था। पाकिस्तान एक 200 मीटर की स्प्रिंट के एक अंतर्राष्ट्रीय मुकाबले के दौरान पाकिस्तान के नामी एथलीट अब्दुल खालिक भी मिल्खा के साथ फाइनल में पहुंचे थे। पाकिस्तान में सबको भरोसा था कि मिल्खा को हराकर जीत अब्दुल की ही होगी।

दौड़ शुरू हुई और और जब मिल्खा दौड़े तो बाकी सब पीछे रह गए। मुख्य अतिथि के रूप में पुरूस्कार देते हुए जनरल अयूब खान ने मिल्खा की तारीफ़ में कहा – ‘अर्रे, ये सरदार दौड़ता है या उड़ता है। ये तो फ्लाइंग सिख है।’ बस यहीं से मिल्खा सिंह फ्लाईंग सिख के नाम से मशहूर हो गए। यहाँ यह जानना भी दिलचस्प है कि मिल्खा पहले इस मुकाबले में जाना नहीं चाहते थे क्योंकि भारत बंटवारे के में दंगों में उन्होंने  मुश्किल से अपनी जान बचाई थी जबकि उनके माता-पिता और बहनें इन दंगों की भेंट चढ़ गए थे। लेकिन तब प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने उनसे विशेष आग्रह कर उन्हें पाकिस्तान भेजा था।
मिल्खा सिंह अब हमेशा के लिए विदा ले गए हैं। देश के खेलों में उनका नाम हमेशा अमर रहेगा।